संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

नेतृत्व की विचारधाराएँ अथवा दृष्टिकोण | Theories or Approaches to leadership in Hindi

नेतृत्व की विचारधाराएँ अथवा दृष्टिकोण | Theories or Approaches to leadership in Hindi

नेतृत्व की विचारधाराएँ अथवा दृष्टिकोण

 (Theories or Approaches to leadership)

प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण पटक नेतृत्व के सम्बन्ध में अलग-अलग विचारधाराओं का विकास हुआ है जिन्हें मूल रूप में निम्न दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) प्राचीन विचारधारा (Traditional Approach)- इस विचारधारा का यह मत है कि “नेता जन्म लेते हैं, तैयार नहीं किये जाते।” इसके विपरीत दूसरी विचारधारा है जिसका नाम है-

(2) आधुनिक विचारधारा (Modern Approach)- इस विचारधारा का यह मत है कि “नेता जन्म भी लेते हैं और साथ में तैयार भी किये जाते हैं।”

नेतृत्व के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख विचारधाराएँ निम्नलिखित हैं-

(1) नेतृत्व की लक्षण-मूलक विचारधारा (The Trait or Traitist Theory of Leadership)- प्रस्तुत विचारधारा का प्रतिपादन प्रारम्भिक विद्वानों ने किया था। ऐसे विद्धानों ने निगमन प्रणाली अपनाते हुए कुछ जाने-माने नेताओं के जीवन का अध्ययन करके उनके अति स्पष्ट गुणों का पता लगाया और फिर इन्हीं को नेतृत्व के लिए आवश्यक गुणों के रूप में प्रस्तुत किया। जिस व्यक्ति में गुण जितने अधिक होगें वह उतने ही ऊँचे स्तर का नेता होगा। ऐसे विद्वानों को ‘लक्षण-मूलक’ (Traitists) और इसके प्रतिपादन नेतृत्व सिद्धान्त को Traitist Theory कहते हैं।. प्रसिद्ध लक्षण-मूलक विद्वान ऑर्डवे टीड के अनुसार नेता की पहचान निम्न गुणों से होती है- (i) शारीरिक और स्नायुविक शक्ति, (ii) उद्देश्य एवं लक्ष्य भावना, (iii) उत्साह, (iv) मैत्री-भाव तथा प्रेम, (v) चारत्रिक दृढ़ता, (vi) तकनीकी कुशलता, (vii) निर्णय क्षमता, (viii) कुशाग्र बुद्धि, (ix) शिक्षण चातुर्थ, (x) दृढ़ विश्वास, (xi) व्यक्तित्व।

इस सिद्धान्त के प्रमुख प्रवर्तक थे- चेस्टर आई, बर्नार्ड, ऑर्डवे टीड आदि।

(2) नेतृत्व की परिस्पितित्यात्मक परीक्षण विचारधारा (Situationalistic theory or Approach to Leadership)- प्रस्तुत विचारधारा के प्रतिपादक नेतृत्व के गुणों की पहचान पर विशेष जोर देते हैं, जबकि लक्षण-मूलक विचारधारा के प्रतिपादक नेतृत्व गुणों की गिनती पर जोर देते हैं। परिस्थितित्यात्मक विचारधारा के अनुकरण करने वाले विद्वान प्रारम्भ में यह मानकर चलते हैं कि नेता एवं प्रबन्धक के कुछ गुण, जैसे-भाषण देने की क्षमता, बुद्धिमत्ता, धैर्य, समझ, स्थायित्व तथा एकनिष्ठता आदि गुण तो होने ही चाहिए किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परीक्षा की घड़ियों में वह व्यक्ति इन गुणों का किस प्रकार प्रयोग करता है। अतः ये विद्वान प्रबन्ध अथवा नेता के पद के लिए आवेदन देने वाले व्यक्ति को किसी समूह के साथ विभिन्न परिस्थितियों में रखकर उसके आचरण का विस्तृत अध्ययन करके उसके नेतृत्व का स्तर निर्धारित करने की सिफारिश करते हैं। इन विद्वानों को ‘परिस्थितिवादी’ तथा इनके नेतृत्व की विचारधारा को ‘परिस्थितित्यात्मक परीक्षण विचारधारा’ कहते हैं। इस विचारधारा का उपयोग द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी तथा अमेरिकी सेनाओं के कमाण्डरों का चयन करने के लिए व्यापक रूप में किया गया था।

(3) नेतृत्व की अनुयायी विचारधारा (The Follower Approach to Leadership) – उपर्युक्त दोनों प्रकार की विचारधाराओं की कमियों को दूर करने के लिए इस विचारधारा का प्रतिपादन एफ. एच. सेन्सफोर्ड ने किया था। इस विचारधारा के अनुसार अनुयायियों की कुछ प्राथमिक आवश्यकताएँ होती हैं और जो व्यक्ति इन आवश्यकताओं की पूर्ति में सबसे अधिक सहायता देता है उसी को वे अपना नेता मान लेते हैं। अतः किसी व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता को मालूम करने के लिए उसके अनुयायी सम्बन्धी आचरण का अध्ययन किया जाना चाहिए।

(4) नेतृत्व की सर्वोत्कृष्टता की विचारधारा (The Electric Approach to Leadership)- किसी व्यक्ति की नेतृत्व क्षमता के ज्ञान का पता उपर्युक्त तीनों विचारधाराओं के अध्ययन के उपरान्त ही लगाया जा सकता है। इस प्रकार के संयुक्त अध्ययन को ‘नेतृत्व की सर्वोत्कृष्टता की विचारधारा’ कहते हैं। इस प्रकार यह कोई नयी विचारधारा नहीं है अपितु उपर्युक्त तीनों विचारधाराओं की सहायता से सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने की प्रक्रिया मात्र ही है।

(5) क्रियात्मक विचारधारा (Functional Approach)- नेतृत्व की क्रियात्मक विचारधारा का विकास कुर्त लेविन ने किया था। इस विचारधारा के अनुसार नेता का एक व्यक्ति के रूप में अध्ययन करने के स्थान पर एक समूह के रूप में अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि नेता का सम्बन्ध एक व्यक्ति विशेष से न होकर अनेक व्यक्तियों अथवा समूह से होता है।

(6) व्यवहारवादी विचारधारा (Behavioural Approach)- इस विचारधारा के अनुसार नेतृत्व व्यवहारवादी होना चाहिए। यह विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि नेतृत्व का अध्ययन ‘नेता क्या करता है?’ के आधार पर किया जाना चाहिए, न कि ‘नेता क्या है?’ के आधार पर इस प्रकार इस विचारधारा का सम्बन्ध नेता के व्यवहार से है, उसके व्यक्तिगत गुणों से नहीं। रे ए किलियन (Ray A. Killian) के अनुसार, “चाहे एक नेता मूल रूप में निर्णय लेता हो, समस्या सुलझाने वाला हो, परामर्श देने वाला हो, सूचना देने वाला हो अथवा नियोजन करने वाला हो, उसे अपने अनुयायियों के समक्ष आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करना चाहिए।”

(7) नेतृत्व की X तथा Y विचारधारा (Xand Y Approach of Leadership) नेतृत्व के सम्बन्ध में X विचारधाराएँ तथा Y विचारधाराएँ महत्वपूर्ण हैं। इस विचारधारा का प्रतिपादन मैकग्रेगर ने किया था। इन दोनों विचारधाराओं ने दो विरोधी पहलुओं को उभारा है। X विचारधारा के अनुसार व्यक्ति स्वयं अपनी इच्छा से कार्य करना नहीं चाहता अतः उसे डराना, धमकाना, लताड़ना एवं पग-पग पर निर्देशन देना परम आवश्यक होता है, ताकि कार्य का निष्पादन कराया जा सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति से कार्य लेने के लिए नेतृत्व उसे धमकायेगा, डरायेगा, एवं समय-समय पर निर्देशन प्रदान करेगा। इसके विपरीत, Y विचारधारा की यह मान्यता है कि व्यक्ति स्वयं अपनी ओर से कार्य करना चाहता है। इसका कारण यह है कि उसमें सृजनात्मक प्रवृत्ति विद्यमान रहती है तथा वह आशावादी होता है। अतः नेतृत्व का कार्य तो केवल उसका उचित मार्गदर्शन करना ही है। इससे व्यक्ति अधिक सन्तोष का अनुभव करता है।

X सिद्धान्त के अन्तर्गत नेता शक्ति एवं नियन्त्रण का उपयोग करता है, अपने निर्णय कर्मचारियों पर जबर्दस्ती थोपता है तथा परम्परागत ढंग से कार्य-निष्पादन करता है। Y सिद्धान्त में नेता कर्मचारियों की सलाह से तुलनात्मक दृष्टि से अधिक अच्छे एवं सुदृढ़ निर्णय लेता है।

(8) नेतृत्व की पथ-लक्ष्य विचारधारा (Path-Goal Approach to Leadership) – नेतृत्व की इस विचारधारा का प्रतिपादन अभी हाल में मार्टिन जी, इवान्स तथा रॉबर्ट जे. हाउस ने किया है। नेतृत्व की पथ-लक्ष्य विचारधारा आशावादी/अभिप्रेरणा शक्ति (Expectancy Valence) मॉडल पर आधारित है। इसके अनुसार एक व्यक्ति की अभिप्रेरणा प्रतिफल (Reward) के आशा तथा उस प्रतिफल की आकर्षक शक्ति पर निर्भर करती है। पथ-लक्ष्य विचारधारा नेता पर प्रतिफल देने के स्रोत के रूप में ध्यान केन्द्रित करती है। यह मानते हुए कि अभिप्रेरणा शक्ति तथा आशा का गुण होता है (अर्थात् अभिप्रेरणा = अभिप्रेरणा-शक्ति xआशा) । नेता का यह कार्य है कि वह अपने अनुयायियों (कर्मचारियों) के लिये अभिप्रेरणा शक्ति तथा आशा का निर्माण करे। नेता  अभिप्रेरणा शक्ति के विकास को प्रोत्साहित करता है। इस प्रकार कर्मचारी लक्ष्य संगठन के साथ जुड़ जाते हैं। नेता लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रतिफलों (Rewards) में वृद्धि कर सकता है। जहाँ तक आशा का प्रश्न है, नेता लक्ष्य की प्राप्ति के लिए रास्ते का निर्माण करता है। इससे कर्मचारी यह देखते हैं कि उनके कार्य उनके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक है। यदि कर्मचारी के लक्ष्य की प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधायें आती हैं तो नेता उन बाधाओं को दूर करते हुए पथ को और भी सरल बनाने का प्रयास करता है। प्रस्तुत विचारधारा यह बताती है कि किस प्रकार से विभिन्न प्रतिफल तथा विभिन्न नेतृत्व के प्रारूप कर्मचारियों की अभिप्रेरणा, निष्पादन तथा सन्तुष्टि को प्रभावित करते हैं। नेतृत्व की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह किस प्रकार से लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के प्रतिफलों को उपलब्ध कराता है, पथ का निर्माण करता है एवं उसमें आने वाली बाधाओं को दूर करता है। इवान्स के अनुसार, इन प्रतिफलों में पारिश्रमिक, पदोन्नति, समर्थन, प्रोत्साहन, सुरक्षा, आदर-सत्कार आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। कर्मचारियों का लक्ष्य इन प्रतिफलों को प्राप्त करना होता है। जिनका सीधा सम्बन्ध संगठन के लक्ष्यों से होता है। नेता का कार्य संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कर्मचारियों को प्रतिफल प्राप्त करने के लिए अभिप्रेरित करना, पथ प्रदर्शित करना तथा पथ के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करना है। जितने अधिक प्रतिफल होंगे एवं पथ सुलभ या, संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति उतनी अधिक शीघ्रता एवं तत्परता से होगी।

(9) नेतृत्व की जीवन-वृत्त विचारधारा (Life-cycle Theory or Approach to Leadership)- नेतृत्व की जीवन-वृत्त विचारधारा का प्रतिपादन अभी हाल में ही पालहर्सी तथा कॉनेथ एच, ब्लेनचार्ड ने किया है। इस विचारधारा के अनुसार सबसे प्रभावी नेतृत्व के स्वरूप का सम्बन्ध कर्मचारियों की परिपक्वता (Maturity) से होता है। उनके अनुसार परिपक्वता से आशय आयु अथवा भावनात्मक स्थायित्व से नहीं है अपितु उपलब्ध करने की इच्छा, उत्तरदायित्व ग्रहण करने की तत्परता, कार्य सम्बन्धी योग्यता तथा अनुभव से है। हर्सी तथा ब्लेनचार्ड के अनुसार नेता तथा उसके अधीनस्थों (कर्मचारियों) के सम्बन्ध चार अवस्थाओं से होकर गुजरते हैं। जैसे-जैसे कर्मचारीगण विकसित एवं परिपक्व होते जाते हैं, नेताओं को अपने नेतृत्व के स्वरूपों में परिवर्तन करना पड़ता है। ये चार अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) प्रारम्भिक अवस्था (Initial Stage)- शुरू में जबकि कर्मचारीगण संस्था में प्रवेश करते हैं, उस समय नेता का उच्च कार्य-अभिमुखी होना सबसे उपयुक्त रहता है। नेता का कार्य कर्मचारियों को उनके कार्य के सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश देना तथा संगठन के नियम, परिपाटी तथा कार्य विधियों से अवगत कराना होता है। ऐसे समय पर निर्देश न देने वाल नेता अपने कर्मचारियों में चिन्ता एवं गड़बड़ उत्पन्न कर सकता है। इसी प्रकार कर्मचारी भागिता सम्बन्धी विचारधारा भी उपयुक्त नहीं है क्योंकि इस अवस्था में जहाँ एक ओर नेता उच्च कार्य अभिमुखी होता है वहाँ दूसरी ओर नेता और उसके कर्मचारियों के साथ के सम्बन्ध निम्न श्रेणी के होते हैं अर्थात् दूर के होते हैं।

(ii) द्वितीय अवस्था – इस अवस्था में आकर कर्मचारी अपना कार्य सीखने लगते हैं। यहाँ पर भी कार्य-अभिमुखी नेतृत्व की आवश्यकता बनी रहती है। इसका कारण यह है कि इस अवस्था में कर्मचारीगण पूर्ण उत्तरदायित्व को ग्रहण करने के लिए न तत्पर होते हैं और न सक्षम ही किन्तु जैसे-जैसे नेता अपने कर्मचारियों से परिचित होता जाता है, उसका विश्वास एवं समर्थन अपने कर्मचारियों में बढ़ने लगता है। नेता अपनी ओर से कर्मचारियों को अपने कार्य में प्रोत्साहन देने लगता है। ऐसी स्थिति में नेता कर्मचारियों के साथ कर्मचारी-अभिमुखी व्यवहार करने लग सकता है।

(iii) तृतीय अवस्था- इस अवस्था में आकर कर्मचारियों की योग्यता, उपलब्धि तथा अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है तथा वे सक्रिय रूप में अधिक उत्तरदायित्व ग्रहण करने लगते हैं। यहाँ पर नेता को निर्देशात्मक बनने की आवश्यकता नहीं हैं (क्योकि निर्देशन का विरोध हो सकता है।)। इस अवस्था में कर्मचारियों को अधिक उत्तरदायित्व ग्रहण करने की शक्ति प्रदान करने हेतु नेता को समर्थक एवं प्रतिफलात्मक रूप अपनाना चाहिए।

(iv) चतुर्थ अवस्था- धीरे-धीरे इस अवस्था में आकर कर्मचारीगण अधिक विश्वसनीय, स्वतः निर्देशक एवं अनुभवी हो जाते हैं। फलतः नेता कर्मचारियों के प्रति समर्थन तथा प्रोत्साहन की मात्रा में कभी कर सकता है। वे स्वयं कार्य करने लगते हैं। अतः इन्हें अपने नेता के साथ निर्देशात्मक सम्बन्धों की न तो आवश्यकता ही रहती है और न वे इसकी आशा ही करते हैं।

नेतृत्व की उपर्युक्त जीवन-वृत्त विचारधारा विशेषतः विकसित देशों में बहुत अधिक लोकप्रिय होती जा रही इसमें नेतृत्व का स्वरूप स्थिर न रहकर गतिशील एवं लोचदार रहता है। नेतृत्व का यह स्वरूप न केवल कर्मचारियों को अभिप्रेरित करता है बल्कि परिपक्वता की ओर बढ़ने में उनकी सहायता भी करता है। वह नेता जो कि अपने अधीनस्थों का विकास करता है, उनके विश्वास में वृद्धि करता है और उन्हें अपने कार्य के सीखने में सहायता प्रदान करता है, अपने नेतृत्व के स्वरूपों में निरन्तर परिवर्तन करता रहता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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