शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा में व्यय के स्त्रोत कौन कौन से हैं? | आय के स्रोतों से इनकी तुलना

शिक्षा में व्यय के स्त्रोत कौन कौन से हैं? | आय के स्रोतों से इनकी तुलना | शिक्षा में व्यय के स्त्रोत

शैक्षिक व्यय के स्रोत (Sources of Educational Expenditure)-

यह सर्वविदित है कि शिक्षा शैक्षिक परिस्थितियों के अनुरूप ही होती है। देश की सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव शिक्षा पर पड़ता है तथा शिक्षा की आवश्यकता पर ही शिक्षा की महत्ता भी निश्चित होती है। आज के इस युग में शिक्षा की अत्यधिक माँग है परन्तु भारत जैसे गरीब देश में प्रत्येक के लिए सुलभ नहीं है। जो धन शिक्षण संस्थाओं को प्राप्त होता है उसका व्यय इस प्रकार किया जाता है।

(1) शिक्षकों के वेतन (2) शिक्षालय के भवन निर्माण (3) पुस्तकालय, (4) शैक्षिक सामग्री के जुटाने में, (5) अन्य आवश्यक व्यय जैसे- खेल का सामान, फर्नीचर चाक, रजिस्टर,डाक व्यय आदि में।

शैक्षिक आय का स्रोत ( Sources of Educational Expenditure) –

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था से पूर्व वास्तव में शिक्षा व्यय को पूरा करने के लिए हमारे यहाँ जो साधन थे वे मुख्यतः सम्पत्ति, विभिन्न लोगों से प्राप्त धन, भेंट उपहार आदि। किन्तु यह साधन भी एक प्रकार से स्थायी रूप में न थे जिसके आधार पर शिक्षा को व्यवस्थिति रूप दिया जा सकता हैं। अत: यह सोचा गया कि शिक्षा व्यय जब तक व्यवस्थित रूप से संगठित करना सम्भव न होगा तब तक यह आशा करना भी कि हम शिक्षा को व्यवस्थित रूप में ला सकते हैं, उचित न होगा 1854 से पूर्व तक यही स्थिति बनी रही और 1854 में शिक्षा के संगठन में परिवर्तन हुआ। उस समय जो आर्थिक सहायता के मुख्य स्रोत थे उनमें से मुख्य निम्न हैं-

  1. मिशनरीज- जो विदेशी धन को शिक्षा व्यवस्था के लिए लागती थी।
  2. सरकारी स्रोत (Government Sources)

भारतीयों के निजी प्रयास (Own efforts of Indian)-

वास्तव में शिक्षा के बढ़ते हुए व्यय को देखकर ही सरकार ने आर्थिक सहायता करना शुरू किया किन्तु शिक्षा की माँग में निरन्तर वृद्धि होने लगी थी और शिक्षा व्यय को पूरा करने में कठिनाई होने लगी और तभी फीस के द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया । निजी प्रयास द्वारा संचालित स्कूलों के लिए यह अनिवार्य शर्त रखी गयी कि उन्हें आर्थिक सहायता तभी प्राप्त होती जबकि वे फीस द्वारा आर्थिक सहायता का लाभ उठाने का निश्चय करेंगे। इस प्रकार शीघ्र ही शिक्षा व्यय के अन्य स्रोतों में यह एक महत्वपूर्ण साधन अथवा संगठन बन गया इसी प्रकार स्थानीय स्तर पर भी शिक्षा व्यय को पूरा करने के लिए आर्थिक स्रोत का संगठन किया गया जो गाँव में स्थानीय फण्ड और नगरों में म्यूनिसिपल फण्ड के रूप में संगठित किए गये थे। ब्रिटिश शासन काल में आर्थिक दान, भेंट व सम्पत्ति से प्राप्त धन को अन्य स्रोतों में सम्मिलित किया गया जिसके अन्तर्गत निजी रूप से व्यक्तियों से प्राप्त धार्मिक व उदार प्रवृत्ति वाले ट्रस्टों से प्राप्त आर्थिक सहायता आदि को भी सम्मिलित किया गया। इस तरह ब्रिटिश शासल काल में जो शिक्षा के व्यय को पूरा करने के लिए आर्थिक स्त्रोतों थे, थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ ही आज भी वे स्रोत के मुख्य रूप से इस प्रकार हैं-

(1) सरकारी फण्ड अथवा सरकारी सहायता

(2) ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्थानीय फण्ड

(3) नगरों के लिए म्यूनिसिपल फण्ड

(4) फीस

(5) अन्य स्त्रोत।

(1) सरकारी फण्ड (Government Fund)-

सरकारी स्रोत से प्राप्त सहायता को पुनः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(i) एक तो वह आर्थिक सहायता जो केन्द्रीय सरकार शिक्षा के ऊपर अपनी राष्ट्रीय आय में से निश्चित प्रतिशत के अनुसार खर्च करती है। ऐसा अनुमान है कि केन्द्रीय सरकार अपनी राष्ट्रीय आय का लगभग 2.3 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करती है और यह प्रयत्न है कि इस प्रतिशत को बढ़ाकर चतुर्थ योजना की समाप्ति तक 7.6 प्रतिशत अवश्य कर लिया जायेगा।

(ii) दूसरा राज्य में शिक्षा का जो व्यय होता है। वह दो प्रकार से पूरा किया जाता है-

(अ) केन्द्रीय सरकार से प्राप्त सहायता द्वारा

(ब) राज्य के आय के निर्धारित प्रतिशत द्वारा शिक्षा व्यय को पूरा किया जाता है।

यद्यपि राज्यों में इस दृष्टि से विभिन्नता देखने को मिलती है क्योंकि हर राज्य आवश्यकताओं को अपने दृष्टिकोण से महत्व प्रदान करता है, और उसी के अनुसार राज्य से प्राप्त आय को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में बाँटता हैं। यही कारण है कि राज्य जो कि शिक्षा को अन्य बातों से सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान देते है वे शिक्षा पर अधिक से अधिक अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपनी आय के खर्च करने का प्रयत्न करते हैं और इसी कारण किसी क्षेत्र में शिक्षा व्यवस्था अधिक उन्नत रूप में दिखाई देती है जबकि किन्ही क्षेत्रों में अन्य की अपेक्षा कम उन्नत पायी जाती है।

(2) स्थानीय फण्ड और म्यूनिसिपल फण्ड ( Local & Municipal Fund)-

स्थानीय स्त्रोतों को 3 स्रोतों से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है।

(1) ये सरकारी स्रोत से प्राप्त होती थी व अभी किन्ही क्षेत्रों से प्राप्त होती है।

(2) वे विभिन्न क्षेत्रों में कर निर्धारित करती है।

(3) जो जमीन आदि से अथवा विभिन्न उत्सवों आदि के लिए स्थानीय भवन आदि देने से जो आय प्राप्त होती है उसके द्वारा भी वे अपने व्यय को पूरा करने का प्रयत्न करती हैं। इन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आय को मुख्य रूप से स्थानीय सरकार अपने आवश्यक कार्यों के ऊपर बाँट लेती है। जैसे स्वास्थ्य विभाग आवागमन के साधन् व शिक्षा विभाग भी इसमें सम्मिलित है। स्थानीय संस्थायें लगभग सभी राज्यों में अपनी कुल आय का 10 प्रतिशत म्युनिसिपल बोर्ड लगभग 49 प्रतिशत डिस्ट्रिक बोर्ड शिक्षा पर खर्च करता रहा है।

(3) फीस (Fee)-

इससे प्राप्त आय अधिक न थी यद्यपि बाद मे यह शिक्षा व्यय का अच्छा आर्थिक साधन बन गया था किन्तु शीघ्र ही इसमें धीर-धीरे कमी होने लगी। क्योंकि इस बात पर जोर दिया जाने लगा कि प्राइमरी शिक्षा का प्रसार अनिवार्य रूप से होना चाहिए जिसे नि:शुल्क कर देना चाहिए और यही कारण था कि इन साधनों से प्राप्त ,तय में कमी होना तब से शुरू हो गयी और इस स्तर पर इस साधन द्वारा प्राप्त आय का कोई प्रश्न ही नहीं रह गया। कोठारी कमीशन ने यहाँ तक सिफारिश की है कि उच्च शिक्षा में पाँचवीं योजना तक सभी विद्यालयों को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि कुछ प्रतिशत इसके लिए भी निर्धारित किया जाये कि विद्यार्थियों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जा सके और आगमी 10 वर्षों में कम से कम 30 प्रतिशत उच्च शिक्षा में भी निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। जैसा कि उपलब्ध अंकों से प्राप्त हुआ है। 1956 में इससे प्राप्त आय 20 प्रतिशत थी, 1965 में यह 15 प्रतिशत तथा 1970,80,90 तथा सन् 2000 में क्रमशः 10 प्रतिशत , 12 प्रतिशत, 15 प्रतिशत तथा 11 प्रतिशत रह गयी और इसे देखते हुए यह आशा की जाती है कि भविष्य में इसका प्रतिशत और भी न्यूनतम हो जायेगा।

(4) अन्य स्रोत्र (Other Sources)-

इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की सम्पत्ति से उपलब्ध आय, विभिन्न लोगों से प्राप्त की हुई भेंट, उपहार या आर्थिक दान आदि सम्मिलित किए जाते है। प्राचीन काल में जब कि आर्थिक सहायता के अन्य साधन उपलब्ध न थे तब शिक्षा व्यय के लिए इन साधन का महत्व था किन्तु आजकल इतनी विस्तृत शिक्षा व्यवस्थाओं को देखकर तथा समाज की आर्थिक कठिनाइयों को देखते हुए यह सोचना कि यह साधन शिक्षा व्यय को पूरा करने के लिए सशक्त है, ठीक नहीं मालूम पड़ता। वैसे भी इसका प्रयोग तभी सम्भव है जबकि समाज को हम इसके लिए प्रोत्साहित कर सकें, तथा शिक्षा व्यवस्था में उनकी रुचि बढ़ा सकें इससे स्पष्ट है कि आंजकल पहले की तुलना में लगभग 25 प्रतिशत इससे लाभ होता था, जबकि 1960-91 में यह केवल 11 प्रतिशत ही रह गया और 1965-66 में यह 5 प्रतिशत तथा 1995 में यह 3.87 प्रतिशत रह गया। अतः आजकल इसका प्रतिशत न के बराबर कहा जा सकता है क्योंकि शिक्षा व्यवस्था उस काल से कहीं अधिक आज बढ़ चुकी हैं।

(5) शैक्षिक कर या चुंगी (Educational Cass)-

इसके अन्तर्गत शिक्षा पर पड़ते व्यय को पूरा करने के लिए सामुदायिक अथवा समाज पर कुछ उत्तरदायित्व रखने का प्रयत्न किया जाता है। बढ़ते हुए शिक्षा व्यय को देखते हुए यह अनुभव किया गया कि केवल केन्द्रीय व राज्य सरकार शिक्षा व्यय को पूरा करने में सफल नहीं हो सकती जब तक कि स्थानीय स्तर पर इसके लिए प्रयत्न न किया जाये। अत: सामान्या रूप से यह सोचा गया कि स्थानीय सरकार को भी इसके लिए सामान्य कर लगाना चाहिए। जिसे गाँव में कृषि भूमि पर लगाया जा सकता है और नगरों में औद्योगिक कम्पनियों आदि में लगाया जा सकता है। कई राज्यों ने इस प्रकार के प्रयोग अपने यहाँ किए हैं जिससे कि यह शिक्षा व्यय के लिए आर्थिक साधन को उपलब्ध करने में सफल भी हुए हैं। अत: आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को यदि हम उचित रूप से संगठित करना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि इस स्तर पर भी आर्थिक स्रोत को संगठित करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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