दोपहर का भोजन सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | अमरकान्त – दोपहर
दोपहर का भोजन सन्दर्भः– प्रसंग- व्याख्या | अमरकान्त – दोपहर का भोजन
दोपहर का भोजन सन्दर्भः– प्रसंग- व्याख्या
- सिद्धेश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गयी। रामचन्द्र ने कटोरे को अँगुलियों से बजाया, फिर हाथ को थाल में रख दिया। एक दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे से हाथ से उठा कर आँख से निहारा और अन्त में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो। मझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धोकर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखे छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किन्तु उतना लम्बा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गम्भीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ डा0 योगेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा सम्पादित ‘श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ नामक पाठ्य पुस्तक में संकलित अमरकान्त की ‘दोपहर का भोजन’ शीर्षक कहानी से अनुतरित है।
व्याख्या – प्रस्तुत अवतरण में सिद्धेश्वरी का मातृ रूप उजागर हुआ है, वह अपने पुत्रों को भरपेट भोजन कराने में लगी ही रहती है, पुत्रों में हेलमेल बढ़ाने के लिए झूठ बोलकर भी एक के प्रति दूसरे की सद्भावना को बढ़ाती है। अपने किसी युग से वह जीवन की कठिनाइयों या परिस्थिति की जटिलताओं की चर्चा नहीं करती और यही चाहती है कि वे अपने-अपने लक्ष्यों में सफल हों। सिद्धेश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गयी। रामचन्द्र ने कटोरे को अंगुलियों से बजाया, फिर हाथ को थाल में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे से हाथ से उठाकर आँख से निहारा और अन्त में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुंह में इस सरलता से रख दिया, ठीक उस तरह से जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो। सिद्धेश्वरी का मझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धोकर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवले रंग का था और उसकी आँखे छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई की ही तरह दुबला-पतला था, किन्तु उतना लम्बा न था। वह कुछ गम्भीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
- सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास जाये और वह वहीं से भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही, किन्तु लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात् भी जब रामचन्द्र नहीं उठा तो वह घबरा गयी। पास जाकर पुकारा, बड़कू-बड़कू। लेकिन उसके कुछ न उत्तर देने पर यह डर गयी और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचन्द्र ने आँखे खोली। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा फिर झट से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यन्त्र की तरह फिर चौकी पर आकर बैठ गया।
सन्दर्भ – उपर्युक्त।
प्रसंग- ग्रीष्म यातु की दोपहर में बारह बजे सड़क पर निकले वाले सिर पर तालिया या गमछा रखते हुए या मजबूजी से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ भागते लपकते सड़क पर दिखलाई पड़ रहा है। सिद्धेश्वरी को अपने पति और बच्चों की प्रतीक्षा है जो काम से घर के बाहर गए हुए हैं। उस गृहिणी ने अपने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ाकर गली की छोर की ओर निहारा तो उसका बड़ा लड़का रामचन्द्र ऐसी दोपहरी में तौलिया या छाते के अभाव में धीरे-धीरे इस तरह घर की ओर आ रहा था, मानो शक्ति के अभाव में वह अपने आप सरक कर आ रहा हो, आतप से पीड़ित रामचन्द्र घर के भीतर घुसा और धम्म से चौकी पर बैठ गया फिर वहीं बेजान सा लेट गया। धूप से उसका मुंह लाल हो गया था। आँखे चढ़ी हुई थीं। बाल अस्त-व्यस्त थे। उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी उसके बाद का विवरण निम्नांकित में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या – सिद्धेश्वरी का जेष्ठ पुत्र रामचन्द्र ग्रीष्म की दोपहरी में बारह बजे की बेला में बिना छाता, तौलिया या गमछा के, बाहर से आया है। धूप या लू लग गयी है इससे बेहाल होकर वह चौकी पर बैठा और थोड़ी देर बाद अचेत सा होकर चौकी पर ही लेट जाता है। वह बहुत देर तक लेटने के बाद भी जब वह नहीं उठता तो अपने पुत्र की यह अवस्था देखकर सिद्धेश्वरी घबराती है। आरम्भ में तो वह रामचन्द्र के पास जाने का हिम्मत भी जुटा नहीं पाती। जिस प्रकार आसन्न भय की स्थिति में किसी हिरनी की दशा हो जाती है और वह सिर को उचका या घुमाकर भय के कारण को जानना चाहती है, उसी प्रकार सिद्धेश्वरी भी अपना सिर उचका-घुमाकर बड़ी व्याकुलता से अपने पुत्र को देखती रही परन्तु दस मिनट का समय जब बीत गया और उस पर भी रामचन्द्र नहीं उठा तब नारी सुलभ घबराहट उसके मन में व्याप्त हो गयी। वह उसके पास चली गयी। बड़कू- बड़कू कहकर उसने कई बार पुकारा किन्तु रामचन्द्र ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह बहुत डर गयी। उसने रामचन्द्र की नाक के पास अपना हाथ रखकर जीवन के लक्षण की तलाश की। श्वास- प्रश्वास स्वाभाविक रूप से आ जा रहे थे। उसने लड़के के माथे पर हाथ रखकर तापमान का अनुमान करना चाहा। बुखार नहीं था। माता के हाथ का स्पर्श पाकर रामचन्द्र की आँखें खुल गयीं। पहले उसने सुस्त निगाह से अपनी माँ की ओर देखा। उसके तत्काल पश्चात् वह झट से उठकर बैठ गया। जूते निकालकर नीचे रखे हुए लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद चालित यंत्र की तरह वह पुनः चौकी पर आकर बैठ गया।
- मुंशीजी से निबटने के पश्चात् सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की जमीन पर बैठ गयी। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी, भद्दी और जली उस रोटी को बह जूठी थाली में रखने जा ही रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोये प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक दुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरान्त एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गयी। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा, और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।
सन्दर्भ – उपर्युक्त।
व्याख्या – निम्नमध्यवर्गीय परिवार के आर्थिक अभाव को व्यक्त करते हुए अमरकान्त जी ने प्रस्तुत अवतरण में मुंशी चन्द्रिका प्रसाद एवं उनकी पत्नी सिद्धेश्वरी के वार्तालाप को व्यक्त किया है। मुंशी जी को खाना खिलाने के बाद सिएनउनकी जी पाली रोका गीक की जमीन पर बैठ गयी। उसने पालो को कटोरे में गोल दिया, मिल पा रामली। लिपुली ।। घोड़ी सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास सोच लिया। परियों की पाली की केवल एक ही रोटी बची थी। वह भी योगी, पदी और जली । बस असरो को जूडी पाली । एसो जा रही थी कि उसका ध्यान भोसारे में सोये प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लाके की मोर एकटक देखा फिर रोटी के दो बराबर हिस्से कर उसे विभाजित कर दिया। एक माहा अमोग के लिए भी रख दिया। दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रखकर एक लोटा पानी लेगार पाने के लिए बैठ गयी। उसने पहला ग्रास या कौर ही मुंह में डाला था कि उसके नारोहमा उपायू गिरने लगे। तत्पश्चात् लेखक ने एक नया विम्ब उपस्थित किया है सारा पर विखयों नमन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी लगी थी जिसमें पैचव लगे हुए थे। संचावों में कही पानी की संगति है कही असंगति है, कहीं मौन है, कही मुखरता है। अंत धातुत ही खुला तुभा और निम्बात्मक है। विम्ब अभाव के सतत् विद्यमान परिवेश का गहा गानिक विधान करता है। पूरा का पूरा परिवेश चित्रित हो गया है।
- रामचन्ना बिगड़ उठा, “अधिक खिलाकर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या ? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस अपनी जिाहरा भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता? सिद्धश्वरी जहाँ की तहाँ बैठी ही रह गयी। रामचन्द्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखता आ कहा- “पानी लाओ।”
सन्दर्भ – व्याख्येय गोश डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा सम्पादित “श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ” नामक पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘अमरकान्त’ की ‘दोपहर का गेजन’ शीर्षक कहानी से अनुतरित है।
रामचन्द्र की तबीयत सुधर जाने के बाद सिद्धेश्वरी ने उससे भोजन कर लेने को कहा। इससे पहले रामचन्द्र ने अपने पिता के बारे में पूछा कि क्या वह भोजन कर चुके? फिर उसने अपने मझले और छोटे भाइयों के बारे में पूछ। सबके बारे में सिद्धेश्वरी ने सुविधाजनक तरीके से झूठ-सच उत्तर दिया। पाली में जब रोटी का एक टुकड़ा रह गया तो उठने का उपक्रम करती हुई रामचन्द्र की माँ ने कहा। “एक रोटी और लाती हूँ” रामचन्द्र ने इन्कार किया। बोला पेट पहले ही भर चुका है मैं तो इसे भी छोड़ने वाला हूँ। अब नहीं। सिद्धेश्वरी ने जिद की “अच्छा, आधी ही सही” इस पर रामचन्द्र बिगड़ जाता है जो प्रस्तुत पंक्तियों में स्पष्ट कर दिया गया है।
व्याख्या – परिवार का बड़ा लड़का होने के कारण परिवार की आर्थिक व्यवस्था के बारे में रामचन्द्र अश नहीं था। वह चाहता था कि रसोई में जितनी रोटियाँ बनी है उनका वितरण इस प्रकार हो कि परिवार का कोई सदस्य भूखा न रह सके। सिद्धेश्वरी यह सिद्ध करना चाहती थी कि रोटियों की कमी नहीं है। वैसे भी गृहिणी होने से वह चाहती थी कोई भूखा न रहे चाहे उसे भूखा रह जाना पड़े। इसलिए खिलाने के शिष्टाचारवश जब वह एक ले लो, अच्छा आधी रोटी ही ले लो कहकर जिद करने लगी तब रामचन्द्र बिगड़कर कहने लगा अधिक खिलाकर क्या तुम मुझे बीमार ही कर देना चाहती हो? तुम लोग कुछ विवेक से काम किया करो। जिद करना उचित नहीं है। अगर मुझे भूख रहती तो क्या तुमसे और रोटी नहीं ले लेता ? सिद्धेश्वरी अपनी जगह पर बैठी ही रह गयी। थाली में जो ग्रास बच गया था रामचन्द्र ने उससे अपना हाथ खींच लिया। उसने लोटे की ओर देखते हुए कहा पानी लाओ। वस्तुता ताप के कारण उसकी शूख मर गयी थी और शीर में जल की कमी के कारण उसे प्यास अधिक लग रही थी।
- सिद्देश्वरी पर जेसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी “पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती है, पढ़ने- लिखने वालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता है। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।”
सन्दर्भ – व्याख्येय गद्यांश डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह द्वार सम्पादित ‘श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ” नामक पाठ्य पुस्तक में संकलित ‘अमरकान्त’ की ‘दोपहर का भोजन’ शीर्षक कहानी से अनुतरित है।
व्याख्या – सिद्धेश्वरी एक कुशल गृहिणी की भाँति अपनी गृहस्थी चला रही है। वह संस्कार सम्पन्न सन्नारी है। अपने परिवार के सदस्यों को एकता और पारस्परिक सद्भाव के सूत्र में बाँधकर रखना चाहती हैं। उसके पति मुंशी चन्द्रिका प्रसाद मकान किराया नियंत्रण विभाग में क्लर्क थे। डेढ़ महीना पहले छंटनी के शिकार हो गये तभी से आर्थिक तंगी की मार झेल रहे हैं, मगर घर के मोर्च पर सिद्धेश्वरी की बुद्धिमानी और त्याग के कारण निश्चिन्त हैं, इस अभाव में भी परिवार के सभी सदस्य सन्तुष्ट हैं और अपना पुरुषार्थ कर रहे हैं।
मुंशी चन्द्रिका प्रसाद जब भोजन करने बैठे तब उन्होंने पत्नी से पूछा “बड़का दिखाई नहीं दे रहा है?” सिद्धेश्वरी ने उत्तर दिया – “अभी-अभी खाकर काम पर गया है। हमेशा बाबू जी बाबू जी किए रहता है। कहता है बाबू जी देवता के समान हैं। चन्द्रिका प्रसाद के चेहरे पर प्रसन्नता की चमक आ गयी।” थोड़ा शरमाते हुए बोले – ऐं क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है। इस पर सिद्धेश्वरी जो उत्तर देती हैं वह व्याख्येय गद्यांश का विषय है। अपने पति के चेहरे पर उल्लास की चमक देखकर सिद्धेश्वरी भी प्रसत्रता और सन्तोष का अनुभव करने लगी। उस पर जैसे नशा चढ़ गया था। जिस प्रकार पागलपन की रोगिणी बड़बड़ाती है उसी तरह वह आवेशित सी बोलने लगी। बड़का पागल नहीं बड़ा होशियार है। पूर्व जन्म का वह कोई महात्मा था। उसका मझला भाई मोहन उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज ही कह रहा था कि भैय्या की शहर में बड़ी इज्जत है। पढ़े-लिखे लोग उसको आदर सम्मान देते हैं। बड़का अपने छोटे भाइयों पर जान छिड़कता रहता है। संसार में वह सब कुछ सहन कर सकता है मगर उसके छोटे भाई प्रमोद को कुछ हो जाय इसे वह कभी बरदाश्त नहीं कर सकता।
- दो रोटियाँ, कटोरा भर दाल तथा चने की तली तरकारी। मुंशी चन्द्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मार कर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किन्तु पचास- पचपन के लगते थे। शरीर के चमड़े झूल रहे थे और गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गन्दी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियाइन तार-तार लटक रही थी।
संदर्भ – उपरोक्त।
व्याख्या – प्रस्तुत अवतरण में अमरकान्त जी ने मध्यवर्गीय अभावग्रस्त परिवार को विवशता एवं भूख का बड़ा सशक्त और सहज चित्रण किया है। कहानी के केन्द्र में एक माँ है। वह अभाव भोगती ही नहीं है, वह घर में सेतु भी बनी रहती है। मुंशी चन्द्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। दो रोटियाँ, कटोरा भर दाल तथा चने की तली तरकारी खाने बैठे थे। वे सिद्धेश्वरी के पति हैं, जिनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किन्तु पचास-पचपन के लगते थे। आर्थिक विपन्नता एवं अभाव के कारण उनका शरीर झुर्रियों से भरा था, चमड़े झूल रहे थे और गंजी खोपड़ी आइने की भांति चमक रही थी। वस्त्रों की स्थिति भी आर्थिक अभाव दर्शा रही थी। गन्दी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियाइन तार-तार लटक रही थी। मुंशी चन्द्रिका प्रसाद निम्न मध्यवर्ग के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें छंटनी हो जाने से नौकरी से अलग कर दिया गया था और बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चल रहा था।
3. ‘अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं’ – वाक्य के माध्यम से लेखक ने घर की गन्दगी की ओर संकेत किया है।
7. “पागल नहीं है, वह होशियार है.……….. उसके प्रमोद को कुछ हो जाये।”
प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश श्री अमरकान्त द्वारा लिखित ‘दोपहर का भोजन’ कहानी से उद्धृत है। सिद्धेश्वरी अपने पति से पुत्र रामचन्द्र की प्रशंसा करती है और कहती है कि वह आपके विषय में कह रहा था कि बाबूजी देवता के समान हैं। मुंशी जी कहते हैं कि वह पागल है। यह सुनकर सिद्धेश्वरी उनसे कहती है-
व्याख्या – रामचन्द्र पागल नहीं हैं, वह बहुत ही योग्य है। उस युग का कोई महात्मा है। मोहन तो उसका अत्यधिक सम्मान करता है। आज मोहन रामचन्द्र के विषय में कह रहा था कि भैया का शहर में बहुत सम्मान होता है। शहर के लोग साहित्य पढ़ते और लिखते हैं वे उसका आदर करते हैं। वास्तव में रामचन्द्र तो अपने छोटे भाइयों के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। वह उनके लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर सकता है। वह संसार में सब कुछ सहन कर सकता है, परन्तु वह यह नहीं देख सकता है कि उसके भाई प्रमोद को कुछ हो जाये। सिद्धेश्वरी अपनी निर्धनता से मुक्त जीवन को इस प्रकार की बातें करके दुःख को दूर करने का प्रयास कर रही है। वास्तव में वह चाहती है कि उसके पति को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो। उसके पति सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहें।
विशेष (1) इसमें सिद्धेश्वरी के मर्मस्पशी चखि को चित्रित किया गया है, जो परिवार की दयनीय दशा को दूर करके सबको सुखी देखना चाहती है।
(2) निम्न मध्यवर्गीय परिवार की स्वाभाविक स्थिति को प्रकाशित किया गया है।
(3) भाव और भाषा प्रभावशाली है। शैली मर्मस्पर्शी है।
- लड़का नंग-धडंग पड़ा था ………….. मक्खियाँ बैठ-उड़ रही थीं।
प्रसंग – प्रस्तुत उद्धरण श्री अमरकान्त द्वारा लिखित ‘दोपहर का भोजन’ कहानी से उद्धृत है। सिद्धेश्वरी ने खाना-बनाने के पश्चात् चूल्हा बुझा दिया और प्यास लगने पर जब उसने पानी पीया, तो वह उसके कलेजे में लग गया। वह वहीं ‘हाय राम’ कहकर बैठ गई। आधा घण्टा तक वहीं पड़ी रहकर उसने अघटूटे खटोले पर सोये अपने छः वर्षीय पुत्र को देखा। लेखक ने इस उद्धरण में उसी का वर्णन किया है।
व्याख्या – अमरकान्त ने प्रमोद की शारीरिक अवस्था के बारे में लिखा है कि वह उस अधटूटे खटोले पर निर्वस्त्र पड़ा सो रहा था। इसी से उसका शरीर साफ दिखाई दे रहा था, जैसे बासी ककड़ियाँ होती है। उसका पेट अलग ही चमक रहा था और हंडिया की भाँति फूला हुआ था। वह मुख खोले सो रहा था, इसी कारण उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रहीं थीं।
विशेष (1) इन पंक्तियों में घर की गरीबी तथा पौष्टिक भोजन के अभाव की व्यंजना की गई है। कुपोषण के कारण प्रायः बच्चों की शारीरिक दशा इसी प्रकार की हो जाती है।
(2) भाषा आलंकारिक है। बासी ककड़ियों की तरह सूखा, हंडिया की तरह फूला हुआ आदि शब्दावली को लेखक ने उपमान रूप में प्रयुक्त किया है।
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