इतिहास में वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता | वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता | इतिहास में वस्तुनिष्ठता का महत्व
इतिहास में वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता | वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता | इतिहास में वस्तुनिष्ठता का महत्व
इतिहास में वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता
इतिहास में वस्तुनिष्ठता है आज परम आवश्यक मानी जा रही है, क्योंकि इतिहास को भी एक विज्ञान की श्रेणी प्रदान करने का प्रयास तेजी से चल रहा है और इतिहास का अध्ययन पूर्णतः वैज्ञानिक करने का भी यत्न किया जा रहा है। ऐतिहासिक ज्ञान की मान्यता के लिए भी उसकी वस्तुनिष्ठता निर्धान्त होनी चाहिए। यह आधुनिक वैज्ञानिक मान्यता है। यदि इतिहास में वस्तुनिष्ठता नहीं होगी तो उसे मान्य नहीं किया जायेगा, ऐसा निश्चित् हुआ है तो वस्तुनिष्ठता स्वतः आवश्यक प्रतीत होने लगती है।
कोई भी तथ्य तभी ग्राह्य होते हैं जब वे वस्तुनिष्ठ होते हैं। तथ्य इतिहास की वस्तु तभी बनते हैं जब चयन-प्रक्रिया द्वारा इतिहास में उनको स्थान दिया जाता है। ई0 एच0 कार यह कहते हैं कि इतिहास में वस्तुनिष्ठता नहीं हो सकती, केवल सम्बन्धों की वस्तुनिष्ठता होती है। गूच लिखते हैं कि नेबूर ने फ्रांस का इतिहास लिखकर ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया था। कार लिखते हैं कि लार्ड ऐक्टन का वाटर लू जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेज, डेनमार्क आदि सबके लिए सामान्य रूप से ग्राह्य था।
इतिहास में तथ्यातथ्य होना एक आवश्यक दायित्व है, परन्तु गुण नहीं। फिर भी वस्तुनिष्ठ व्याख्या इतिहासकार का दायित्व होना चाहिए क्योंकि उसका उद्देश्य समाज के एक वर्ग को सन्तुष्ट करना नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज के लिए इतिहास लिखना है जिसका स्वरूप वैज्ञानिक होना आवश्यक है जिससे कि उसे सार्वभौम तथा सर्वयुगीन बनाया जा सके।
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता का कोई सिद्धान्त नहीं है, इसके लिए केवल अभ्यास तथा प्रयास करने की आवश्यकता है, और यह इतिहासकार के मानसिक चिन्तन पर निर्भर करता है। इस वस्तुनिष्ठता के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत नहीं करना चाहिए, साथ ही उसमें व्यक्तिगत अभिरुचि और मनमानी (पक्षपात) भी नहीं होना चाहिए। कारणों की व्याख्या में इसे पर्याप्त शालीनता से प्रयोग में लाना चाहिए।
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता को सिद्ध करने के लिए कुछ ये प्रश्न विचारणीय हैं—
- एक इतिहासकार से किस तरह की वस्तुनिष्ठता अपेक्षित होगी,
- क्या इतिहास में वस्तुनिष्ठता और विषयनिष्ठा की खोज आवश्यक है,
- दार्शनिक तथा इतिहासकार क्योंकर के वस्तुनिष्ठता को एक समस्या रूप में देखते हैं,
- क्या हम इस तथ्य को स्वीकार कर सकते हैं कि इतिहास विज्ञान की भाँति वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता है?
बटरफील्ड के अनुसार इतिहास में वस्तुनिष्ठता के समावेश के पहले सामान्य इतिहास तथा खोजपूर्ण इतिहास के अन्तर को समझना चाहिए। इनमें पहला संक्षिप्त तथा दूसरा वृहद् होता है। खोजपूर्ण इतिहासकार मनोनुकूल तथ्यों का चयन कर व्यक्तिगत एवं सामाजिक रुचि के अनुसार उनकी व्याख्या करता है। मंडेलबाम ने भी इसका समर्थन किया है।
ऐतिहासिक तथ्य वस्तुनिष्ठ-इतिहास के आधार हैं। बटरफील्ड के शब्दों में ‘वस्तुनिष्ठता इतिहास की वाणी है।’ अतएव इतिहास में इतिहासकार के व्यक्तिगत दृष्टिकोण के अतिरिक्त कुछ अन्य बातों का भी उल्लेख आवश्यक है जिसे हम ऐतिहासिक न्याय कह सकते हैं। इस न्याय की परिधि इतिहासकार निर्वैयक्तिक हो सकता है जो कि ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि तथ्य जो कि वस्तुतः वस्तुनिष्ठ होते हैं, उन्हें तोड़- मरोड़कर नहीं, अपितु यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक है। एक बात और कि लेखक व्याख्या से नहीं अपितु तथ्यों से अपना विवरण प्राप्त करे, यह भी आवश्यक है। वैसे इतिहास में व्याख्या की अपेक्षा तथ्य प्रधान होते भी हैं। वस्तुनिष्ठ के लिए निष्पक्षता एवं मतैक्य भी आवश्यक है। इतिहास को अपने विचार का प्रचार-साधन नहीं बनाना चाहिए और न ही उसके लेखन में द्वेष या सहानुभूति का सहारा लेना चाहिए। किसी भी घटना के प्रति पूर्णतः सतर्कता बरतनी चाहिए, उदासीनता अथवा उपेक्षा के भाव लेखन में नहीं होने चाहिए। इतिहास को अतिरंजित नहीं किया जाना चाहिए।
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए यह भी आवश्यक है कि घटनाओं में महापुरुषों के ही कार्यों एवं उपलब्धियों को दर्शाना चाहिए और वह भी यथार्थ रूप में, न कि प्रशस्ति या निन्दा के अभिप्राय से। लेखक को धर्म, जाति आदि की भावना से भी ऊपर उठने की आवश्यकता होती है। उसे सभी तथ्यों को लेना चाहिए, उसमें से किसी को लेना और किसी को अपनी रुचि के अनुसार छोड़ना उचित नहीं है। उसे वस्तुनिष्ठता का निर्वाह करते हुए तथ्यों का आदर करने की आवश्यकता होती है। उसे अतीत के रहस्यों में उलझना नहीं चाहिए, अपितु उपलब्ध स्रोतों के आधार पर अतीत का उपयोगी चित्रण करना चाहिए। परम्परागत रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों से ऊपर उठकर लिखना चाहिए। व्यक्ति अथवा घटना के प्रति नैतिक न्याय देना इतिहासकार का कार्य नहीं है। वह केवल लेखक ही रहे, न्यायाधीश नहीं। उसे किसी भी भौतिक अधिकार का प्रयोग लेखन में नहीं करना चाहिए।
लेखक अथवा इतिहासकार साम्यवाद, पूंजीवाद, प्रजातंत्रवाद, राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद तथा मार्क्सवाद आदि से प्रभावित होने के कारण अपने अलग-अलग सिद्धान्त रखते हैं जिससे उनमें परस्पर मतभेद होना स्वाभाविक है। इसी तरह से विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोण एवं धर्म-सम्प्रदाय की प्रचुरधर्मिता से भी वे प्रभावित हो सकते हैं। परन्तु, लेखन में उनको इन सबके प्रभावों से बचकर रहना चाहिए। अन्यथा इतिहास के दूषित हो जाने का भय रहता है। लेखक को सिद्धान्त की अपेक्षा अभ्यास पर अधिक बल देना चाहिए, यही वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता है। इसके लिए पुनर्मनन भी आवश्यक है जिसे हम एक मानसिक प्रक्रिया के रूप में जानते हैं। लेखन के नियम एवं अनुशासन का भी पालन होना चाहिए। कोई भी चित्रण असंगत और अस्वाभाविक न हो। ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के लिए इन सब आवश्यकताओं पर ध्यान देने से वस्तुनिष्ठता को न केवल विज्ञान में, अपितु इतिहास में भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
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