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यथार्थवाद | यथार्थवाद का तात्पर्य | शिक्षा में यथार्थवाद | यथार्थवाद के रूप | यथार्थवाद के विभिन्न प्रकार

यथार्थवाद | यथार्थवाद का तात्पर्य | शिक्षा में यथार्थवाद | यथार्थवाद के रूप | यथार्थवाद के विभिन्न प्रकार

यथार्थवाद

पिछले अध्यायों में आदर्शवाद, प्रकृतिवाद के दर्शनों पर विचार किया गया है। आदर्शवाद का दर्शन विचार जगत एवं उसकी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करता है और इन्हें ही वास्तविक मानता है-‘ब्रह्म एवं सत्यं जगत् मिथ्या’ । प्रकृतिवाद जल, नभ, वायु, अग्नि, पेड़, पशु जैसे पदार्थ को वास्तविक मानता है क्योंकि ये सब प्रकृति के अंग है। मनुष्य और अन्य प्राणी के अन्तःप्रकृति को भी भौतिक तात्विकता प्रदान कर उसे सत्य घोषित किया है। प्रयोजनवाद ने भौतिक पदार्थों तथा मनुष्य को भी वास्तविकता प्रदान की लेकिन इससे भी आगे उसने मनुष्य की बुद्धि, वैज्ञानिक ढंग से अन्वेषण, प्रयोग तथा इसके समाज पर भी विशेष बल दिया। मानव को सभी वस्तुओं का सही मापदण्ड माना । इसी से मिलता-जुलता एक दूसरा दर्शन है जिसने भौतिक पदार्थों मानवीय संस्थाओं और मानवीय संस्कृति पर विशेष बल दिया तथा इन सभी को यथार्थ माना और विचार ही सभी वस्तुओं को वास्तविकता प्रदान करता है इसका घोर विरोध किया। इस प्रकार इस दर्शन को विद्वानों ने ‘यथार्थवाद’ कहा जिसे हम प्रकृतिवाद और प्रयोजनवाद का सहयोगी कह सकते हैं। यहाँ हम यथार्थवाद के बारे में कुछ विस्तार से विचार प्रकट करेंगे।

यथार्थवाद का तात्पर्य

यथार्थवाद का विग्रह होता है यथा + अर्थ + वाद। इसका सीधा अर्थ है जो वस्तु जैसी है उसका वास्तविक रूप भी वैसा ही है और इस विवेचन से सम्बन्ध रखने वाली विचारधारा यथार्थवाद का बोध कराती है। दूसरे शब्दों में हमारे पर्यावरण में जो भी वस्तुएँ हैं-जब प्रकृति चेतन पशु, आत्म चेतन व्यक्ति, व्यक्ति का निर्माण एवं उसकी संस्थाएँ-सभी अपने आप में सत्य हैं, वास्तविक हैं, अस्तित्ववान हैं, विश्वसनीय हैं, धोखा नहीं हैं। अब स्पष्ट होता है कि यथार्थवाद इन्द्रियगोचर जगत की वास्तविकता में विश्वास रखने वाली दार्शनिक विचारधारा है जिसके अनुसार वस्तुगत वास्तविकता, यथार्थता या सत्यता अथवा भौतिक जगत चेतन और आत्मगत मन से स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व रखता है, इस जगत की प्रकृति और इसके गुण इसके ज्ञान से मालूम होते हैं।

अंग्रेजी भाषा का शब्द Realism यथार्थवाद के लिए प्रयुक्त होता है। ग्रीक भाषा के Res शब्द से इसकी उत्पत्ति हुई है। Res का अर्थ होता है वस्तु । इसलिए Realism का अर्थ हुआ वस्तु के अस्तित्व से सम्बन्धित विचारधारा । दूसरे शब्दों में यथार्थवाद वह दर्शन है जो सभी वस्तु, प्राकृतिक और कृत्रिम, के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। इस कथन की पुष्टि हमें स्वामी रामतीर्थ के नीचे लिखे शब्दों से होती है:

“संक्षेप में यथार्थवाद का अर्थ है एक विश्वास या सिद्धान्तवाद जो संसार को वैसा ही स्वीकार करता है जैसा कि वह हमें तथ्य रूप में दिखाई देता है।”

अन्य विचारकों के शब्दों को पढ़ कर हम यथार्थवाद का तात्पर्य अच्छी तरह समझ सकते हैं। प्रो० सी० वी० गुड ने लिखा है कि “यथार्थवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार भौतिक जगत की वस्तुगत यथार्थता चेतन मन से स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व रखती है, उसकी प्रकृति और गुण ज्ञान करके ही मालूम किये जाते हैं।”

शिक्षा में यथार्थवाद

  1. यथार्थवाद का तात्पर्य
  2. रूप
  3. विशेषताएँ
  4. सिद्धान्त
  5. शिक्षा में यथार्थवाद
  6. शिक्षा में यथार्थवाद का मूल्यांकन
  7. यथार्थवादी शिक्षा की विशेषताएँ
  8. यथार्थवाद की अन्य वादों से तुलना
  9. समन्वय का दृष्टिकोण

प्रो० रॉस ने लिखा है कि “यथार्थवाद का सिद्धान्त यह मानता है कि वस्तुओं का एक यथार्थ जगत है जो उन वस्तुओं के पीछे तथा आगे समान ही हैं जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं। साधारण रूप से यथार्थवाद बाह्यजगत का अस्तित्व स्वीकार करता है।”

प्रो० बटलर ने भी इसी प्रकार की शब्दावली में अपने विचार दिये हैं। इन्होंने कहा है कि “यथार्थवाद हमारी सामान्य स्वीकृति का शोधन है जो इस संसार को उसी रूप में स्वीकार करता है जिसमें वह हमें दिखाई देता है।”

ऊपर के विचारों को एक साथ रखते हुए प्रो० चौबे ने निम्न ढंग से यथार्थवाद के बारे में विचार प्रकट किया है-

“यथार्थवाद इस जगत या भौतिक यथार्थता को अनुभव में आने वाली वास्तविक आधारभूत वस्तु ही मानता है। इसका विचार है कि भौतिक जगत कुछ ऐसी वस्तु है जिसे सरलता से उसी रूप में स्वीकार किया जा सकता है।”

सभी विचारों को सारांश रूप में रखते हुए हम कह सकते हैं कि “यथार्थवाद वह दार्शनिक विचारधारा है जो इस जगत और इसकी वस्तुओं को जिस रूप में मनुष्य देखता है, अनुभव करता है इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्षण करता सत्य मानता है और आत्मा- परमात्मा तथा आध्यात्मिक जगत में विश्वास नहीं रखता है। संसार सत्य है, इसका स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसके परे कुछ नहीं है।”

रूप

विचारकों ने यथार्थवाद के कई रूप बताये हैं जिन्हें यहाँ दिया जा रहा है। इनके अध्ययन से यथार्थवाद के बारे में स्पष्ट ज्ञान होगा। ये रूप हैं-

(i) सरल यथार्थवाद- सामान्य रूप से इस विचारधारा के मानने वाले सभी चीजों को यथार्थ एवं सत्य मानते हैं। वे कोई विवेचना या तर्कना नहीं करते। चीज तथा तथ्यों में विश्वास इसलिए होता है कि हम अपने आपको धोखा नहीं दे सकते अपनी इन्द्रियों, मस्तिष्क एवं शरीर के अंगों के द्वारा प्राप्त अनुभूतियों को झूठ नहीं मान सकते। यही सरल यथार्थवाद है। प्राचीन काल से आज तक ऐसी विचारधारा संसार में चलती चली आ रही है।

(ii) नव यथार्थवाद- इस विचारधारा का जन्म घोर आदर्शवाद के विरोध से हुआ है। तर्क के स्थान पर यह विज्ञान के प्रयोगों से वस्तु की स्थिति, उसके अस्तित्व को सत्य सिद्ध करता है। इसका भी आधार इन्द्रिय प्रत्यक्ष (Sense perception) है परन्तु उससे भी आगे नियन्त्रित निरीक्षण या प्रयोग (Controlled observation or Experimentation) की सहायता भी लेकर घटनाओं एवं तथ्यों की वास्तविकता प्रकट की जाती है। इसी से सम्बन्धित विचारधारा नव यथार्थवाद है।

(iii) आलोचनात्मक – नव यथार्थवाद की चिन्तन प्रणाली में सुधार के फलस्वरूप आलोचनात्मक यथार्थवाद प्रकट हुआ है। इस विचारधारा ने वस्तु की व्याख्या नये ढंग से की, मनुष्य और उसके मन को भौतिक महत्व दिया और वस्तु के अतिरिक्त इन्हें प्रधान बताया क्योंकि इन्हीं के द्वारा बाह्य जगत का ज्ञान-अनुभव सम्भव होता है। इसने प्रत्यक्षण (Perception) में एक क्रम भी बताया : प्रत्यक्षीकरण का कार्य → इन्द्रिय प्रदत्त → प्रत्यक्षीकृत वस्तु । यह प्रत्यक्षण मनुष्य के मन द्वारा होता है। ये सब विचार एवं विश्वास आलोचनात्मक यथार्थवाद के हैं।

(iv) अवयवात्मक – इसे प्रो० ह्वाइटहेड का Philosophy of Organism कहा जाता है। प्रो० ह्वाइटहेड ने इस जगत की व्याख्या प्राकृतिक प्रक्रियाओं के रूप में की है। मनुष्य का जीवन भी संघर्ष की एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इस प्रकार की प्रक्रियाओं में एक व्याख्या होती है और इनमें वास्तविकता पाई जाती है। इनसे उत्पन्न वस्तुएँ भी वास्तविक होती हैं। प्रो० ह्वाइटहेड ने इस प्रकार अपनी नई विचारधारा प्रस्तुत की जिसका आधार उन्होंने अपना कथन कहा “Reality is in Process” (प्रक्रिया में वास्तविकता है)। अवसर, विचार प्रक्रिया तथा सहयोग (Occasion, Prehension and Nexus) इसके द्वारा वस्तु की यथार्थता सिद्ध होती है। ये तीनों एक साथ किसी वस्तु से सन्निहित होते हैं। यह यथार्थवाद भी ईश्वर, आत्मा, अपूर्वता में विश्वास नहीं रखता है। सही बात यह है कि यह यथार्थवाद भौतिक जगत को प्रक्रियात्मक एवं व्यवस्थित मानता है, इसी विश्वास में यथार्थता होती है।

(v) मानवतावादी – इस सम्बन्ध में प्रो० मनरो ने लिखा है कि “मानवतावादी यथार्थवादियों का उद्देश्य अपने जीवन की प्राकृतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का पूर्ण अध्ययन व्यक्तियों के जीवन की वृहत्तर परिस्थितियों के द्वारा करना था।”

इससे स्पष्ट है कि जो कुछ पहले मनुष्य ने किया है उसे जान कर अपने पर्यावरण में अच्छी तरह से जीवन बिताया जावे, यह मानवतावादी दर्शन कहलाता है। दूसरे, मानव को ऊँचे स्थान भी इस दर्शन ने दिया जिससे आज राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय और विश्ववादी भावना का विकास हुआ है। इस प्रकार की भावना का विकास उपयोगी साहित्य के अध्ययन से होता है।

(vi) सामाजिकतावादी – इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य का संस्थाओं में विश्वास बढ़ा। समाज, जाति, चर्च, विद्यालय, व्यापार समिति और व्यवसाय संगठन आदि को महत्व मिला। यह विचारधारा मनुष्यों, वस्तुओं, संस्थाओं आदि के प्रत्यक्ष अध्ययन पर जोर देती है। पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा सामाजिकतावादी यथार्थवाद व्यावहारिक एवं सम्पर्क से प्राप्त ज्ञान को अधिक महत्व देता है क्योंकि ऐसा ज्ञान प्रत्यक्षात्मक स्तर पर होता है।

(vii) ज्ञानेन्द्रिय – सभी वस्तुएँ यथार्थ हैं यह हमें ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मालूम होता है। अतः इस विचारधारा का मूल सिद्धान्त यही है। प्रकृति उसकी वस्तुएँ, प्रकृति विज्ञान, मानवीय भाषा एवं सामग्रियों की सहायता से प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद जोर देता है। भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण पर भी इस विचारधारा ने जोर दिया है क्योंकि इनकी सहायता से ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तेजित होती हैं जिनसे यथार्थ ज्ञान मिलता है।

(viii) वैज्ञानिक – वैज्ञानिक चिन्तनों की विचारधारा वैज्ञानिक यथार्थवाद है। इसका आधार वैज्ञानिक विधियों हैं। विश्व में विज्ञान के बढ़ते चरण ने ऐसी विचारधारा का जोरों से प्रचार किया है। इस विचारधारा के कारण वैज्ञानिक ढंग से प्राप्त सत्यों में विश्वास पाया जाता है। जो भी क्रियाएँ होती हैं उनमें कारण-परिणाम का सम्बन्ध पाया जाता है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य सांसारिक वैभव की प्राप्ति है, उसके द्वारा सुख प्राप्त करना है तथा सत्य के अन्वेषण में लगे रहना है। फलस्वरूप आज हम अन्तरिक्ष यात्रा कर चुके और इस संसार के समान ही ग्रहलोकों में भी बसने का प्रयत्न कर रहे हैं।

विद्वानों ने मानवतावादी, सामाजिकतावादी, ज्ञानेन्द्रिय तथा वैज्ञानिक यथार्थवाद को शिक्षा के साथ सम्बन्धित किया है और इसी सन्दर्भ में इन रूपों को स्वीकार किया है। इसलिए कुछ पुस्तकों में इन्हीं. चार प्रकार के यथार्थवाद का विवेचन मिलता है परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये तो इन चार प्रकार के यथार्थवाद के पहले चार रूपों के साथ ही जोड़ना उपयुक्त होता है, अतः हमने सभी को एक ही शीर्षक के अन्तर्गत शामिल किया है जिससे किसी प्रकार का भ्रम न होवे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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