मौर्य साम्राज्य का पतन | मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

मौर्य साम्राज्य का पतन | मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

मौर्य साम्राज्य का पतन

प्रस्तावना- अशोक के शासनकाल में मौर्य साम्राज्य अपने उच्चतम शिखर पर था। सुदूर दक्षिण के राज्यों को छोड़कर सम्पूर्ण भारत और अफगानिस्तान तक यह साम्राज्य फैला हुआ था। 232 ई० पूर्व में अशोक की मृत्यु हुई और 50 वर्षों में ही मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया। अशोक का एक भी उत्तराधिकारी ऐसा योग्य नहीं निकला। जो इसे नष्ट होने से बचाता।

यह इतिहास की एक विडम्बना है कि अशोक और औरंगजेब दोनों को ही अपनी-अपनी धार्मिक नीतियों के कारण अपने पूर्वजों के साम्राज्यों के पतन के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। एक ओर तो अशोक की धार्मिक नीति उदार और प्रशंसनीय थी, परन्तु दूसरी ओर औरंगजेब की धार्मिक नीति अत्यन्त असहिष्णुतापूर्ण थी।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

(Causes of the Downfall of Mauryan Empire)

मौर्य साम्राज्य का पतन कोई आकस्मिक घटना न थी। न ही कोई एक कारण इसके लिए जिम्मेदार था। इसके पतन के लिये भी बहुत से कारण उत्तरदायी थे और उन सबके सामूहिक प्रभावों से उसका अंत हुआ। मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारणों का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है। यथा-

(1) ब्राह्मणों की घृणा और शत्रुता-

पं० हरप्रसाद शास्त्री के मतानुसार, अशोक की ब्राह्मण विरोधी नीति मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थी। उनका तर्क है कि अशोक ने यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगा कर, धर्म महामात्रों की नियुक्ति कर ब्राह्मणों को अपना विरोधी बना लिया। अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाने के बाद इस धर्म के प्रचार के लिए भरपूर राजकीय सहायता दी। उसने जनता को नैतिक शिक्षा देने के लिए धर्म महामात्र नियुक्त किये और विभिन्न स्थानों पर अभिलेख अंकित करवाये। समाज के सब वर्गों को समान समझा जाने लगा। इससे ब्राह्मणों की समाज में जो विशिष्ट स्थिति चली आ रही थी, वह समाप्त हो गई। बहुत से लोग मौर्यों को शूद्र समझते थे। ब्राह्मणों को यह पसन्द नहीं था कि अशोक जैसा शूद्र उन्हें व प्रजा को धार्मिक शिक्षा दे व सर्वोच्च धार्मिक नेता बन जाये। इन कारणों से ब्राह्मण- वर्ग अशोक का शत्रु बन गया और मौर्यो के दुश्मनों में मिल गया।

मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए ब्राह्मणों के उत्तरदायित्व के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि एक ब्राह्मण पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या कर राज्य हड़प लिया था। इससे यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि ब्राह्मणों के विद्रोह से ही मौर्यवंश का शासन समाप्त हुआ।

इस मत की आलोचना- डॉ० राय चौधरी और नीलकंठ शास्त्री आदि ने उपर्युक्त मत का खण्डन करते हुए कहा है कि, बौद्ध होते हुए भी अशोक की अन्य धर्मों के प्रति उदार और सहिष्णुतापूर्ण नीति थी। जिन नैतिक शिक्षाओं का उसने प्रचार किया, वे वैदिक धर्म की विरोधी नहीं थी। अशोक ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों पर कुठाराघाल नहीं करना चाहता था। वह ब्राह्मणों का आदर करता था तथा उनके साथ उदारता का व्यवहार करता था। इसके अतिरिक्त मौर्यों को शूद्र घोषित करना तर्कसंगत नहीं है। अधिकांश विद्वान मौर्यों को क्षत्रिय मानते हैं। अशोक के शासनकाल में ब्राह्मणों ने कभी सक्रिय विरोध नहीं किया था। अशोक की मृत्यु के बाद 50 वर्षों तक मौर्य शासकों का राज्य रहा। पुष्यमित्र ब्राह्मण था, लेकिन फिर भी उसे सेनापति नियुक्त किया गया था। इससे यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मणों का मौर्य सम्राटों द्वारा आदर और विश्वास किया जाता था। पुष्यमित्र ब्राह्मण द्वारा अपने स्वामी की हत्या कर स्वयं सम्राट बन बैठना, एक व्यक्तिगत सत्ता संघर्ष और उसकी स्वयं की महत्त्वाकांक्षा थी।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि पं० हरप्रसाद शास्त्री के तर्क प्रभावशाली नहीं हैं। फिर भी यह मानना होगा कि ब्राह्मणों को मौर्य साम्राज्य में विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे। इसलिए वे मौर्यो से नाराज थे। अतः यह सम्भव है कि ब्राह्मणों ने मौर्य साम्राज्य के पतन में कुछ भाग लिया हो।

(2) अशोक की शान्ति की नीति-

कलिंग विजय के बाद अशोक ने आक्रामक युद्ध बन्द कर दिये थे। साम्राज्य की समस्त शक्ति और साधन लोक-हित और धर्म प्रचार में लगा दी गई थी। आखेट, पशु-बलि आदि बन्द कर दिये गये थे और उदारता तथा सहिष्णुता अशोक के शासन के आधार बन गये। इस नीति ने सैनिकों के उत्साह को बहुत कम कर दिया था। प्रो० बनर्जी के मतानुसार, “अशोक के आदर्शवाद और धार्मिक भावना ने सेना के अनुशासन को कड़ी चोट पहुँचाई।” डॉ० जायसवाल का कथम है कि “अशोक वास्तव में एक मठाधीश होने के योग्य था।” अशोक की इस प्रकार की नीति के कुपरिणाम उसके उत्तराधिकारियों को भुगतने पड़े। यह नीति वास्तव में मौर्य साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई।

डॉ० हेमचन्द्रराय चौधरी का कथन है कि “अशोक ने अपने पूर्वजों की उग्र सैनिक नीति  का परित्याग कर दिया था और धर्म विजय की नीति को अपना लिया था, जिससे उसके साम्राज्य की सैनिक कुशलता पर बुरा प्रभाव पड़ा।” डॉ० विमलचन्द्र पाण्डेय के अनुसार, “अशोक की अहिंसात्मक तथा धर्म प्रचारात्मक नीति ने साम्राज्य की सैनिक शक्ति को नितान्त क्षीण कर दिया था।” डॉ० राजबली पाण्डेय का कथन है कि, “अशोक की नीति से मौर्य सेना और राजनीति दुर्बल हो गई। अशोक के महान् व्यक्तित्व के उठ जाने पर सैनिक दृष्टि से दुर्बल और राजनीतिक कूटनीति में असावधान भारत पर विदेशियों के आक्रमण शुरू हो गए।”

इस मत की आलोचना- इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जो सिद्ध करते हैं कि हिंसा और शक्ति पर आधारित साम्राज्य भी नष्ट हो गए, जैसे मुगल, मराठा आदि। अशोक के शासनकाल में आन्तरिक शान्ति बनी रही थी और बाह्य आक्रमण भी नहीं हुए थे। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने सैनिक बल को भुला दिया हो। उसके शासन में विद्रोह का न होना और जनता द्वारा सुरक्षा और शान्तिपूर्ण जीवन बिताना, यही सिद्ध करता है कि अशोक की अहिंसा की नीति मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी नहीं थी। डॉ० रोमिला थापर के अनुसार, “अशोक की शान्तिवादी नीति मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी नहीं थी।’ दोनों पक्षों के विद्वानों के तर्कों का अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अशोक की अहिंसावादी नीति के कारण मौर्य सम्राटों का सैन्य-संगठन दुर्बल हो गया था। अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारी मौर्य साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख सके। अतः अशोक की अहिंसावादी एवं शान्तिवादी नीति मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए आंशिक रूप से उत्तरदायी है।

(3) साम्राज्य की विशालता-

अशोक के द्वारा छोड़े गये साम्राज्य की विशालता को भी मौर्य साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण माना जाता है। उत्तर-पश्चिम और दक्षिण के प्रान्तों को पूर्व में स्थित राजधानी पाटलिपुत्र से नियन्त्रित करना कठिन था। उस समय यातायात के साधनों का समुचित विकास नहीं हुआ था। फलस्वरूप उन प्रदेशों के राज्यपाल स्वतन्त्र होने के लिए विद्रोह करने लगे।

इस विचार के विपक्ष में कहा जा सकता है कि साम्राज्य तो अशोक के समय में भी विशाल था और यातायात के उस समय में भी अच्छे साधन नहीं थे फिर भी साम्राज्य पूर्णतः नियन्त्रित था। पतन का वास्तविक कारण तो अशोक के उत्तराधिकारियों का निर्बल होना था।

(4) केन्द्रीय शासन की दुर्बलता-

अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय में केन्द्रीय सरकार निर्बल हो गई। केन्द्रीय सरकार की दुर्बलता का लाभ उठाकर अनेक प्रान्तों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। कल्हण के अनुसार अशोक की मृत्यु के बाद उसके एक पुत्र जालौक के काश्मीर में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। तारानाथ के अनुसार वीरसेन नामक राजकुमार ने गान्धार में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी मौर्य साम्राज्य से पृथक् हो गया। इस प्रकार अनेक प्रान्तों के स्वतन्त्र हो जाने से मौर्य साम्राज्य पतन की ओर बढ़ने लगा।

(5) अत्याचारी शासन-

प्रांतीय अधिकारी तो अत्याचारी थे ही, किन्तु कुछ मौर्य-सम्राट भी अपनी प्रजा पर अत्याचार करते थे। शालिशुक नामक मौर्य-सम्राट बड़ा अत्याचारी था। अपने एक वर्ष के शासन में उसने अपनी प्रजा पर बड़े अत्याचार किये। इस प्रकार मौर्य शासक ऐसे कार्यों के कारण जनता में अपनी लोकप्रियता को खो चुके थे।

(6) करों की अधिकता-

चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना के लिए एक विशाल सेना का गठन किया था। जिसे नकद वेतन देना पड़ता था। उसे साम्राज्य विस्तार के लिए अनेक युद्ध लड़ने पड़े। अतः विविध खचों की पूर्ति के लिए उसे अपनी प्रजा पर भारी कर लगाने पड़े। इन भारी करों के कारण भी जनता में असन्तोष था।

(7) राजकोष की रिक्तता-

अशोक ने बौद्ध-संघ को बहुत अधिक दान दिया था। उसने लोकहित के कार्यों, शिलालेखों, स्तम्भों, विहारों आदि के निर्माण पर अपार धनराशि खर्च की थी। उसके इन कार्यों से राजकोष खाली हो गया। अनेक प्रान्तों के मौर्य-साम्राज्य के हाथों से निकल जाने के कारण भी साम्राज्य की आय घट गई। धन के अभाव के कारण प्रशासन शिथिल पड़ने लगा और साम्राज्य को स्थिर रखना सम्भव नहीं रहा।

(8) राष्ट्रीय एकता का अभाव-

डॉ० रोमिला थापर के मतानुसार मौर्य साम्राज्य में राष्ट्रीय एकता का अभाव था, इसलिए इसका पतन होना अनिवार्य था। सम्पूर्ण साम्राज्य में समान रीति-रिवाज, समान भाषा तथा समान ऐतिहासिक परम्परा का अभाव था। जनता में राष्ट्रीय चेतना का अभाव था। इस स्थिति में मौर्य साम्राज्य का पतन होना स्वाभाविक था।

(9) दरबार में गुटबन्दी-

मौर्यों के दरबार में गुटबन्दी व्याप्त थी। साम्राज्य के मंत्री और उञ्चाधिकारी अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त राष्ट्रीय हितों को भूल कर आपसी गुटबन्दी में लगे रहते थे। बिन्दुसार की मृत्यु के उपरान्त मौर्य राज-दरबार दो विरोधी पक्षों में विभाजित हो गया और उसके परिणामस्वरूप गृह-युद्ध हुआ। अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ के समय में भी दरबार दो दलों में बँट गया था। एक सेनापति पुष्यमित्र का तथा दूसरा मन्त्री का। इससे स्पष्ट होता है कि दरबार की गुटबन्दी के कारण साम्राज्य का विघटन होने लगा।

(10) गृह-कलह-

अशोक के कई रानियाँ और पुत्र-पुत्रियाँ थीं। अशोक स्वयं तो निःस्वार्थी, उदार और सहिष्णु प्रवृत्ति का था। लेकिन उसके परिवार में स्वार्थपरता, वैमनस्य और ईर्ष्या का वातावरण था। इन कलहों में राज्य के अधिकारी और दरबारी भी शामिल हो गये थे। इसके फलस्वरूप अशोक के शासनकाल के अन्तिम दिनों में दलबन्दी और षड्यन्त्र आरम्भ हो गये, उनका शासन शिथिल पड़ गया और साम्राज्य की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँची। ऐसे वातावरण को अशोक का शक्तिशाली व्यक्तित्व तो नियन्त्रित रख सका, लेकिन उसके निर्बल उत्तराधिकारी ऐसा करने में असफल रहे।

(11) अयोग्य उत्तराधिकारी-

चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार और अशोक महान् विजेता और कुशल प्रशासक थे। उन्होंने अपनी योग्यता और चतुरता से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर दी थी और इसे पूर्ण नियन्त्रण में भी रखा था। अपने दृढ़ शासन से विद्रोहों को दबाये रखा और कुशल शासन में जनता को सन्तुष्ट रखा था। अशोक के साम्राज्य की सीमायें इतनी विशाल हो गई थीं कि सुसंगठित और सुव्यवस्थित शासन द्वारा ही उनको सुरक्षित रखा जा सकता था। अशोक का कोई उत्तराधिकारी इतना योग्य और शक्तिशाली नहीं निकला, जो इस विशाल साम्राज्य को भली-भाँति सम्भाल सकता, इससे साम्राज्य धीरे-धीरे पतन की ओर बढ़ने लगा।

(12) कर्मचारियों द्वारा अधिकारों का दुरुपयोग-

अशोक का साम्राज्य बहुत विशाल हो गया था और वह स्वयं धार्मिक कृत्यों में बहुत व्यस्त रहता था। इससे नौकरशाही को अपनी मनमानी करने का अवसर मिलने लगा। वे अपने अधिकारों का दुरुपयोग और जनहितों की उपेक्षा करने लगे। इससे जनता में असन्तोष फैलने लगा। अशोक के जीवित रहते तो यह असन्तोष दबा रहा, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद वह विद्रोह का रूप लेने लगा। राजधानी के दूर के प्रान्तों के राज्यपाल जनता पर अत्याचार करने लगे थे। स्वयं अशोक के काल में जनता ने इन अत्याचारों से तंग आकर तक्षशिला आदि में विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया था। अशोक ने स्वयं अपने पुत्र कुणाल को इन विद्रोहों को दबाने के लिए भेजा था। कलिंग और उज्जैन में भी राज्यपालों के विरुद्ध विद्रोह हुए थे। इन सब बातों ने साम्राज्य को निर्बल कर दिया और उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची।

(13) गुप्तचर विभाग का निर्बल हो जाना-

सैन्य-शक्ति निर्बल हो जाने के साथ-साथ साम्राज्य का गुप्तचर विभाग भी निर्बल हो गया था। चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार के समय यह विभाग अत्यन्त सुसंगठित और सुव्यवस्थित था और राज्य की सुरक्षा का एक प्रभावपूर्ण तथा शक्तिशाली साधन था, परन्तु अशोक के काल में ही यह विभाग उपेक्षित-सा होने लगा था। इतने विशाल साम्राज्य के दूर प्रान्तों के षड्यन्त्रों या असन्तोष का पता लगाने के लिए एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग का होना अनिवार्य था। इस प्रकार मौर्य-साम्राज्य के पतन का एक कारण उसके गुप्तचर विभाग का निर्बल होना था।

(14) विदेशी आक्रमण-

अशोक की मृत्यु के बाद यूनानियों ने फिर सिर उठाना आरम्भ कर दिया और उन्होंने साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी भागों पर कई आक्रमण किये। इन आक्रमणों के कोई ठोस प्रमाण तो उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु यूनानी लेखक पोलीबियस की पुस्तक और ‘गार्गी-संहिता’ में इनका उल्लेख है। सैन्य-शक्ति निर्बल हो जाने के कारण अशोक के उत्तराधिकारियों को सम्भवतः कई पराजयों का मुख देखना पड़ा होगा और इससे साम्राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा होगा।

(15) राजनीतिक संगठन के दोष-

मौर्य साम्राज्य एक निरंकुश राजतन्त्र था। सम्पूर्ण शक्ति सम्राट के हाथ में केन्द्रित थी। ऐसी शासन प्रणाली का मुख्य दोष यह है कि एक शक्तिशाली और योग्य शासक ही साम्राज्य को नियन्त्रण में रख सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि एक योग्य और शक्तिशाली सम्राट के उत्तराधिकारी भी उतने ही योग्य और शक्तिशाली हों। इतिहास के पन्ने ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जबकि शक्तिशाली और योग्य शासक के निकम्मे उत्तराधिकारी साम्राज्य के विनाश के कारण बन गये, जैसे बाबर, शिवाजी, रणजीतसिंह आदि के उत्तराधिकारी। मौर्य साम्राज्य के केवल प्रथम तीन सम्राट ही योग्य और शक्तिशाली थे।

इसी के साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शक्तिशाली शासक ही साम्राज्य के प्रान्तों के प्रान्तपालों को नियन्त्रित रख सकते थे और उनकी विद्रोह की प्रवृत्ति का दमन कर सकते थे। अशोक की मृत्यु के बाद साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तपालों ने विद्रोह करना आरम्भ कर दिया और धीरे-धीरे कवे स्वतन्त्र शासक बन बैठे।

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