शिक्षाशास्त्र / Education

दूरस्थ शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ | Major problems of distance education in Hindi

दूरस्थ शिक्षा की प्रमुख समस्याएँ | Major problems of distance education in Hindi

दूरवर्ती शिक्षण की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  1. योग्य दूरव्ती शिक्षकों की पहचान की समस्या।
  2. अभिप्रेरणा की समस्या।
  3. पृथकता की समस्या।
  4. अध्ययन कोशलों की समस्या।

 

  1. योग्य दूरवती शिक्षकों की पहचान की समस्या (Problem of Identifying Competent Distance Tutors) –

दूरवर्ती शिक्षा की अवधारणा के अन्तर्गत अधिगम को ‘शिक्षार्थी आधारित क्रिया माना जाता है। अतः इसके अनुसार-

(i) शिक्षार्थी परम्परागत कक्षा-परिस्थितियों से अलग हटकर भी सीख सकता है।

(ii) शिक्षक की भूमिका ‘सुविधा प्रदान करने वाले अनुदेशक’ (Facilitator) जैसी होनी चाहिए तथा

(iii) केवल शिक्षक के ‘मौखिक शब्द’ (Word of Mouth) ही शिक्षार्थी की सहायता के साधन नहीं हो सकते हैं।

उपय्युक्त अवधारणाओं से स्पष्ट है कि परम्परागत औपचारिक कक्षा शिक्षक एवं दूरवर्ती शिक्षक की भूमिका में पर्याप्त अन्तर है। अतः हमें दूरवर्ती शिक्षा हेतु योग्य शिक्षकों की अलग से खोज अथवा पहचान करने की आवश्यकता है। एक औपचारिक कक्षा शिक्षक और दूरवर्ती शिक्षक के कार्यों में प्रमुख अन्तर यह है कि कक्षा शिक्षक को जो कार्य मौखिक शब्दों के माध्यम से करने होते हैं, दूरवर्ती शिक्षक को वही कार्य हस्तलिखित शब्दों के द्वारा सम्पन्न करने होते हैं। इससे दोनों प्रकार के शिक्षकों में एक सैद्धान्तिक समानता दिखलाई पड़ती है। किन्तु व्यवहार में कोई समानता नहीं होती है क्योंकि कक्षा-शिक्षक तो कक्षागत परिस्थिति में शिक्षार्थी को प्रोत्साहित या प्रताड़ित या सूचित या निर्देशित अथवा मात्र अधिगम सहायता हेतु कुछ भी कह सकता है जबकि दूरवर्ती शिक्षक शिक्षार्थी के उत्तर पत्रकों में वैसी सभी बातों को टिप्पणी के रूप में अंकित नहीं कर सकता है। दूरवर्ती शिक्षक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षार्थी के उत्तर पत्रकों पर उपयोगी टिप्पणियाँ अंकित करना तथा उपयुक्त ग्रेड प्रदान करना होता है।

उपयोगी टिप्पणियाँ अंकित करना एवं उपयुक्त ग्रेड प्रदान करना, कहने और सुनने में जितना आसान लगता है, व्यावहारिक रूप में उतना ही अधिक जटिल कार्य है। सामान्यतया दूरवर्ती शिक्षक, विश्वविद्यालयों के परम्परागत विभागों से ही लिये गये शिक्षक होते हैं। वे दूरवर्ती शिक्षार्थी के उत्तर पत्रकों पर टिप्पणियाँ लिखने एवं उन्हें ग्रेड प्रदान करने को भी औपचारिक कक्षा के शिक्षार्थियों के कार्यों के मूल्यांकन जैसा ही समझते हैं तथा स्वयं को परीक्षक के रूप में देखते हैं। इस प्रकार दूरवर्ती शिक्षार्थी के उत्तरों के प्रति जितने गम्भीर ध्यान एवं समर्पण की आवश्यकता होनी चाहिए, वैसा कर पाना इन शिक्षकों के द्वारा सम्भव नहीं होता है। अतः योग्य दूरवर्ती शिक्षकों की कमी सदैव बनी ही रहती है। इस कमी के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हो सकते हैं-

(i) शिक्षक को दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली से कोई लगाव नहीं होता है तथा वह मजबूरी में इस कार्य से जुड़ा हुआ होता है।

(ii) शिक्षक उत्तरों को ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ता है तथा मात्र उसे ग्रेड प्रदान करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है।

(iii) शिक्षक उत्तर-पत्रकों को तो पढ़ता है किन्तु उसके पास टिप्पणियाँ अंकित करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता है।

(iv) शिक्षक शैक्षणिक दृष्टिकोण से टिप्पणीयों के महत्व के बारे में नहीं जानता है।

(v) शिक्षक को यह नहीं पता होता है कि किस प्रकार की टिप्पणी लिखी जाये तथा उसे कैसे लिखा जाये?

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि योग्य दूरवर्ती शिक्षकों की उपलब्धता सरल नहीं है। किन्तु इस समस्या के निराकरण के लिए कुछ आवश्यक कदम अवश्य उठाए जा सकते हैं। उपर्युक्त समस्याओं में से प्रथम चार ((i) से (iv) तक) पूर्णरूपेण प्रशासनिक स्तर की है। समस्या (i) एवं (ii) के निराकरण का सर्वोत्तम उपाय यही है कि अनिच्छुक शिक्षकों को दूरवर्ती शिक्षण हेतु नियुक्त न किया जाये समस्या (iii) का निराकरण पर्याप्त संख्या में शिक्षकों/ मूल्यांकनकर्त्ताओं की नियुक्ति से सम्भव हो सकता है। किन्तु अन्तिम दो समस्याओं (iv) एवं (v) की प्रकृति प्रथम तीन समस्याओं से बिल्कुल भिन्न है तथा ये पूर्णतया शैक्षणिक पक्ष से सम्बन्धित है। इनका निराकरण समुचित प्रशिक्षण एवं अनुभव से ही हो सकता है।

  1. अभिप्रेरणा की समस्या (Problem of Motivation)-

दूरवर्ती शिक्षण प्रक्रिया के प्रारम्भिक सोपान में दूरवर्ती शिक्षक को शिक्षण इकाई (पाठ इकाई) की विषय-वस्तु से भली-भाँति परिचित होना होता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि शिक्षक को विषय-वस्तु को सीखने की आवश्यकता होती है। विषय-वस्तु पर तो उसका स्वामित्व पहले से ही असंदिग्ध एवं प्रमाणित होता है तथा होना भी चाहिए। इस स्तर पर तो उसे पाठ इकाई की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में यह देखना होता है कि उसे किसी ढंग से प्रस्तुत किया गया है तथा पाठ लेखक उससे किन उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहता है। इसके लिए दूरवर्ती शिक्षक को पाठ इकाई का अच्छी तरह अध्ययन करना होता है। किन्तु यह शिक्षक की अभिप्रेरणा की मात्रा अथवा अभिवृत्ति पर निर्भर करता है कि वह इकाई का अध्ययन कितनी सूक्ष्मता एवं ध्यान से करता है। अतः दूरवर्ती शिक्षक को इस शिक्षण के प्रति स्वयं अभिप्रेरित होना चाहिए। किन्तु सभी दूरवर्ती शिक्षकों में दूरवर्ती शिक्षण के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति एवं उच्चस्तरीय अभिप्रेरणा नहीं होती है जिसके कारणबीशिक्षण प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षकों में अपने कार्य के प्रति अभिप्रेरणा का अभाव दूरवर्ती शिक्षण की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इस समस्या का निण्करण शिक्षकों में दूरवर्तीबीशिक्षण के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति के विकास के प्रयासों से ही सम्भव हो सकता है।

यद्यपि दूरवर्ती शिक्षार्थी अपनी भावी आवश्यकताओं, रुचियां एवं उच्च आकांक्षा स्तर के परिणामस्वरूप अपने द्वारा चयनित पाठ्यक्रम के प्रति पहले से ही अभिप्रेरित होता है, किन्तु वह पाठ्यक्रम के आकार, प्रकार, विषय-वस्तु की जटिलता तथा उसे पूरा करने हेतु शिक्षार्थी से अपेक्षायें आदि से परिचित नहीं होता है। अतः पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने पर शिक्षार्थी के सम्मुख अनेक ऐसी समस्याएँ आती हैं जिससे वह पाठ्यक्रम से विमुख हो जाता है। इस प्रकार उसकी पाठ्यक्रम के प्रति अभिप्रेरणा बरकरार नहीं रह पाती है। अतः शिक्षार्थी में अभिप्रेरणा का अभाव दूरवर्ती शिक्षण को आगे बढ़ाने में कठिनाई उत्पन्न करती है। इस कठिनाई को दूर करने में दूरवर्ती शिक्षक को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। उसे द्विमार्गी सम्प्रेषण के माध्यम से पाठ्यक्रम के प्रति शिक्षार्थी में अभिरुचि विकसित करनी होती है जिससे उसकी अभिप्रेरणा बरकरार रह सके।

इस प्रकार दूरवर्ती शिक्षण के अन्तर्गत शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को अभिप्रेरणा की समस्या का सामना करना होता है, किन्तु इस समस्या का निराकरण शिक्षक द्वारा ही किया जा सकता है।

  1. पृथकता की समस्या (Problem of Isolation)-

दूरव्ती शिक्षार्थी विद्यालय से दूर अपने घर पर ही रहते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। अतः वह अपने शिक्षक एव पाठ्यक्रम को चयन करने वाले अन्य साथियों से अलग होता है। साथ ही अधिकांश दूरवर्ती शिक्षार्थी वयस्क होते हैं तथा उनकी अपनी घरेलू जिम्मेदारियाँ एवं कुछ सामाजिक प्रतिबद्धताएँ होती हैं। इसलिए उनमें जिज्ञासा तनाव एवं शिथिलता आदि की संवेदनशीलता भी अधिक होती है। अतः वे पृथकता (अर्थात् दूसरों से अलग होने) की भावना से ग्रस्त होते हैं। पृथकता की यह समस्या प्रमुखतः दो प्रकार की होती है-

(i) अपने अन्य साथियों से पृथकता (Isolation from His Peers) –

अपने दूसरे साथियों से पृथकता दूरवर्ती शिक्षार्थी को बहुत अधिक प्रभावित करती है। वह यह समझता है कि दूसरे शिक्षार्थी उससे भिन्न ढंग से सोचते हैं/कार्य करते हैं/परिणाम प्राप्त करते हैं। अतः यह भावना उसके कार्य एवं कार्य के प्रति उत्साह पर प्रभाव डालती है।

(ii) शिक्षकों से पृथकता (Isolation from Tutors) –

शिक्षकों से पृथकता दूरवर्ती शिक्षार्थी में इस प्रकार की भावना को जन्म देती है कि आमने-सामने की शिक्षण परिस्थिति में शिक्षक के सम्मुख अपने उत्तर के पक्ष में अधिक प्रभावशाली ढंग से तर्क प्रस्तुत करके उसे प्रभावित किया जा सकता है। इसके साथ ही शिक्षार्थी यह भी समझता है कि आमने सामने होने पर शिक्षक उसके प्रश्नों एवं समस्याओं का सही ढंग से त्वरित समाधान करने का प्रयास करता है।

पृथकता की यह समस्या दूरवर्ती शिक्षण की एक गम्भीर समस्या है। इसका निराकरण शिक्षक द्वारा शैक्षणिक दृष्टि से उपयोगी टिप्पणियों को छात्र उत्तर पत्रकों पर अंकित करके द्विमार्गी सम्प्रेषण माध्यम का प्रयोग करके किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इस समस्या पर नियंत्रण का एक उपाय यह भी हो सकता है कि पाठ इकाई की संरचना सुस्पष्ट, विचारपूर्ण तथा उद्देश्यपरक हो तथा इसे बोधगम्य ढंग से प्रस्तुत किया जाये। इसके साथ ही इन इकाइयों में आवश्यकतानुसार उपयुक्त स्थानों पर दूरवर्ती शिक्षकों/मूल्यांकन कर्ताओं के लिए निर्देशों एवं संकेतों का प्रावधान भी होना चाहिए। इससे दूरवर्ती शिक्षक को शिक्षार्थी के साथ द्विमार्गी सम्प्रेषण में सहायता मिलती है तथा वह उपयुक्त व्यक्तिगत एवं शैक्षणिक टिप्पणियों के द्वारा शिक्षार्थी की पृथकता की समस्या को दूर करने का प्रयास कर सकता है।

दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली में पृथकता की समस्या केवल शिक्षार्थी के स्तर पर ही नहीं होती है बल्कि अधिकांश दूरवर्ती शिक्षक भी पृथकता की भावना से ग्रस्त होते हैं। दूरवर्ती शिक्षा से जुड़े हुए कुछ शिक्षकों में यह हीन ग्रंथि विकसित हो जाती है कि वे औपचारिक शिक्षा के शिक्षकों से कमतर आँके जाते हैं। इस कारण वे अपने को पृथक समझने लगते हैं। योग्य एवं अनुभवी दूरवर्ती शिक्षकों द्वारा ऐसे शिक्षकों को प्रोत्साहित एवं अभिप्रेरित करने का प्रयास किया जाना चाहिए जिससे उनकी हीन ग्रन्थि समाप्त हो सके तथा वे अपने को मुख्यधारा का ही अंग समझें।

  1. अध्ययन कौशलों की समस्या (Problem of Study Skills)-

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों में एक जैसे अध्ययन कौशल नहीं हो सकते हैं। यही कारण है कि पाठ इकाई की संरचना, विषय-वस्तु एवं प्रस्तुतीकरण के बारे में विभिन्न शिक्षकों एवं शिक्षार्थियों की अलग-अलग राय एवं समझ होती हैं। इस प्रकार पाठ इकाई के भिन्न-भिन्न अर्थापन से उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में कठिनाई उत्पन्न होती है। अतः पाठ लेखक के विचारों एवं पाठ इकाई के उद्देश्यों को केन्द्र में रखकर ही इकाई का अध्ययन किया जाना चाहिए जिससे यह समस्या उत्पन्न न हो। इसके लिए दूरवर्ती शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। प्रशिक्षित दूरवर्ती शिक्षक ही शिक्षार्थियों को इस तरह की समस्या में उलझने से बचा सकते हैं।

उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि एक अनिच्छुक एवं हतोत्साहित दूरवर्ती शिक्षक, दूरवर्ती शिक्षार्थी को किसी प्रकार का सहयोग प्रदान नहीं करं सकता है। केवल उच्च अभिप्रेरणायुक्त दूरवर्ती शिक्षक ही शिक्षार्थी को अभिप्रेरित कर सकता है, वही दूरवर्ती शिक्षक शिक्षार्थी की पृथकता की भावना को समाप्त कर सकता है जो स्वयं इस समस्या से ग्रस्त न हो तथा वही दूरवर्ती शिक्षक दूरवर्ती शिक्षार्थी के अध्ययन कौशलों में सुधार ला सकता है जिसे विभिन्न अध्ययन कौशलों के बारे में पर्याप्त एवं अच्छी जानकारी हो। किन्तु अधिकांश दूरवर्ती शिक्षक परम्परागत शिक्षा से ही आये होते हैं। औपचारिक शिक्षक कक्षागत शिक्षा संस्कृति की उपज होता है, अतः वह स्वाभाविक रूप से इस संस्कृतिजन्य पक्षधरता से युक्त होता है। वह यह समझता है कि अभिप्रेरणा, पृथकता तथा अध्ययन कौशल की समस्याएँ दूरवर्ती शिक्षार्थी से ही सम्बन्धित हैं तथा इन समस्याओं से वह मुक्त है। उसकी यह सोच कक्षागत शिक्षा-संस्कृतिजन्य होती है। अतः इस समस्या का निराकरण भावी दूरवर्ती शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण प्रदान करके ही किया जा सकता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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