भाषा का सामान्य परिचय | भाषा की परिभाषा | भाषा के प्रकार | भाषा की प्रकृति | भाषा की विशेषताएँ
भाषा का सामान्य परिचय | भाषा की परिभाषा | भाषा के प्रकार | भाषा की प्रकृति | भाषा की विशेषताएँ
भाषा का सामान्य परिचय
भाषा की व्युत्पत्ति संस्कृत के भाष धातु से हुई है। जिसका अर्थ है बोलना या कहना। प्लेटो ने विचार और भाषा में बहुत अन्तर नहीं माना है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है। भाषा की निम्नलिखित परिभाषाएँ की गई-
भाषा की परिभाषा
स्वीट की परिभाषा है, ‘ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।’
जेस्परसन का कथन है कि, ‘मनुष्य ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा अपना विचार प्रकट करता है। मानव मस्तिष्क वस्तुतः विचार प्रकट करने के लिए ऐसे शब्दों का निरन्तर व्यवहार करता है। इस प्रकार के कार्यकलाप को ही भाषा की संज्ञा दी जाती है।’
ब्लॉख तथा ट्रेगर के अनुसार, ‘भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा एक समाज वर्ग परस्पर सम्पर्क (संसर्ग) करता है।’
स्त्रुतेवों के अनुसार, ‘भाषा यादृच्छिक ध्वनि-संकेतों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा सामाजिक समूह के सदस्य परस्पर सहयोग एवं विचार-विनिमय करते हैं।’
बान्द्रिए का विचार है कि, ‘भाषा एक प्रकार का चिह्न है। चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मनुष्य अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक भी कई तरह के हैं जैसे, नेत्र ग्राह्य, कर्ण ग्राह्य एवं स्पर्श ग्राह्य । भाषा की दृष्टि से कर्ण ग्राह्य प्रतीक ही श्रेष्ठ है।’
बाबूराम सक्सेना के अनुसार, ‘जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा विचार विनिमय किया जाता है,उसे भाषा कहते हैं।’
सुकुमार सेन के अनुसार, ‘अर्थवान, कंठोद्गीर्ण ध्वनि-समष्टि ही भाषा है।’
भाषा की पूर्ण परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है ‘भाषा ध्वनि प्रतीकों की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है जिसके द्वारा मनुष्य चिन्तन करता है और अपने भावों और विचारों का एक निश्चित भाषा समाज में आदान-प्रदान करता है।’
भाषा की प्रकृति और विशेषताएँ
(1) भाषा की संरचनात्मक व्यवस्था के कुछ निश्चित नियम होते हैं। ये नियम भाषा के द्वारा बच्चों के मस्तिष्क पर आरम्भ से ही आरोपित कर दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया सहज रूप से होती है। धीरे-धीरे हर व्यक्ति के अन्दर इन नियमों के आधार पर नए-नए माध्यम से अभिव्यक्ति की शक्ति विकसित हो जाती है। भाषा में सर्जनात्मकता होती है। प्रत्येक भाषा की अपनी निजी व्याकरणिक व्यवस्था होती है।
(2) भाषा सामाजिक सम्पति- मनुष्य भाषा समाज में रहकर ही भाषा सीखता है, यदि किसी बालक को जन्म लेते ही भाषा समाज से अलग कर दिया जाए तो भाषा नहीं सीख सकता। बच्चा जिस समाज में जन्म लेता है, जिसमें पलता बड़ा होता है वहीं की भाषा सीखता है। बड़े होने पर उसे बौद्धिक प्रयत्न से दूसरी भाषा सीखना पड़ता है। मातृभाषा का सीखना जितन सहज होता है उतना दूसरी भाषा सीखना नहीं।
(3) भाषा आर्जित सम्पति है- भाषा पंरपरा से प्राप्त होती है, फिर भी प्रत्येक सदस्य को उसे अर्जित करना पड़ता है। प्रत्येक बच्चे में सीखने की नैसर्गिक बुद्धि अलग-अलग होती है। जिस तरह वह चलना, खाना-पीना सीखता है उसी प्रकार बोलना भी। जिस वातावरण में और परिवेश में बच्चा रहता है उसी की भाषा को वह अर्जित (सीखता) है।
(4) भाषा विकसन शील होती है- इसमें धीरे-धीरे परिवर्तन होता है और वह परिवर्तन कुछ वर्षों बाद भाषा समाज के द्वारा मान्य हो जाता है। भाषा का व्याकरण जब बहुत कठोर हो जाता है तो भाषा जन व्यवहार से कटने लगती है, भाषा का लचीलापन और नए-नए प्रयोगों की छूट उसे दीर्घजीवी बनाती है।
(5) भाषा अनुकरण से सीखी जाती है- छोटा बच्चा अपने आस-पास के प्रयोक्ताओं द्वारा ध्वनि से निर्मित शब्दों और सांसारिक वस्तुओं के सम्बन्धों को जोड़ने का अभ्यास करता है। भाषा सिखाने में माँ की प्राथमिक भूमिका होती है। इसीलिए बच्चे के द्वारा जो ‘भाषा सीखी जाती है उसे मातृभाषा कहते हैं।
(6) भाव सम्प्रेषण का सर्वश्रेष्ठ माध्यम- भाषा के आभाव में मनुष्य अपनी इच्छाओं, भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है। विचार-विनिमय के लिए व्यक्ति भाषा के अतिरिक्त जिन संकेतों का प्रयोग करता है, वह प्रायः अपूर्ण तथा असमर्थ सिद्ध होते हैं। अतः सम्यक् भाव- बोध के लिए भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है। अतः कहा जा सकता है कि । भाषा भाव-सम्प्रेषण का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है।
(7) भाषा का अन्तिम रूप नहीं- भाषा का कोई अन्तिम रूप नहीं होता। यह दूसरी बात है कि कोई भाषा मृत हो जाये, उसका प्रचलन बंद हो जाये, और उसके स्वरूप को लोग अन्तिम समझ लें। किन्तु यह भी सत्य नहीं, क्योंकि भाषा न कभी मृत होती है और न ही उसके प्रवाह में विच्छिन्नता आती है। संस्कृत का प्रचलन आज बंद हो गया है, परन्तु भारतीय भाषाओं तक में ही नहीं, वरन् विदेशी भाषाओं में भी संस्कृत का वैभव स्पष्ट दिखायी देता है अतएव यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि भाषा का कोई अंतिम स्वरूप नहीं होता।
(8) भाषा के दो रूप- वास्तविक भाषा वाचिक होती है अर्थात् बोलचाल की भाषा प्राथमिक है। भाषा को स्थायित्व देने के लिए लिपियों का आविष्कार हुआ। भाषा की लिखित रूप में उपलब्धि उसे देशकाल की सीमाओं से मुक्त कर देती है। लेकिन लिखित भाषा बोल-चाल की भाषा की यथावत अनुकारिता में नहीं होती। दोनों में अन्तर होता है।
भाषा की ऐतिहासिक एवं भौगोलिक सीमाएं होती हैं-कोई भाषा कुछ शताब्दियों तक ही व्यवहार में रहती है, परिवर्तन के कारण उसके स्थान पर नई भाषा आ जाती है फिर उसके अस्तित्व का पता लिखित माध्यमों से ही चलता है जैसे वैदिक और संस्कृत का जीवन काल पाँच सौ ईसा पूर्व तक माना जाता है और प्राकृत का पहली सदी से लेकर पांच सौ सदी तक। संस्कृत का प्रयोग आज भी यद्यपि सांस्कृतिक क्षेत्र में होता है, लेकिन उसके व्यापक बोलचाल का समय बहुत पहले समाप्त हो चुका है। वह सामान्य जन समुदाय की भाषा नहीं है। इसी तरह प्रत्येक भाषा की एक भौगोलिक सीमा होती है।
भाषा जटिलता से सरलता की ओर उन्मुख होती है-भाषा का आरम्भिक रूप बहुत जटिल नहीं रहा होगा। व्याकरण आदि का बहुत स्पष्ट विधान नहीं रहा होगा। भाषा की स्पष्टता के लिए ही मनुष्य नियमों का संयोजन करता है। लेकिन धीरे-धीरे यह नियम भाषा को जटिल बना देते हैं। अतः भाषा के सरलीकरण का प्रयत्न किया जाने लगता है। कम से कम नियमों को जानकर भाषा का समुचित व्यवहार किया सके इसकी चिन्ता जनमानस में रहती है। इसलिए ऐसे नियमों को छोड़ने का प्रयत्न करता है जिनके न रहने पर विचारों और भावों के सम्प्रेषण में सन्दिग्धता न हो। भाषा में अभिव्यंजना शक्ति का निरन्तर विकास होता है। सभ्यता के विकास के साथ ही भाषा अधिक प्रौढ़ एवं सूक्ष्म होती जाती है।
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