इतिहास / History

गुप्त काल की मूर्ति कला | गुप्तकाल की कुछ प्रसिद्ध मूर्तियां | गुप्तकालीन मूर्ति कला की विशेषताएँ | गुप्तकालीन मृण्मूर्तियाँ

गुप्त काल की मूर्ति कला | गुप्तकाल की कुछ प्रसिद्ध मूर्तियां | गुप्तकालीन मूर्ति कला की विशेषताएँ | गुप्तकालीन मृण्मूर्तियाँ

गुप्त काल की मूर्ति कला-

श्री पी० एन० चोपड़ा के शब्दों में, “गुप्त कला का सर्वोत्तम पक्ष है उसकी मूर्ति कला । कलाकार की छेनी ने पत्थर को उन सुन्दर मूर्तियों का रूप प्रदान किया है, जो इस समय मूर्ति कला क्षेत्र पर अपनी धाक जमाये हुए हैं।”

श्री बी० एन० लूनिया ने लिखा है कि “गुप्त काल की सबसे अधिक महत्त्वशाली देन बौद्ध और हिन्दू धर्म की मूर्तियों का पूर्ण विकास है।”

गुप्तकाल की कुछ प्रसिद्ध मूर्तियां-

भारत में अनेक स्थानों की खुदाई करने पर पत्थर और कांसे की बनी अनेक गुप्तकालीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मथुरा और सारनाथ में ये अधिक मिली हैं। इनमें से कई तो अपने कला सौष्ठव के कारण विश्व विख्यात हो गई हैं। इनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं:

(क ) सारनाथ की बुद्ध प्रतिमा- सारनाथ में मिली इस मूर्ति में बुद्ध को पद्यासन में बैठे धर्मचक्र प्रवर्तन करते दिखाया गया है। उन्होंने सूक्ष्म परिधान धारण किया है। मुख पर भव्य क्रांति, शांति और गंभीरता है। सिर के चारों ओर प्रभा मंडल है। इस मूर्ति का गुप्तकालीन कला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।

(ख) मथुरा की खड़ी बुद्ध मूर्ति- इसमें बुद्ध खड़ी स्थिति में हैं। इसमें भी उन्होंने महीन वस्त्र धारण किया है, जिससे उनके अंग-प्रत्यंग स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। मुख पर दिव्य मुस्कान है और घनीभूत करुणा का भाव है। प्रभा मंडल इस मूर्ति में भी है।

(ग) सुल्तान गंज की बुद्ध की ताम्र प्रतिमा- भागलपुर जिले में सुल्तानगंज से मिली बुद्ध की तांबे को यह प्रतिमा साढ़े सात फुट ऊंची है। यह प्रतिमा भी खड़ी स्थिति में है। एक हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा है। मुख पर अद्भुत सौम्यता, करुणा और कान्ति है। यह गुप्तकालीन धातु शिल्प और मूर्ति कला, दोनों का श्रेष्ठ नमूना है। यह इस समय बकिंघम संग्रहालय में है।

(घ) उदयगिरि की वराह मूर्ति- भेलसा के पास उदयगिरि गुफा में विष्णु के वराह रूप की विशाल प्रतिमा भी इस काल की प्रमुख मूर्तियों में से एक है।

(ड.) मथुरा और देवगढ़ की विष्णु मूर्तियाँ-  मथुरा में मिली विष्णु की मूर्ति कला की दृष्टि से सारनाथ की बुद्ध की प्रतिमा के तुल्य मानी गई है। यह इस समय नई दिल्ली के संग्रहालय में है। देवगढ़ के मन्दिर की विष्णु की शेषशायी प्रतिमा भी बहुत बढ़िया है। इस मन्दिर में अंकित कृष्ण लीला आदि के दृश्य भी सुन्दर हैं।

(च) वर्धमान महावीर की मूर्ति- जैन मूर्तियों में एक मूर्ति वर्धमान महावीर की भी है, जिसमें महावीर को.पद्मासन में ध्यानमग्न दिखाया गया है।

(छ) शिव और कार्तिकेय की मूर्तियाँ- इस काल में शैव धर्म भी वैष्णव धर्म की भांति ही लोकप्रिय था। शिव की लोकेश्वर रूप में मूर्ति तथा अनेक लिंग मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। काशी में कार्तिकेय की भी मूर्ति पाई गई है, जो कुमार गुप्त के काल की कही जाती है।

(ज) सूर्य की मूर्ति- कौशाम्बी में सूर्य देवता की मूर्ति पाई गई है। कहा जाता है कि दशपुर के इस सूर्य मन्दिर का निर्माण जुलाहों की एक श्रेणी (गिल्ड) ने करवाया था।

गुप्तकालीन मूर्ति कला की विशेषताएँ-

गुप्तकालीन मूर्ति कला अपने से पूर्व की कुशाण-कला से अनेक बातों में भिन्न है। कुषाण काल में गान्धार शैली और मथुरा शैली, दोनों का लगभग एक सा विकास हुआ था, परन्तु गुप्त कल में मथुरा शैली विकसित होते-होते चरम शिखर पर पहुँच गई थी। गान्धार, मथुरा, सांची और अमरावती की शैलियों ने मिलकर एक राष्ट्रीय कला शैली का रूप ले लिया था। इस काल की मूर्तियों को विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(क) विदेशी प्रभाव का अभाव- कुषाणकालीन मूर्ति कला पर विदेशी यवन प्रभाव था किन्तु गुप्त काल की कला में उसका नितान्त अभाव है। गुप्त कला विशुद्ध भारतीय कला है।

(ख) विषयाशक्ति का अभाव- कुषाणकालीन कला में नग्नता और विषय शक्ति का अंश काफी प्रमुख था। गुप्त काल में इसका अभाव है। मूर्तियाँ वस्त्र धारण किये दिखाई गई है। उनमें आध्यात्मिकता और गंभीरता का भाव प्रधान है।

(ग) धार्मिक भाव की प्रधानता- धार्मिक भक्ति के आदर्श पर अधिक जोर दिया गया है बौद्ध जैन तथा हिट भी मतियाँ धार्मिक भावना से सराबोर हैं।

(घ) बाह्य रूप का आन्तरिक भावना के साथ पूरा मेल है- जिस प्रकार के धार्मिक तथा आध्यात्मिक विषय चुने गये हैं वैसा ही उनका प्रशान्त गंभीर अंकन भी किया गया है।

(ङ) आदर्शवाद और सौन्दर्य का समन्वय- गुप्तकालीन मूर्तियों में आदर्शवाद और सौन्दर्य दोनों का पूरा ध्यान रखा गया है। उनमें आकृतियाँ सुन्दर हैं; उनमें आकर्षण और गौरव दोनों है; शान्त मुद्रा के साथ-साथ तेजस्वी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति भी है।

(च) सममिति- शिल्पियों ने सममिति का पूरा ध्यान रखा है। कहीं भी न तो एक छेनी अधिक लगी है, न कम।

गुप्तकालीन मृण्मूर्तियाँ –

पकाई हुई मिट्टी की मूर्तियों को ‘मृण्मुर्तियाँ’ कहा जाता इस पर प्रतिमाशास्त्र के निगम लागू नहीं होते इनमें अपने काल के लोक जीवन की यथार्थ झलक पाई जाती है। मथुरा, वैशाली तथा बिहटा से गुप्तकालीन मृण्मूतियाँ मिली हैं। इनमें देवताओं, पशु-पक्षियों और जीवन के विविध व्यापारों में लगे नर-नारियों का अंकन है। कुछ गुसकालीन मुहरें भी मिली हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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