संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

प्रबन्ध में नैतिक आयाम अवधारणा का अर्थ | प्रबन्ध में नैतिक आयाम की विभिन्न अवधारणाएँ

प्रबन्ध में नैतिक आयाम अवधारणा का अर्थ | प्रबन्ध में नैतिक आयाम की विभिन्न अवधारणाएँ | Meaning of Ethical Perspective in Management in Hindi | Different Ethical Perspective Concept in Management in Hindi

प्रबन्ध में नैतिक आयाम अवधारणा का अर्थ

(Meaning of Ethical Perspective in Management)

प्रबन्ध में नैतिक आयाम की अवधारणा को स्पष्ट करने से पूर्व ‘नैतिक’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करना आवश्यक है। नैतिक से आशय चरित्र आचरण, परामार्शिक विश्वास प्रमापों अथवा आदर्शों से है जोकि किसी समूह, समुदाय तथा लोगों में विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक पेशे अथवा समूह की अपनी-अपनी आचार संहिता होती है जिसका वह पालन करेगा ऐसी आशा की जाती है। समय- समय पर इस आचार संहिता में पुनर्विचार एवं आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधन होते रहते हैं। एक समय था जबकि व्यवसाय में लाभ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। व्यवसाय का एकमात्र लक्ष्य येन-केन तरीकों से अधिकतम लाभ कमाना होता था किन्तु वर्तमान शैक्षिक, जनतान्त्रिक एवं सामाजिक युग में ग्राहक सेवा पर अधिकतम ध्यान दिया जा रहा है। व्यवसायी ग्राहक सेवा के माध्यम से लाभ कमाता है। डेविस तथा फ्रेडरिक (Davis and Frederick) के अनुसार, “नैतिक शब्द का सामान्यतः आश्य उन नियमों अथवा सिद्धान्तों से लगाया जाता है जोकि सही एंव गलत आचरण को परिभाषित करते हैं।”

प्रबन्ध में नैतिक आयाम अवधारणा से आशय प्रबन्धकीय नीतियों, चरित्र, आचरण, कर्मचारी एवं प्रबन्ध सम्बन्धों तथा अन्य सभी वर्गों के प्रति नैतिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने से हैं यह अवधारणा विभिन्न पक्षों के प्रति प्रबन्धकीय आचरण में सत्य, न्याय, कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को सर्वोपरि प्राथमिकता देती है। यह व्यवसाय के विभिन्न पहलुओं, जैसे- कार्य समूहों की अपेक्षाएँ, समाज की अपेक्षाएँ, स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा, सही विज्ञापन, सही एवं गलत की पहचान, सामाजिक उत्तरदायित्व, उपभोक्ता स्वायत्तता, व्यापक मार्गदर्शिका, क्या किया जाय और क्या नहीं किया जाय की पहचान, निगमीय व्यवहार, आचार संहिता आदि को नैतिक दृष्टि से देखती है।

प्रबन्ध में नैतिक आयाम की विभिन्न अवधारणाएँ

(Different Ethical Perspective Concept in Management)

आजकल प्रबन्ध के क्षेत्र में विभिन्न नैतिक आयाम अवधारणाएँ प्रचलन में हैं। उनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

(1) उपयोगितावादी अवधारणा (Utilitarian Concept)- उपयोगितावादी अवधारणा के अनुसार प्रबन्ध अपने कार्यों का निष्पादन करते समय इस बात पर सर्वोच्च ध्यान देता है कि उसकी क्रियाओं के द्वारा सभी पक्षों को लाभ हो, चाहे कर्मचारी हो, पूर्तिकर्ता हो, स्वामी हो अथवा उपभोक्ता हो। सभी के हित में उसका भी हित निहित है। प्रबन्ध इस अवधारणा के परिणामस्वरूप कर्मचारियों को कार्य करने का स्वस्थ पर्यावरण मिलता है, पूर्ण क्षमता से कार्य करने का अवसर मिलता है, पारिश्रमिक तथा विभिन्न प्रेरणाओं में वृद्धि होती है, उत्पादन एवं उत्पादकता की मात्रा दोनों में वृद्धि होती है तथा किस्म में सुधार होता है जिसके परिणामस्वरूप उपभोक्ताओं को पर्याप्त मात्रा में सस्ता, सुन्दर व टिकाऊ माल उपभोग करने के लिए मिलता है, सरकार को व्यवसाय से अधिक कर मिलता है जिसके कारण वह कल्याणकारी कार्यों पर अधिक धन खर्च कर सकती है और अन्ततः स्वामियों को अपनी विनियोजित पूँजी पर अधिक प्रत्याय प्राप्त होता है।

(2) न्याय अवधारणा (Justice Concept)- इस अवधारणा के अनुसार प्रबन्ध अपने निर्णय एवं व्यवहार में सभी के साथ निष्पक्षतापूर्वक एवं इमानदारी के साथ नियमों, प्रथाओं एवं मानवीय दृष्टिकोण को लागू करने पर बल देता है। इसमें कर्मचारियों के हितों व लाभों, उपभोक्ताओं के हितों, मानवीय मामलों, वित्तीय मामलों आदि में प्रबन्ध द्वारा निष्पक्ष एवं न्यायोचित व्यवहार एवं आचरण करने पर बल दिया जाता है। नैतिक आयाम के किसी भी आयाम का तुरन्त पता लगाया जाता है, दोषी को दण्डित किया जाता है तथा भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो, इसकी औरपक्की रोकथाम की जाती है। उदाहरण के लिए, विज्ञापन एवं प्रचार में सत्यता होनी चाहिए। उसमें ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए जिसमें धोखा हो अर्थात् जो सत्य हो । यदि किसी वस्तु या सेवा के पक्षउपयोग से हानि हो सकती है तो उसका उल्लेख वस्तु के पैकेजिंग पर अवश्य होना चाहिए।

(3) अधिकार अवधारणा (Right Concept)- इस अवधारण के अनुसार प्रबन्ध करव्यावसायिक संस्था में कार्यरत सभी पक्षकारों के अधिकारों की सुरक्षा पर बल देता है। इसमें कार्यरत व्यक्तियों की स्वतन्त्रताओं, विचार अभिव्यक्तियों, विशेषाधिकारों कार्यक्षेत्र की सीमाओं, न्यायोचित प्रक्रिया आदि का ध्यान रखा जाता है। वह अवधारणा विद्यमान नियमों-उप-नियमों, कार्यविधियों, प्रथाओं आदि का पालन करने के लिए प्रबन्ध को बाध्य करती है।

(4) क्या सही है और क्या गलत अवधरणा (What is Right and What is Wrong Concept)- यह अवधारणा इस बात पर बल देती है कि प्रबन्ध को इस बात की पहचान होनी चाहिए कि उपक्रम में जो हो रहा है, उसमें से क्या गलत है और क्या सही है। इस अवधारणा के अनुसार जो गलत कार्य हो रहा है, उसे न केवल रोका जाना चाहिये वरन् गलत कार्य करने वाले को समुचित ढंग से दण्डित भी किया जाना चाहिए, ताकि भाविष्य में कोई उसको पुनरावृत्ति करने का हिम्मत न कर सके। साथ सुधारात्मक कदम बनाये जाने चाहिये ताकि भविष्य में किसी को गलत कार्य करने का अवसर ही न मिल सके। इसके विपरीत, जो सही कार्य हो रहा है, उनका न केवल स्वागत करना चाहिए अपितु मौद्रिक तथा अमौद्रिक विधियों द्वारा अभिप्रेरित किया जाना चाहिए, ताकि दूसरों के लिए वह मार्गदर्शन सिद्ध हो।

(5) आचार संहिता अवधारणा (Code of Conduct Concept)- इस अवधारणा के अनुसार प्रबन्ध को नैतिक नियमों एवं सिद्धान्तों पर आधारित एक आचार संहिता का निर्माण करना चाहिए और उसे प्रभावी ढंग से प्रबन्ध के सभी स्तरों पर लागू करना चाहिए। यह सभी पर समान रूप में लागू की जानी चाहिए। किसी के साथ पक्षपात करने का कोई अवसर नहीं दिया जाना चाहिए। आचार संहिता की अवहेलना करने वालों को समुचित रूप में दण्डित किया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में कोई व्यक्ति उसकी अवहेलना करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। ध्यान रहे कि नैतिक नियमों एवं सिद्धान्तों पर आधारित आचार संहिता केवल फाइलों तक सीमित नहीं रहनी  चाहिए अपितु उसका व्यावहारिक रूप में पालन किया जाना चाहिए। इसके लिए संस्था में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति उसके प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। यह उस संस्था की ‘समामेलित संस्कृति’ (Corporate Culture) में होनी चाहिए।

(6) व्यापक मार्गदर्शिकाएँ अवधारणा (Broad Guidelines Concept) – प्रबन्धकीय नैतिक आयाम अवधारणा व्यापक मार्गदर्शिकाओं वाली अवधारणा पर आधारित होनी चाहिए- आर्थात् क्या हो रहा है? (What is being done?) क्या होना चाहिए (What should be done?) और क्या नहीं होना चाहिए? (What should not be done)। इस अवधारणा के अनुसार, उपक्रम में जो हो रहा है, प्रबन्ध को न केवल उसका दर्शक मात्र होना चाहिए अपितु उसे इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि वास्तव में क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए। उसे मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यावसायिक भी होना चाहिए। जो होना चाहिए, उसे कराना चाहिए और जो नहीं होना चाहिए, उसे तुरन्त रोका जाना चाहिए। प्रबन्ध को सदैव अपनी आँखें खुली रखनी चाहिए। प्रबन्ध को अपने कार्यों एवं निर्णयों में विभिन्न नैतिक दुर्बलताओं एवं धर्मसंकटों का सामना करना पड़ सकता है। उसे बड़े साहस, विश्वास, निष्ठा, लगन एवं ईमानदारी के साथ इन नैतिक दुर्बलताओं एवं संकटों का सामना करना चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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