भारतीय परिप्रेक्ष्य में सतत् शिक्षा की प्रासंगिकता | Relevance of Continuing Education on Indian Context in Hindi
भारतीय परिप्रेक्ष्य में सतत् शिक्षा की प्रासंगिकता | Relevance of Continuing Education on Indian Context in Hindi
भारतीय परिप्रेक्ष्य में सतत् शिक्षा की प्रासंगिकता
(Relevance of Continuing Education on Indian Context)
विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में भारतीय नागरिकों को अधिकारिक साक्षर बनाने हेतु स्वतन्त्रता पश्चात् के प्रयासों ने यह सिद्ध कर दिया था कि बिना सतत् शिक्षा के प्रयास से यह सभी प्रयास व्यर्थ हैं क्योंकि जिन व्यक्तियों को एक वर्ष पूर्व सामान्य साक्षरता का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था, वह क्रमिक रूप से अगली बार तक पुनः निरक्षर में बदल जाता था, कारण सतत् एवं अनुवर्ती कार्यक्रमों की अनुपस्थिति, उनका अप्रभावी होना अथवा उनका क्रियान्वयन भलो प्रकार से न होना। अतः मूलभूत रूप से भारतीय श्रम शक्ति एवं धन की रक्षा के साथ –साथ भारती साक्षरों की साक्षरता इसी कार्यक्रम में निहित है जिसके उपयुक्त क्रियान्वयन तथा समंजन कीभारतीय परिवेश में अत्यधिक आवश्यकता है। विभिन्न आयोगों, संगठनों, शिक्षाविदों ने भी बार- बार इसी तथ्य पर अतिरिक्त बल प्रदान किया है।
फिर भी सतत् शिक्षा के बहुआय, नी स्वरूप को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है जिससे यह ज्ञात हो सके कि कार्यक्रम भारतीय परिवेश में कितनी मौलिक प्रासंगिकता रखता है? इसी कारण यहाँ पर निम्नलिखित बिन्दुओं पर प्रकाश डाला जा रहा है-
- सतत् शिक्षा की आर्थिक प्रासंगिकता,
- सतत् शिक्षा की सामाजिक-शैक्षिक प्रासंगिकता,
- सतत् शिक्षा की राजनैतिक प्रासंगिकता,
- सतत् शिक्षा की तकनीकी, व्यावसायिक एवं सांस्कृतिक प्रासंगिकता,
- सतत् शिक्षा को मनोवैज्ञानिक एवं शैक्षणिक प्रासंगिकता।
अब यहाँ पर प्रत्येक बिन्दु के बारे में संक्षिप्त विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
- सतत् शिक्षा की दार्शनिक प्रासंगिकता- भारतीय संस्कृति में जन्म से समस्त प्राणी समुदाय एक समान है। वह मानवोचित सभी गुणों का समान रूप से उत्तरदायी है जैसे ज्ञान. कौशल, शिक्षा, आदि। सदैव से भारतीय दर्शन की यही मान्यता रही है। विश्व के अन्य दर्शन भी इसी विचारधारा में पूर्ण एवं आंशिक आस्था व्यक्त करते हैं। निरन्तर परिवर्तित जगत में प्रत्येक व्यक्ति की आशाओं एवं उम्मीदों की पूर्ति हेतु उसकी क्षमताओं का पूर्ण विकास, बिना किसी अवरोध के सतत् चलने वाली शैक्षिक प्रक्रिया के द्वारा ही सम्भव है। यह प्रबुद्ध एवं शिक्षित व्यक्तियों का नैतिक एवं मानवीय उत्तरदायित्व है कि वे गरीबी, भुखमरी, बीमारी, विपत्ति, अज्ञानता के अन्धकार से बाहर निकल सकें। वे सामाजिक न्याय प्राप्त कर सकें, देश की उन्नति में सहायक सिद्ध हो सकें। यह कार्य सतत् शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।
- सतत् शिक्षा एवं इसकी आर्थिक प्रासंगिकता – भारतीय विकासशील परिस्थितियों में अधिकांश जनता निरक्षर एवं अल्पशिक्षित है। जो व्यक्ति शिक्षित हैं, वे भी ऐसे ज्ञान एवं कौशलों से वंचित हैं जो उसके जीविकोपार्जन हेतु आवश्यक है। यही कारण है कि देश में पर्याप्त बेरोजगार की संज्ञा प्रदान की जाती है। औपचारिक शिक्षा इन्हों बेराजगारों के आँकड़ों को निरन्तर बढ़ा रही है। परिणामस्वरूप देश और अधिक गरीबो एवं अज्ञानता के दुष्चक्र में फँसा है। इन सभी तथ्यों की जवाबदेही राष्ट्र पर है जिसके लिए सतत् शिक्षा अमोघ यन्त्र की भाँति कार्य कर सकती है-
–उत्पादन में वृद्धि करने में,
–संसाधनों का संरक्षण और उनका अधिक विकास करने में।
–अधिक अनुकूलित अधिगम वातावरण तैयार करने में।
–पर्यावरणीय तथा वैयक्तिक स्वास्थ्य रक्षा की बुनियादी आदतों को सीखने में।
- सतत् शिक्षा एवं उसकी राजनीतिक प्रासंगिकता- भारत ने प्रजातांत्रिक प्रणाली में किशोरों को भी भागीदार बना दिया है। अब वे भी अपने मतों का प्रयोग करके भावो भारत की आकांक्षाओं का निर्माण कर सकते हैं। किन्तु, जहाँ राष्ट्र में इतने अधिक संकट उपस्थित हैं, वहाँ राष्ट्र के इन किशोरों द्वारा उत्तरदायित्वों का ठीक प्रकार से निर्वहन करना एक प्रश्नचिन्ह छोड़ता है। इस प्रकार आज के प्रजातन्त्र को रक्षा का लक्ष्य इसी में हैं कि इन किशोरों को पूर्ण शिक्षित करके उनमें सुनागरिकता के बहुमुखी गुणों का प्रत्यारोपण किया जाय। उनमें विवेक, चेतना धैर्य, उत्तरदायित्व, नेतृत्व के मूल्यों का विकास किया जाय जिससे गिरते मूल्यों की संस्कृति में कुछ उत्थान की किरणें नमक सकें तथा गन्दी राजनीतिक प्रासंगिकता को भारतीय प्राचीन उच्च मूल्यों के रूप में संस्थापित किया जा सके क्योंकि अशिक्षित जनता ही कुराजनीति के कुचक्र में फँसकर मतैक्य, अनियमिततायें, भ्रष्टाचार को जन्म देती है। आज भी दूरस्थ प्रदेशो, माफिया गिरोहों, बूथ कैपचरिंग के स्लोगनों को चुनाव प्रक्रिया का अचूक अस्त्र माना जाता है। कुछ प्रदेश स्तर के गैंग इन्हीं अस्त्रों से आज भी अपना राजनीतिक दबदबा कायम किये हैं जोकि देश का दुर्भाग्य हो कहा जा सकता है।
अतः सतत् शिक्षा नागरिक, संवैधानिक, राजनीतिक मूल्यों की सुरक्षा को गारण्टी प्रदान करती है. अनुशासन तथा नेतृत्व की गरिमा को बढ़ाती है, प्रजातन्त्र के लिए यह अत्यधिक आवश्यक विकल्प है।
- सतत् शिक्षा तथा इसकी तकनीकी, व्यावसायिक साँस्कृतिक प्रासंगिकता – यद्यपि आधुनिक भारत में प्रतिभाओं का अभाव नहीं है तथा अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों में इन प्रतिभाओं का भरपूर उपयोग भी किया जा रहा है। हमारी वर्तमान आवश्यकताएँ एवं आकांक्षाएँ अन्य देशों की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं से अधिक विभिन्न प्रकार की नहीं है। आज ज्ञान-विज्ञान को अपरिमेय प्रगति, तकनीकी विकास तथा शिल्प वैज्ञानिकों, शिक्षकों, प्रबन्धकों आदि ने अपने ज्ञान एवं कौशलों को विकसित राष्ट्रों के व्यक्तियों के समकक्ष करने का प्रयास किया है। यह देश के क्षैतिज तथा लम्बवत् दोनों विकास के आयामों को भी अपने में समेटे रहती है। अतः इस कार्यक्रम को सफलता भी सतत् शिक्षा पर ही निर्भर करती है। इसके अन्तर्गत हम निम्नलिखित कार्यक्रमों पर बल देंगे-
(i) देश के उच्चस्थ कार्मिकों में परस्परिक शिक्षा तथा बौद्धिक आदान-प्रदान की अतिरिक्त प्रोत्साहन प्रदान करना, जोकि वर्तमान समय में किसी भी संस्था में दृष्टिगोचर नहीं होता है।
(ii) हमारे देश में प्राथमिक प्रशिक्षण औपचारिक, किताबी, त्रुटिपूर्ण तथा अपयाप्त है। उस सन्तुलित तथा समन्वित किया जाना आवश्यक है।
(iii) विश्व के अन्य देशों में होने वाले ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी परिवर्तना, आविष्कारा, तकनीकी विकासों, नवाचारों को अपनाने हेतु गोष्ठी, परिचर्चा आदान-प्रदान, प्रशिक्षण कार्यक्रमों आदि की व्यवस्था करना भी इसा शिक्षा का अभिन्न अंग है।
- सतत् शिक्षा तथा मनोवैज्ञानिक एवं शैक्षणिक प्रासंगिकता – आज हम तकनीकी एवं अन्य ज्ञान के क्षेत्रों में निरन्तर प्रगति करने के बाद भी अन्य देशों से कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं। जोकि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के माथे पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। कि देश में आधुनिकतम उत्तम शिक्षा व्यवस्था के प्रबन्ध होने के बावजूद भी भारतीय परिवेश उतना अधिक क्यों पिछड़ा है? अत: आज की तैयार होने वाली पीढ़ी को ऐसे ज्ञान, कौशलों का प्रदान करने से क्या लाभ जो उसके युवा होने से पूर्व हो पुराना तथा अश्रेयस्कर सिद्ध हो जाने वाला है। अतः आज तो चुनियादी आवश्यकता यह है कि बालकों को ऐसा प्रशिक्षण प्रदान किया जाय जो उनके तीव्र अधिगम के सभी आयामों को शीघ्रताशीघ्र प्रभावित एवं संचालित कर सके तथा बालको में बहुआयामी बहुमुखी प्रतिभाओं को जन्म दे सके। इस प्रकार आज का बालक भविष्य का सर्वतोन्मुखो बालक बनकर देश की मुख्य धारा में अपना वैज्ञानिक, तकनोको योगदान दे सकेगा। शैक्षिक, तकनीकी तथा शिक्षण विधियों में भी समुचित परिवर्तन लाने हेतु सतत् सुसंगठित शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की जाती रही है क्योंकि बालकों तथा व्यक्तियों में आजीवन अधिगमकत्ता का सर्व प्रतिभाओं, प्रेरणाओं को जन्म देने के लिए हमें आज के मनोवैज्ञानिक तथा शैक्षिक परिवेश में आमूलचूल परिवर्तन करने की तोव्र आवश्यकता है जोकि सतत् शिक्षा के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत हो आता है।
इस प्रकार सतत् शिक्षा को सर्वत्र प्रासंगिकता आज हमें अपने देश में दृष्टिगोचर हो रही है। यदि वर्तमान परिस्थितियों में हम सतत् शिक्षा की पर्याप्त योजनाओं को भलो प्रकार से क्रियान्वित करने में असफल रहे तो देश उच्च ज्ञान, तकनीकी के क्षेत्र में पिछड़ जायेगा, कार्योत्पादकता गिर जायेगी, देश की नागरिक चेतना मद जायेगी तथा राजनैतिक, संवैधानिक तथा सामाजिक नैयायिक प्रक्रिया का हास होने की भी सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता जोकि देश के लिए प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिये घातक हथियार है।
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