इतिहास / History

गुप्तोत्तरयुगीन हिन्दू मन्दिर | गुप्तोत्तरयुगीन हिन्दू मन्दिरों और स्थापत्य

गुप्तोत्तरयुगीन हिन्दू मन्दिर | गुप्तोत्तरयुगीन हिन्दू मन्दिरों और स्थापत्य

गुप्तोत्तरयुगीन हिन्दू मन्दिर

शिखर-युक्त मन्दिर भारतीय वास्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरणों में हैं। छठी शताब्दी के पश्चात् मन्दिर कला में गुप्तकालीन ओज और नवीनता तो नहीं रहती, परन्तु लालित्य बहुत अधिक बढ़ जाता है। इस समय तक मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग करने की अवस्था बीत जाती है और एक निश्चित आधारभूत योजना के अनुसार, जो थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ भारत के सभी स्थानों और धर्मों में मान्य हुई, इनका निर्माण किया जाने लगता है। इस योजना में गर्भगृह के सामने मण्डप (किसी-किसी मन्दिर में विशाल सभा-मण्डप) और चारों ओर प्रदक्षिणापथ मिलता है। मण्डप में जाने के लिए द्वार के समीप अर्द्ध-मण्डप होता है। बहुत से मन्दिरों में विशाल प्रांगण होते हैं और किसी-किसी मन्दिर में सामने की ओर एक बरामदा रहता है। दक्षिण के मन्दिरों में प्रवेश करने के लिए एक विशाल द्वार बना होता है जिसे गोपुरम् कहते हैं। ब्राह्मण मन्दिरों में कहीं-कहीं चारों कोनों में चार लघुमन्दिर होते हैं। ऐसे मन्दिरों को ‘पंच्चायतन’ कहा जाता है। जैन-मन्दिरों में कहीं-कहीं एक के स्थान पर दो मण्डप और एक विस्तृत वेदी होती है।

शिखर से आधार पर शैली-भेद

सभी प्रकार के मन्दिरों में गर्भगृह के ऊपर एक शिखर होता है। शिखर के सर्वोच्च भाग पर आमलक नाम का बड़ा चक्र और आमलक के ऊपर कलश रहता है। वही ध्वजदण्ड, भी होता है। शिखरों की निर्माण-शैली के आधार पर मन्दिरों के भेद किये जाते हैं। फर्ग्युसन ने इनके तीन भेद किये हैं—आर्यावर्त, चालुक्य और द्रविड़ । कुमारस्वामी ने इन्हें उत्तरीय (उत्तरी भारत), माध्यमिक (पश्चिमी भारत, दक्षिणी पठार और मैसूर) और दक्षिणी (मद्रास और उत्तरी लंका) नाम दिये हैं। इनमें चालुक्य का माध्यमिक शैली अन्य दो का मिश्रित रूप है, इसलिए साधारणतः मन्दिरों के दो भेद किये जा सकते हैं—आर्य या उत्तर भारतीय तथा द्रविड़ या दक्षिणभारतीय । उत्तरभारतीय शैली में गर्भगृह के ऊपर का शिखर मीनार के समान होता है। यह गोल, चौकोर अथवा अन्य किसी आकार का होता है, परंतु ऊपर की ओर त्रिकोण की भाँति पतला होता जाता है। कभी-कभी इसके ऊपर निकले भाग पर पसलियों के समान उभरी हुई रेखाएँ रहती हैं। इसके ऊपर आमलक, कलश और ध्वजदण्डं रहता । द्रविड़ या दक्षिणी शैली में शिखर कई मंजिलों में बँटा होता है। इसमें गर्भगृह के ऊपर का भाग, जिसे विमान कहते हैं, कई मंजिल में बाँट दिया जाता है और ऊपर की प्रत्येक मंजिल नीचे की मंजिल से छोटी होती जाती है। अन्त में छोटी होते-होते. यह पिरेमिड के आकार में परिवर्तित होकर स्वयं शिखर बन जाती है। इसके ऊपर वर्तुलाकार या गोल टोपी की आकृति का पाषाण-आमलक होता है। आर्य और द्रविड़ शैली में इनके अतिरिक्त कुछ अन्य अन्तर भी होते हैं। द्रविड़ मन्दिरों के मण्डप अनेक स्तम्भों से युक्त होते हैं और उनमें अलंकरण भी अधिक होता है। इसके अतिरिक्त मन्दिरों के एक या अधिक द्वारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियों से सज्जित गोपुर होता है। उत्तर भारत में वृन्दावन में रंगजी का मन्दिर द्रविड़-शैली का है।

उत्तरी या आर्य-शैली-उड़ीसा

आर्य या उत्तरभारतीय शैली के मन्दिर उड़ीसा बुन्देलखण्ड, गुजरात और राजस्थान में मिलते हैं। नेपाल के शैव और वैष्णव मन्दिर भी इसी शैली के हैं। मथुरा में भी बहुत-से प्राचीन मन्दिर थे. परन्तु वह ममलमानी शासनकाल में नष्ट कर दिये गये। उड़ीसा-शैली के मन्दिरों का निर्माण 10वीं से 13वीं शती ई० में हुआ । यहाँ के भव्यं मन्दिरों में पुरी का जगन्नाथ का मन्दिर, कोणार्क का सूर्य-मन्दिर और भुवनेश्वर का लिंगराज का मन्दिर प्रसिद्ध है। लिंगराज के मन्दिर का शिखर मीनार के सदृश प्रतीत होता है। कोणार्क के सूर्य-मन्दिर का आकार रथ के समान है। इसके पहिए विशाल हैं और अश्व सजीव मालूम होते हैं। ये मन्दिर भी अपनी विशालता और अलंकरण के लिए विख्यात हैं। इनमें अलंकरण की अधिकता इतनी अधिक है कि शिल्पकारी से खाली कोई कोना खोज निकालना मुश्किल है। इनमें कुछ मूर्तियाँ, जैसे पत्र लिखती हुई नारी की मूर्ति और बच्चे को दुलार करती हुई माँ की मूर्ति, जो भुवनेश्वर से प्राप्त होती हैं, अत्यन्त सुन्दर बन पड़ी हैं।

खजुराहो

उत्तरभारत की दूसरी प्रसिद्ध शैली खजुराहो की है। खजुराहो के मन्दिरों का निर्माण 10वीं और 11वीं शताब्दी में चन्देल सम्राटों के संरक्षण में हुआ । इस मन्दिर-समूह के भव्यतम मन्दिर धंग के शासनकाल में बने। इनमें 116 फीट ऊँचा और भारी चबूतरे वाला कन्दरीयनाथ महादेव का मन्दिर विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह अपने क्रमशः छोटे होते गये शिखर-समूहों तथा स्तम्भ-युक्त प्रदक्षिणा-पय के कारण बहुत सुन्दर मालूम होता है। इन मन्दिरों में काम-शास्त्र सम्बन्धी अश्लील मूर्तियों की भरमार है। भारतीय-स्थापत्य में शृंगारिकता तो साँची और भारहुत के समय से यक्ष और यक्षणियों के चित्रण में चली आ रही थी, परन्तु उनमें अश्लीलता नहीं थी। इस काल में सम्भवतः तन्त्र-शास्त्र की लोकप्रियता बढ़ जाने के कारण स्थापत्य में यह नई प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी।

राजस्थान और गुजरात

उत्तरभारत की तीसरी प्रसिद्ध शैली राजस्थान और गुजरात के नाम के साथ संयुक्त है। राजस्थान में ब्राह्मण मन्दिर नागदा, बाड़ौली, चित्तौड़गड़, चन्द्रावती, ओसियाँ, वर्माण इत्यादि स्थानों पर मिलते हैं। बाड़ौली के मन्दिर की प्रशंसा करते हुए कर्नल टॉड ने लिखा है-‘उसकी विचित्र और भव्य रचना का यथावत् वर्णन करना लेखनी की शक्ति के परे है।’ इस शैली के जैन-मन्दिर भी अपनी भव्यता. के लिए प्रसिद्ध हैं। विशेषतः 11वीं से 13वीं शताब्दी में सोलंकी राजाओं के शासन काल में निर्मित आबू के समीप दिलवाड़ा का मन्दिर-समूह अद्वितीय है। इनमें दो मन्दिर, जो संगमरमर के बने हैं, विमलशाह और तेजपाल ने क्रमश: 1032 ई० और 1232 में बनवाये थे। वे मन्दिर अलंकरण-प्रधान शैली की पराकाष्ठा प्रस्तुत करते हैं। इन मन्दिरों में संगमरमर की जालियाँ, बेलबूटे और नक्काशी देखकर दंग रह जाना पड़ता है। यहाँ “संगमरमर को ऐसी बारीकी से तराशा गया है मानो किसी कुशल स्वर्णकार ने रेती से रेत- रेतकर आभूषण बनाये हों” “यहाँ पहुँचकर ऐसा लगता है मानो हम स्वप्न के अद्भुत लोक में आ गये हैं।” कुछ विद्वान् तो इन्हें ताजमहल से भी अधिक खूबसूरत मानते हैं। फर्ग्युसन ने लिखा है कि आबू के मन्दिरों में ‘बारीकी के साथ ऐसी मनोहर आकृतियाँ बनाई गई हैं कि उनकी नकल कागज पर बनाने में कितने ही समय तथा परिश्रम से भी मैं सफल नहीं हो सका।

दक्षिणी या द्रविड़ शैली-पल्लव

दक्षिणी या द्रविड़ प्रकार के मन्दिरों की भी कितनी ही शैलियाँ प्रचलित हुई। इनमें पल्लवों के शासन काल में मामल्लपुरम् स्थान पर निर्मित मन्दिर (जो धर्मराज, अर्जुन, भीम, द्रौपदी इत्यादि के ‘रथ’ कहलाते हैं) द्रविड़-शैली के कई खण्डों में उठते मन्दिरों के प्राचीनतम उदाहरण हैं। प्रत्येक ‘रथ’ एक विशाल चट्टान को काटकर बनाया गया है। इन मन्दिरों को स्थापत्य से भली-भांति अलंकृत किया गया है। यहाँ की मूर्तियों में महिषासुर से युद्ध करती हुई दुर्गा और गंगावतरण का चित्रण प्रभावोत्पादक और भावपूर्ण हैं। पल्लवों के शासन काल में ही कांजीवरम् में कैलासनाथ और बैकुण्ठ के प्रसिद्ध मन्दिर बने । एक शिला काटकर मन्दिर बनाने की पल्लवों का पद्धति को राष्ट्रकूट राजाओं ने अपनाया। उनके बनवाये मन्दिरों में एलौरा के कैलास-मन्दिर विश्वविख्यात है। कैलास मन्दिर (8वीं पाती ई.) 100 फीट ऊँचा, 142 फीट लम्बा और 62 फीट चौड़ा है। यह विशाल भवन, जिसमें द्वार, झरोखे, सीढ़ियाँ, सुन्दर स्तम्भ सभी कुछ हैं, केवल एक शिलाखण्ड को काटकर बनाया गया है। यह मन्दिर मनुष्य के धैर्य और अध्यवसाय का अप्रमि उदाहरण है। इसमें कितने ही पौराणिक दृश्यों का अंकन भी किया गया है जिनमें नृसिंहावतार, शिव पार्वती विवाह और रावण द्वारा कैलास का उत्तोलन बहुत ही ओजस्वी कृतियाँ है। दशावतार अलिन्द में ईश्वर के सभी अवतारों की मूर्तियाँ हैं।

चोल

पल्लवों के पश्चात् चोल वंश के शासन काल में द्रविड़-पौली का विकास हुआ | चोल सम्राट राजराज महान् द्वारा बनवाया गया तजौर का शिवमन्दिर 190 फीट ऊँचा है। इसके शिखर या विमान में 14 मंजिलें हैं और ऊपर एक ही पाषाण-खण्ड का गुम्बद है। यह विशालकाय देवालय ऊपर से नीचे तक शिल्पकारी द्वारा अलंकृत है। चोल-मन्दिरों में राजेन्द्र प्रथम के गंगईकोण्डचोलपुरम् मन्दिर को भी आदरणीय स्थान प्राप्त है। यह मन्दिर 200 फीट ऊँचा है और भली-भाँति अलंकृत है। वास्तव में, जैसा कि फर्ग्युसन ने कहा है, चोल कलाकार अपने मंन्दिरों का प्रारम्भ दानवों की-सी विशाल कल्पना से करते थे और उनको सम्पूर्ण करने में जौहरियों की मनोवृत्ति दिखाते थे। चोल-कला का विकास कालान्तर में पांड्य-शैली में मिलता है।

पाण्ड्य

पांड्य-शैली में गोपुरम्-मन्दिरों का प्रवेशद्वार बनाने की प्रथा चली। धीरे-धीरे इनका आकार और संख्या बढ़ने लगी और बाद में चलकर यह मन्दिर के विनान या शिखर से भी ऊँचे होने लगे ! दूसरे, इनमें स्तम्भ-पंक्तियों से युक्त मण्डपों का निर्माण होने लगा। मदुरा के एक मन्दिर के मण्डप में 985 स्तम्भ मिलते हैं। तीसरे, अलंकरण की मात्रा इस युग में और बढ़ जाती है। इस शैली के मन्दिर मदुरा के अतिरिक्त श्रीरंगम् और रामेश्वरम् इत्यादि स्थानों पर मिलते हैं।

होयसल

12वीं शती ई० के प्रारम्भ में मैसूर में यादवों के होयसल-वंश की शक्ति प्रबल हो जाती है। इन्होंने जो मन्दिर बनवाये उनकी कुर्सी बहुत ऊँची है, जिससे शिल्पियों को मूर्तियाँ बनाने के लिए काफी स्थान उपलब्ध हो गया है। दूसरे, इनका शिखर पिरेमिड के आकार का होते हुए भी काफी नीचा. है। इस शैली का सर्वोत्तम मन्दिर हालेबिद या द्वारसमुद्र का होयसलेश्वर का विख्यात मन्दिर है। इसका चबूतरा 5 फीट से अधिक ऊँचा है। इस पर 700 फीट लम्बी अलंकरण पट्टिकाएँ हैं जिन पर हाथियों, शेरों, अश्वारोहियों और पशु-पक्षियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।

विजयनगर

कालान्तर में 16वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य के शासन काल में विजयनगर-शैली का जन्म हुआ। इसमें पाण्ड्य और होयसल शैलियों के तत्त्व मिले-जुले रूप में मिलते हैं! हस्पीस्थान का विट्ठल-मन्दिर इस शैली’ का सर्वोत्तम उदाहरण है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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