भारतीय राष्ट्रवाद | गांधी का रामराज्य

भारतीय राष्ट्रवाद | गांधी का रामराज्य

भारतीय राष्ट्रवाद

भारत सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधता का देश है। राष्ट्रवाद एकमात्र ऐसा धागा है जो विभिन्न सांस्कृतिक-जातीय पृष्ठभूमि से संबंधित होने के बावजूद लोगों को एकता के सूत्र में बांधता है। यह कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी भारतीयों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

राष्ट्रवाद का अर्थ है जाति, धर्म और क्षेत्रों की संकीर्ण पहचान के बारे में हमारे देश में गर्व की गहरी भावना महसूस करना। भगवान राम ने रावण को पराजित करने के बाद भाई लक्ष्मण को सही बताया कि लंका की प्रसिद्ध स्वर्ण नगरी शायद ही उन्हें लुभाती है क्योंकि जननी जन्मभूमि स्वर्गादि ग्यारसी (माता और मातृ भूमि स्वर्ग से श्रेष्ठ हैं।)

हमारा देश किसी भी नागरिक के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करता क्योंकि वे सभी अधिकारों और विशेषाधिकारों का आनंद लेते हैं। राष्ट्रवाद की भावना से भारत की एकता और अखंडता को बढ़ावा देना सभी का कर्तव्य है जो क्षेत्र, धर्म और भाषा के सभी बाधाओं को पार करता है। यह राष्ट्रवाद की अतिशय भावना थी जिसने वर्षों के कठिन संघर्ष और अनगिनत बलिदानों के बाद भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाई। उस समय भारत कई रियासतों में बंटा हुआ था लेकिन यह स्वतंत्रता को संघर्ष में एक राष्ट्र के रूप में खड़ा था।

हमें आजादी के सात दशक बाद भी इस स्वतंत्रता को संरक्षित करना है, भारत के भीतर और बाहर अलगाववादी हैं और अलगाववादी ताकतों से राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता को खतरा है। केवल राष्ट्रवाद की गहरी जड़ें भारत को कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार या पूर्वोत्तर भारत में विद्रोही आन्दोलनों के नाम पर किसी और विभाजन से बचा सकती हैं।

राष्ट्रवाद वह भावना है जो सैनिकों को अपने देश की सीमाओं की रक्षा के लिए साहस और शक्ति प्रदान करता है। यदि नागरिक विभिन्न धर्मों के अनुयायी होने, विभिन्न भाषओं को बोलने और  अपने क्षेत्रों की विविध संस्कृतियों का अभ्यास करने के बावजूद एकजुट होते हैं, तो कोई आंतरिक या बाहरी खतरा उनके देश को नुकसान नहीं पहुंचा सकता है। भारत राष्ट्रवाद के इस सर्वव्यापी अर्थ का एक प्रमुख उदाहरण है जिसने हमेशा राष्ट्र की अच्छी सेवा की है।

भारतीयों में राष्ट्रीयता की गहरी भावना है और यही कारण है कि जब वे अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करने की बात करते हैं, तो वे हमेशा एकजुट रहते हैं, जो सभी देश की एकता और अखंडता के संरक्षण की ओर जाता है।

किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए यह महत्वपूर्ण है कि उसका नागरिक अपने भीतर राष्ट्रवाद की भावना को जीवित रखे। अपने नागरिकों में अपने देश के लिए राष्ट्रीयता की भावना और प्रेम की भावना के विकास के महत्व को देखते हुए, दुनिया भर में हर सरकार अनिवार्य रूप से अपने राष्ट्रीय त्योहारों का आयोजन करती है जिसमें राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना एक महत्वपूर्ण गतिविधि है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति काफी हद तक उनके नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना पर निर्भर करती है जो विभिन्न धर्मों, जातियों, या सामाजिक तबकों से अलग होने के बावजूद सभी नागरिकों को एक साथ बांधने की एक महत्वपूर्ण भावना है।

गांधी का रामराज्य

महात्मा गांधी के समय भी रामराज्य को लेकर काफी बहस होती थी और तब उन्होंने कई मौकों पर इस धारणा को लेकर अपनी राय जाहिर की थी। भारत में ‘रामराज्य’ शब्द के अर्थ को लेकर कई भ्रांतियां रही हैं, कई विद्वान इस शब्द के प्रयोग से बचते रहे हैं, लेकिन अब जबकि इस शब्द के अर्थ का नए सिरे से राजनीतिक दुरुपयोग हो रहा है और इसके एक संकीर्ण अर्थ को राजनीतिक रूप से स्थापित करने की अज्ञानतापूर्ण कोशिश हो रही है, तो ऐसी स्थिति में हमें गांधी के सपनों का वास्तविक ‘रामराज्य’ फिर से समझने की जरूरत है, ऐसा नहीं है कि स्वयं गांधी जी के समय में इस शब्द के प्रति भ्रांतियां नहीं थीं, कई मौकों पर खुद उन्हें इस पर स्पष्टीकरण देना पड़ा था, इसलिए विभिन्न अवसरों पर उनके रामराज्य संबंधी वक्तव्यों का पुनर्पाठ इस मायने में बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकता है।

दांडी मार्च के दौरान ही ऐसी ही भ्रांतियों के निवारण के लिए उन्हें 20 मार्च, 1930 को हिन्दी पत्रिका ‘नवजीवन’ में ‘स्वराज्य और रामराज्य’ शीर्षक से एक लेख लिखना पड़ा था। इसमें गांधीजी ने कहा था-‘स्वराज्य के कितने ही अर्थ क्यों न किए जाएं, तो भी मेरे नजदीक तो उसका त्रिकाल सत्य एक ही अर्थ है, और वह है रामराज्य। यदि किसी को रामराज्य शब्द बुरा लगे तो मैं उसे धर्मराज्य कहूंगा। रामराज्य शब्द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की संपूर्ण रक्षा होगी, सब कार्य धर्मपूर्वक किए जाएंगे और लोकमत का हमेशा आदर किया जाएगा। …सच्चा चिंतन तो वही है जिसमें रामराज्य के लिए योग्य साधन का ही उपयोग किया गया हो। यह याद रहे कि रामराज्य स्थापित करने के लिए हमें पाण्डित्य की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस गुण की आवश्यकता है। वह तो सभी वर्गों के लोगों-स्त्री, पुरुष, बालक और बूढ़ों-तथा सभी धर्मों के लोगों में आज भी मौजूद है। दुःख मात्र इतना ही है कि सब कोई अभी उस हस्ती को पहचानते ही नहीं हैं। सत्य, अहिंसा, मर्यादा-पालन, नीरता, क्षमा, धैर्य आदि गुणों का हममें से हरेक व्यक्ति यदि वह चाहे तो क्या आज ही परिचय नहीं दे सकता?

इससे पहले असहयोग आंदोलन के दौरान 22 मई, 1921 को गुजराती ‘नवजीवन’ में महात्मा गांधी लिख चुके थे— ‘कुछ मित्र रामराज्य का अक्षरार्थ करते हुए पूछते हैं कि जब तक राम और दशरथ फिर से जन्म नहीं लेते तब तक क्या रामराज्य मिल सकता है? हम तो रामराज्य का अर्थ स्वराज्य, धर्मराज्य, लोकराज्य करते हैं।

अपने अर्थों वाले रामराज्य के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य बताते हुए 16 जनवरी, 1925 को महिलाओं की एक विशेष सभा में महात्मा गांधी ने कहा था-‘…मैं सदा से कहता आया हूं कि जब तक सार्वजनिक जीवन में भारत की स्त्रियां भाग नहीं लेतीं, तब तक हिन्दुस्तान का उद्धार नहीं हो सकता। लेकिन सार्वजनिक जीवन में वही भाग ले सकेंगी जो तन और मन से पवित्र हैं। जिनके तन और मन एक ही दिशा में पवित्र दिशा में चलते जा रहे हों। जब तक ऐसी स्त्रियां हिन्दुस्तान के सार्वजनिक जीवन को पवित्र न कर दे, तब तक रामराज्य अथवा स्वराज्य असंभव है। यदि ऐसा स्वराज्य संभव भी हो गया, तो वह ऐसा स्वराज्य होगा जिसमें स्त्रियों का पूरा- पूरा भाग नहीं होगा, और वह मेरे लिए निकम्मा स्वराज्य होगा।”

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