शिक्षाशास्त्र / Education

ग्रेडिंग प्रणाली | Grading System in Hindi | अंकन की परम्परागत पद्धति

ग्रेडिंग प्रणाली | Grading System in Hindi | अंकन की परम्परागत पद्धति

ग्रेडिंग प्रणाली (स्तर निर्धारण) (Grading System) –

मापन के परिणामों का उल्लेख करने का एक माध्यम ग्रेडिंग अथवा ‘स्तर निर्धारण है। जब किसी शिक्षार्थी को कोई परीक्षण प्रदान किया जाता है तब उसकी उपलब्धियों अर्थात् प्राप्तांकों को उससे सम्बन्धित व्यक्तियों (जैसे-परीक्षार्थी, अभिभावक, शैक्षिक प्रशासकों तथा चयन समितियों आदि) को भी बतलाना होता है। यह उपलब्धि प्रायः इस रूप में बतलायी जाती है कि परीक्षार्थी का स्तर कैसा है अर्थात् कितना अच्छा या कितना खराब है। परीक्षार्थी के कुल प्राप्तांकों से उसके स्तर की जानकारी नहीं हो पाती है। उदाहरणार्थ- यदि दो परीक्षार्थियों ने अधिकतम 100 अंक वाले परीक्षण में क्रमशः 65 एवं 30 अंक प्राप्त किये है तो इनसे परिमाणात्मक अन्तर का पता तो चलता है किन्तु गुणात्मक अन्तर का पता नहीं चल पाता है अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि पहला परीक्षार्थी कितना अच्छा है तथा दूसरा कितना खराब? जब हम इन प्राप्तांकों को गुणनात्मकता के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास करते हैं तब हम उनका ‘स्तर निर्धारण’ या ग्रेड प्रदान करने का प्रयास करते हैं। यह ग्रेडिंग कुछ संकेतों (जैसे- A, B, C, D आदि) अथवा गुणवाचक शब्दों (जैसे- उत्तम, अच्छा, खराब तथा बहुत खराब आदि) के माध्यम से की जाती है। उपर्युक्त उदाहरण में यदि 65 प्राप्तांक वाले परीक्षार्थी को ‘A’ ग्रेड दिया जाता है तथा 30 प्राप्तांक वाले को ‘D’ ग्रेड दिया जाता है तब इनके गुणात्मक अन्तर को सरलता से समझा जा सकता है।

अंकन की परम्परागत पद्धति (Traditional Practice of Marking)-

सामान्य परीक्षाओं में शिक्षार्थी की निष्पत्ति को 0-100 अर्थात् 101 बिन्दु मापनी पर प्रदर्शित करने का प्रचलन है। इस मापनी के व्यापक प्रयोग के पीछे यह अवधारणा हे कि शिक्षार्थी की योग्यता को 0-100 की मापनी पर सरलता एवं शुद्धता से प्रदर्शित किया जा सकता है। किन्तु मात्र 3 घंटे में शिक्षार्थी के एकवर्षीय अधिगम को मात्र कुछ प्रश्नों या प्रश्नखण्डों (3 से 100 तक प्रश्न) के द्वारा आंकलित कर पाना सम्भव नहीं लगता है। इसके अतिरिक्त मानवीय योग्यताओं का मापन बहुत ही जटिल एवं संवेदनशील होता है। इन योग्यताओं के तीन पक्ष होते हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक अतः 0-100 की मापनी पर इन योग्यताओं के शुद्ध मापन की संकल्पना ठीक नहीं लगती है क्योंकि इन्हें समान 100 खण्डों अथवा इसके समान अनुपात में विश्लेषित कर सकना सम्भव नहीं होगा।

उपर्युक्त अवधारणा की अनुपयुक्तता के प्रमुख कारणों में दो प्रकार की व्यावहारिक त्रुटियाँ भी सम्मिलित हैं-

(i) मूल्यांकनकर्त्ताओं के अंकन विचलन शीलता

(ii) विभिन्न विषयों के मूल्यांकन की विचलनशीलता

(i) मुल्यांकनकर्त्ताओं के अंकन विचलन शीलता (Evaluator’s Variability)- मूल्यांकनकत्त्ताओं द्वारा प्रायः निबन्धात्मक या मुक्त उत्तरों के मूल्यांकन में बहुत अधिक त्रुटि की जाती है। एक ही उत्तर पर अलग-अलग मूल्यांकनकत्त्ताओं द्वारा भिन्न-भिन्न अंक प्रदान किये जाते हैं। कभी-कभी तो एक परीक्षक किसी उत्तर पर प्रथम श्रेणी के अंक प्रदान करता है जबकि दूसरा परीक्षक उसी उत्तर पर तृतीय श्रेणी का अंक प्रदान करता है तथा तीसरा परीक्षक उस पर अनुत्तीर्ण होने वाला अक प्रदान करता है। हारपर का ‘नब्बे-दस’ (Ninety-ten) प्रयोग इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है- जिसमें दस उत्तर पुस्तिकाओं की फोटो प्रतियों में नब्बे परीक्षकों द्वारा मूल्यांकित किया गया तथा उनके (दस उत्तर पुस्तिकाओं) के प्राप्तांकों में पर्याप्त विषमता पाई गई।

इसके अतिरिक्त एक त्रुटि यह भी होती है 33 अंक पाने वाला परीक्षार्थी उत्तीर्ण माना जाता है तथा 32 अंक पाने वाला अनुत्तीर्ण। इसी प्रकार 60 अंक पाने वाले को प्रथम श्रेणी प्रदान की जाती है तथा 59 अंक वाले को द्वितीय श्रेणी। अतः मूल प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि एक या आधे अंक को कम या अधिक देने का क्या आधार होता है? इसका स्पष्ट उत्तर परीक्षक द्वारा दे सकना अत्यन्त कठिन है। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में यह त्रुटि नहीं होती है. अतः वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का प्रचलन बढ़ता जा रहा हे। किन्तु निबन्धात्मक परीक्षणों की भी अपनी विशेषताएँ एवं उपयोगिताएँ हैं, अतः इन्हें पूर्णतः समाप्त नहीं किया जा सकता है।

(ii) विभिन्न विषयों के मूल्यांकन की विचलनशीलता (Subject Variability)- मूल्यांकनकतर्ताओं द्वारा की गई त्रुटि के अतिरिक्त विभिन्न विषयों के मुल्यांकन में भी विषमता या विचलनशीलता पाई जाती है। विज्ञान एवं गणित विषयों के मल्यांकन में भाषा एवं सामाजिक विषयों के मूल्यांकन की अपेक्षा अधिक शुद्धता होती है। यद्यपि सभी विषयों के लिए मूल्यांकन मापनी 0-100 की होती है किन्तु प्रायः देखने में यही आता है कि केवल गाणित विषय में ही किसी छात्र को 90 से ऊपर (कभी-कभी 100 भी) अंक दिये जाते हैं जबकि साहित्य या सामाजिक विषय में मुश्किल से 60 से 70 के बीच अंक प्रदान किये जाते हैं। इस प्रकार अलग-अलग विषयों के लिए 0-100 पैमाने का प्रयोग अलग-अलग ढंग से किया आता है। साहित्य सामाजिक विषय में 60 अंक प्राप्त करने वाला विद्यार्थी बहुत अच्छी माना है जबकि गणित में 60 अंक वाले को सामान्य स्तर का माना जाता है। अतः परम्परागत अंकन पद्धति की 0-100 पैमाने की अवधारणा पूर्णतया उपयुक्त नहीं लगती है।

इस प्रकार परम्परागत अंकन पद्धति में तीन प्रमुख त्रुटियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।

(i) मानवीय योग्यता के शुद्ध मापन की गलत अवघारणा।

(ii) विभिन्न परीक्षकों के अंकन में विषमता।

(iii) विभिन्न विषयों के प्राप्तांकों की गलत तुलना।

अतः अंक के स्थान पर ग्रेड प्रदान करने की पद्धति …।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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