जे0 कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | जे0 कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के कार्य
जे0 कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | जे0 कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के कार्य
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कृष्णमूर्ति की सोच देश, काल, वातावरण एवं सांस्कृतिक अलगाववाद की सीमा से अलग हटकर शाश्वत जीवन को समझने में मानवता की सहायता करती है। यही वजह है कि उनके द्वारा सुझाए गए शिक्षा के उद्देश्यों में भी उसी शाश्वत की छाप प्राप्त होती है। उन्होंने पृथक-पृथक स्थानों पर अलग-अलग समयों पर शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में अलग- अलग रूप और भाषा में अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार शिक्षा का मूल उद्देश्य एक संतुलित मानव का विकास करना है। ऐसा मानव जो चेतनायुक्त हो, जो सद्भावना से परिपूर्ण हो, जो जीवन का अर्थ और उद्देश्य जानता हो, जो जाति, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति, क्षेत्र इत्यादि किसी भी आधार पर पूर्वाग्रहों एवं पूर्वधारणाओं से मुक्त हो, जो द्वेष, घृणा और हिंसा जैसी दृष्यवृत्तियों से बहुत दूर हो, जो वैज्ञानिक बुद्धि तथा आध्यात्मिकता में समन्वय स्थापित कर सकने की सामर्थ्य रखता हो, जो मानव मत्र के जीवन को सुखी बना सके, जो स्वयं के लिए नवीन मूल्यों को तैयार कर सकता हो और जो एक नवीन संस्कृति एवं नवीन विश्व का निर्माण कर सकता है। अतः इस मूल उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इन उद्देश्यों को प्राप्त करना आवश्यक है।
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सृजनात्मकता का विकास-
कृष्णमूर्ति ने शिक्षा का उद्देश्य सूजनात्मक विकास में लगाया है। सृजनात्मकता से इसका अर्थ शरीर, मन ओर आत्मा तीनों की सृजनशीलता से है। इनके द्वारा बालकों पर किसी अन्य के विचारों को लादना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें अपने निर्णय करने और कार्य करने के मुक्त अवसर प्रदान किये जाने चाहिए। इसके लिए सुखद वातावरण का होना परम आवश्यक है। कृष्णामूर्ति मानते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य केवल विद्वानों, तकनीशियनों तथा व्यवसाय की खाज करने वाल लोगो को ही उत्पन्न करना नहीं है। बल्कि ऐसे एकीकृत स्त्री और पुरुष उत्पन्न करना है जो भयभीत न हो क्योंकि ऐसे ही व्यक्तियों के बीच में स्थायी शक्ति स्थापित हो सकती है।
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व्यावसायिक प्रशिक्षण-
कृष्णमूर्ति का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका के लिए कोई-न-कोई व्यवसाय तो करना ही होता है, इसलिए शिक्षा का उद्देश्य किसी-नं-किसी व्यवसाय हेतु निपुणता प्रदान करना होना चाहिए। यह स्वीकार करते हैं कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी भी माध्यम से धन की प्राप्ति में लगा है, परन्तु ऐसे धन की प्राप्ति करने वाले व्यक्तियों के शरीर, मन और हृदय कठोर हो जाते हैं और उनकी संवेदनशीलता का अंत हो जाता है। वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य यह है कि वह बालक को धन और उसकी सीमाओं के प्रारम्भ से है जिससे वह अपने शरीर, मन और हृदय को जटिल, खंडित और कठोर न होने दे अपित् उनके बीच एक समरस एवं संगीतिक सामंजस्य बना रहे।
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संवेदनशीलता का विकास-
कृष्णमूर्ति कहते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य बाल को संवेदनशील बनाना है। इसके अनुसार बालकों में प्रकृति और मानवमात्र के प्रति प्रेम को स्थापित करना ही सही संवेदनशीलता है। इस प्रकार की संवेदनशीलता में घृणा, द्वेष, क्रोध और हिंसा का कोई स्थान नहीं होगा। बालक, भय, प्रतियोगिता और स्पर्धा से स्वतंत्र होंगे और इस प्रकार विश्व में चारों ओर मैत्री वातावरण स्थापित हो जायेगा।
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वैज्ञानिक बुद्धि का विकास-
कृष्णमूर्ति के काल में विश्व एवं तकनीकी का विकास तीव्र गति से हो रहा था। विज्ञान के लिए नवीन अनुसंधान हो रहे थे और लगभग सभी देशों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा पर जोर दिया जा रहा था। ये इस प्रकार की शिक्षा के विरोधी नहीं थे उनका मानना था कि इनका प्रयोग मानव कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। व कहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य बालक में वैज्ञानिक बुद्धि का विकास करना होना चाहिए। वैज्ञानिक बुद्धि से उनका आशय तथ्यों के वास्तविक स्वरूप को जानना था।
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वास्तविक चरित्र का निर्माण करना-
शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना है। समस्त शिक्षा शास्त्रीयों की भांति कृष्णमूर्ति भी यह मानते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य बालक के चरित्र का निर्माण करना है। उन्होंने चरित्रवान का अर्थ असत्य को त्यागकर सत्य को अपनाने से लगाया है। वास्तव में सत्य की खोज करने और उस पर दृढ़ बने रहने से जो चरित्र निर्माण होता है, वह स्थायी और मूल्यवान होता है। ऐसे चरित्रवान व्यक्ति का जीवन स्वयं में ही एक आनन्द होता है। चरित्र निर्माण के लिए बड़ी ही मेघा और ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
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शारीरिक विकास-
स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन का होना परम आवश्यक है। अतः बालक का शारीरिक विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। कृष्णमूर्ति ने कहा है। कि जब बालक शारीरिक विकारों से स्वतंत्र होगा तभी वह प्रतिक्षण हमेशा नयी वस्तु का अनुसधान करने का प्रयत्न करेगा।
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मानसिक विकास-
कृष्णमूर्ति ने शिक्षा का उद्देश्य बालक को दिये जाने वाले विभन्न ज्ञान के साथ-साथ उसके मन को परम्पराओं के बोझ से स्वतंत्र करना भी है जिससे वह आविष्कार करने, खोज करने और शोध करने में समर्थ हो सके।
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सांस्कृतिक विकास-
कृष्णमूर्ति ने शिक्षा का उद्देश्य ऐसे मानव का निर्माण करने से लगाया है जो सुसंस्कृत, सभ्य और शिष्ट हो। इनका मानना है कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में ऐसी शक्ति एवं अंतःचेतन की वृद्धि करना है जिससे वह पूर्वाग्रहों के विपरीत दृढ़तापूर्वक खड़ा हो सके और नवीन संस्कृति व नवीन मूल्यों का निर्माण कर सके जिससे एकीकृत मानव का निर्माण हो।
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आध्यात्मिक मूल्यों का विकास-
कृष्णामूर्ति ने शिक्षा का उद्देश्य बालक में आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने से लगाया है। आध्यात्मिकता के विकास से इनका अर्थ आध्यात्मिक चेतना के विकास से है, कम बोधि के विकास से है, नैतिक मूल्यों के विकास से है। शिक्षा का उद्देश्य बालक में ऐसी क्षमता उत्पन्न करना है कि वह अपने विचारों और कार्यों का हर संभव निरीक्षणं करता रहे।
शिक्षा का अर्थ बालक में नवचेतना और उद्यमिता का विकास करना है। नवचेतना और उद्यमिता का तात्पर्य है सावधानी, सजगता, अवलोकन और स्वतंत्रता का अत्यन्त ज्ञान प्राप्त करना है। कृष्णामूर्ति के अनुसार नवचेतना और उद्यमी मन का लक्षण है कि जैसे ही कोई समस्या उत्पन्न हो, वह उसकी प्रकृति का अवलोकन करें, उसका सामना करे और उसका समाधान करें।
शिक्षा का अर्थ बालकों में ऐसी क्षमता उत्पन्न करना है कि वे समाज की परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों के साथ-साथ अपने मन की गतिविधियों को सही-सही देख सरकें। इससे उनकी दृष्टि स्पष्ट होगी और वे संस्कारों व आदर्शों की मिली-जुली संस्कृति से स्वतंत्र होकर मौलिंक परिवर्तन के द्वारा नवीन संसार की रचना में सहायता कर सकेंगे। मौलिक परिवर्तन के लिए शिक्षा की भूमिका के विषय में कृष्णामूर्ति ने कहा है- “वास्तविक शिक्षा आपको मात्र संस्कारयुक्त होने में सहायता नहीं करती है, बल्कि वह दूसरे को प्रतिदिन जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया को समझने में सहायता करती है जिससे आप निर्विघ्न आगे का मार्ग प्रशस्त कर सके और नवीन विश्व का निर्माण कर सके और नये संसार का निर्माण कर सके। एक ऐसा विश्व जो वर्तमान विश्व से एकदम पृथक हो। शिक्षा का कार्य परम्परा और आदत को सही अर्थों में जानना और अन्यथा का बध कराना है। परम्परा का अर्थ है अतीत का सातत्य और आदत का अर्थ है पुनः दोहराये जाने वाले कार्य सजगता से उत्पन्न नहीं होते हैं। सजगता आदतों को दूर कर देती है। शिक्षा का अर्थ है कि परम्पराओं और आदतों से जकड़े जीवन को मुक्त कराने तथा विशाल जीवन धारा से एकाकार होकर अनन्त जीवन का अनुभव करने में हमारी सहायता करें।
शिक्षा का कार्य बालक को सीखने की कला से अवगत कराना है। सीखने की कला को स्पष्ट करते हुए कृष्णामूर्ति ने कहा है “सीखने की कला का तात्पर्य दी गयी जानकारी को उचित स्थान देना तथा जो सीख़ गया है उसका न तो उन प्रतिमानों और प्रतीकों से बच जाना जिन्हें विचार करना होता है। अतः कला का तात्पर्य प्रत्येक वस्तु को उचित स्थान पर रखना।
शिक्षा का वास्तविक कार्य यह नहीं होता है कि वह व्यक्ति को क्लर्क या जज या राजनेता बना दे बल्कि उसका कार्य है व्यक्ति को इस जर्जर समाज के संपूर्ण ढाँचे को समझने में और स्वतंत्रता के साथ अग्रसर होने में सहयोग करें जिससे. वे इस समाज से स्वतंत्र हो सकें और नवीन संसार का निर्माण कर सकें। एक ऐसा संसार जो अधिकार, भक्ति और प्रतिष्ठा पर आधारित न हो ।
शिक्षा का कार्य न केवल बालकों को विभिन्न क्षेत्रों में मानव के महान प्रयत्नों से प्राप्त विशाल ज्ञान के भण्डारों की जानकारी से अवगत कराना है बल्कि उनके मन को उस बोध से उत्पन्न होने वाली परम्पराओं के दबाव से मुक्त कराना है जिससे वह आविष्कार करने और अनुसंधान करने में समर्थ हो सके अन्यथा हमारा मन मात्र तकनीकी ज्ञान से बोझिल होकर जस-का-तस बना रहेगा।
शिक्षा का एक अन्य प्रमुख कार्य बालक में संपूर्ण उत्तरदायित्व का ज्ञान कराने में उसका सहयोग करना है साधारणतः हमारी शिक्षा अपने परिवार, जाति, देश या धर्म आदि के प्रति ही उत्तरदायी होना सिखाती है। ऐसा उत्तरदायित्व एक प्रकार का अनुत्तरदायित्व है क्योंकि जब तक बालक को पूरी तरह से समष्टि के प्रति उत्तरदायी होने का ज्ञान नहीं होता तब तक हम उत्तरदायित्व को किसी भी अभिप्राय में नहीं समझ सकते हैं।
केवल दिमागी बोध एक प्रकार का अज्ञान है और ववाकल तथ्यों का ज्ञान मानवीय समस्याओं को हल करने में सक्षम नहीं हो सकता। इससे ही प्रज्ञा का प्रारभ होता है। प्रज्ञावान व्यक्ति ही ज्ञान का सही-सही उपयोग कर सकता है। अस्तित्व के साथ हमारे क्या सम्बन्ध हैं इसे समझना भी शिक्षा का ही कार्य है क्योंकि इस वृहद सम्बन्ध की प्रज्ञापूर्ण जानकारी के अभाव में हम पर्यावरण को जहरीला कर रहे हैं।
शिक्षा का कार्य व्यक्ति में असंतोष, सहज’ स्फूर्ति एवं सृजन को प्रेरित करना है। बालक में जब तक गहरा असंतोष होता है तो उसमें सहज स्फूर्ति ही सृजनता की जड़ है। अतः शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह बालक को कभी संतुष्ट न होने दे उसे सदैव प्रेरित करते रहें जिससे वह और खोज करे क्योंकि खोज का कोई अंत नहीं होता।
शिक्षा व्यक्ति का केवलं संस्कारयुक्त होने में ही सहयोग नहीं देती अपितु जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया को समझने में भी सहायता करती है जिससे वह निर्विघ्नता के साथ अग्रसर हो सके और एक नए विश्व का निर्माण कर सरकें।
शिक्षा का कार्य स्थायी जीवन मूल्यों की खोज में व्यक्ति की सहायता करना है।
शिक्षा शिक्षक, छात्र और अभिभावक तीनों को प्रभावित करती है।
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