भारतेन्दु युगीन आलोचकों का योगदान

भारतेन्दु युगीन आलोचकों का योगदान | हिन्दी आलोचना के विकास में भारतेन्दु युगीन आलोचकों के योगदान

भारतेन्दु युगीन आलोचकों का योगदान | हिन्दी आलोचना के विकास में भारतेन्दु युगीन आलोचकों के योगदान

भारतेन्दु युगीन आलोचकों का योगदान

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के उदगम केन्द्र, उत्प्रेरक शक्ति, पोषक महान बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। इनकी साहित्यकार मण्डली ने साहित्य की विभिन्न विधानों एवं धाराओं में सफल एवं उत्साहवर्द्धक प्रयास करके अनेक कीर्तिमान स्थापित किये। सच यह है कि बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के वास्तविक जनक थे। हिन्दी साहित्य में उनका योगदान अप्रतिम है। उन्होंने स्वयं न सिर्फ काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध आदि की रचनाएं की हैं, बल्कि अपनी मण्डली को रचनाकारों को हिन्दी साहित्य के उत्थान हेतु उत्प्रेरित एवं प्रोत्साहित भी किया। ऐसी परिस्थिति में भला साहित्य आलोचना का कैसे अछूता रह जाता। क्या लिखा जा रहा है, क्या लिखना है, क्यों लिखना है, इस उनकी पैनी दृष्टि सदैव लगी रहती थी। यदि संस्कृत के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र की रचना की तो आधुनिक हिन्दी में प्रथम आचार्य बाबू हरिश्चन्द्र की नाट्य रचना को माना है। यह दुर्भाग्य का विषय है डॉ० श्यामसुन्दर दास जैसे साहित्यिक विद्वानों की यह धारणा बन गई थी यह नाटक स्वयं भारतेन्दु द्वारा रचित नहीं हैं जिसके कारण यह ग्रन्थ अभी तक उपेक्षित सा रहा। डॉ० श्याम सुन्दर दास ने भारतेन्दु के नाट्य लेखन के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है इस ग्रन्थ की भाषा भारतेन्दु के ग्रन्थों से मेल नहीं खाती किन्तु उनका यह तर्क भारतेन्दु की रचना न मानना पर्याप्त नहीं है। विषय के अनुरूप लेखक की शैली में थोड़ा बहुत फेरबदल होना स्वाभाविक है। यह ग्रन्थ सैद्धान्तिक आलोचना का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, अतः नाटक की भाषा शैली से इसमें अन्तर होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ की ‘भूमिका’ और ‘समर्पण’ में स्वयं भारतेन्दु जी ने स्पष्ट रूप से लिखा है, ‘आशा है सज्जनगण मात्र गुणग्रहण करके मेरा श्रम सफल करेंगे।’ जैसे साहित्य-विधा के आधार पर भाषा और शैली का रूपान्तरण होता ही रहता है।

सन् 1883 में प्रकाशित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रतिष्ठित रचना ‘नाटक’ सभी दृष्टियों से परिपक्व रचना है। इस ग्रन्थ में प्राचीन भारतीय नाटयशास्त्र एवं आधुनिक पाश्चात्य समीक्षा साहित्य का समन्वय करते हुए तत्कालीन हिन्दी के नाटककारों के लिए सामान्य नियम निर्धारित किए गये हैं, जिसमें स्थान-स्थान पर लेखक की मौलिक उद्भावनाएं प्रकट हुई हैं। एक बार वे नाटक के भेदों का विवेचन करते हुए अपने युग के सभी नाटकों-कठपुतलियों के खेलों, बाजीगरों ‘के तमाशों, पारसियों के नाटकों आदि पर दृष्टिपात करते ही परित्याग करें, यदि आवश्यक दृश्य का काव्य प्रणयन करना हो तो प्राचीन समस्त रीति का हो पालन करें, यह आवश्यक नहीं किन्तु वर्तमान समय में इस काल के कवि तथा सामाजिक लोगों की रुचि उस काल की अपेक्षा अनेकांश में विलक्षण है इसमें संप्रति प्राचीन जतानलम्बन करके नाटक आदि दृश्य-काव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं बोध होता। नाटक की अर्थ प्रकृतियों, संधियों आदि रुढ़ियों के सम्बन्ध में वे घोषणा करते हैं ‘संस्कृत नाटक की भाँति हिन्दी नाटकों में इनका अनुसंधान करना या किसी नाटकांग में इनको यत्नपूर्वक रखकर हिन्दी नाटक लिखना व्यार्थ है। इस प्रकार की उक्तियाँ सिद्ध करती हैं कि भारतेन्दु  जी में केवल अनुवाद करने की ही क्षमता नहीं थी, उनमें प्राचीन नाट्यात्मकता के भी दर्शन होते हैं। यह रचना वैचारिक रूप से आलोचना साहित्य का अंकुर सिद्ध हुआ जो चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमघन’ के प्रयास आगे चलकर वटवृक्ष के रूप में सिद्ध हुआ।

चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमंघन’ ने भारतेन्दु की रचना ‘नाटक’ की प्रेरणा से अपनी आनन्द कादम्बिनी पत्रिका में ‘संयोगिता स्वयंवर’ और ‘बंग-विजेता’ पुस्तकों की समालोचना विस्तृत रूप में की तथा दूसरी ओर बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दी प्रदीप’ में ‘सच्चे समालोचना शीर्षक से ‘संयोगिता- स्वयंवर की आलोचना की। भारतेन्दु के द्वारा प्रवर्तित समालोचना के कार्य को आगे बढ़ाने का श्रेय इन्हीं दोनों लेखकों को है। ‘संयोगिता स्वयंवर लाला श्रीनिवासदास जी द्वारा रचित ऐतिहासिक नाटक था। अतः कहना चाहिए कि सैद्धान्तिक समीक्षा की भाँति व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में भी प्राथमिकता नाटक को ही मिली। भट्ट जी एवं प्रेमघन जी की आलोचनाओं में समीक्षा का विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं उनमें तीक्ष्ण व्यंग्यात्मकता भी आ गयी है ‘नाटक में पांडित्य नहीं वरन् मनुष्य के हृदय से आपका कितना गाढ़ा परिचय है, यह दर्शाना चाहिए।’ भट्ट जी की शैली में भावात्मकता, आत्मानुभूति एवं लेखक को सीधा सम्बोधित करने की प्रवृत्ति भी मिलती है।…………… लालाजी यदि बुरा न मानिए तो एक बात आपसे धीरे से पूंछे, वह यह कि आप ऐतिहासिक नाटक किसको कहेंगे? क्या केवल किसी पुराने समय के ऐतिहासिक परावृत्त की छाया लेकर नाटक लिख डालने से ही वह ऐतिहासिक हो गया।…..लालाजी कभी अपने इस बात पर भी ध्यान दिया है कि स्त्रियों की कितनी मृदुं प्रकृति होती है और कितनी लज्जा उनमें होती है। प्रेमघन जी की शैली में भट्ट की सी सरलता एवं व्यंग्यात्मकता तो नहीं मिलती, किन्तु उनमें गम्भीरता अधिक है। बालकृष्ण भट्ट की व्यंग्यात्मक आलोचना और ‘प्रेमघन’ की तथ्यपरक गम्भीर आलोचना दोनों ने आगामी हिन्दी साहित्य की आलोचना दृष्टि को दूर तक प्रभावित किया है।

आलोचना साहित्य का उत्तरोत्तर विकास भारतेन्दु युग की प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं से प्रारम्भ होकर निरन्तर बुद्धि की दिशा में अग्रसर रहा। आज हिन्दी आलोचना विधा सम्पन्न विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।

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