परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ठ | अवहट्ठ की विशेषताएं | अवहट्ट भाषा की भाषिक विशेषताएँ | अवहट्ट भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ

परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ठ | अवहट्ठ की विशेषताएं | अवहट्ट भाषा की भाषिक विशेषताएँ | अवहट्ट भाषा की व्याकरणिक विशेषताएँ

परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ठ

प्राकृत-अपभ्रंश के रचनाकारों ने अपभ्रंश के लिए अवहसे, अवर्भस, अवहत्य आदि शब्दों का प्रयोग किया है। ये प्रयोग पाया बारहवीं शताब्दी के पूर्व के हैं। बारहवीं शताब्दी के बाद के अपभ्रंश रचनाकारों ने अपनी काव्य भाषा को अवहट्ठ कहा है। ज्योतिरीश्वर ठाकुर वर्णरत्नाकार’ में छह भाषाओं को जाननेवाले भाट का जिक्र करते हैं। ‘पुनु कइसन भाट, संस्कृत, पराकृत, अवहट्ठ, पैशाची, शौरसैनी, मागधी छहु भाषक तत्त्वज्ञ, इन छह भाषाओं में अवहट्ठ का उल्लेख विचारणीय है। प्राकृतपैलम, के टीकाकार वंशीधर ने प्राकृतपैंगलम् की भाषा को अवहट्ठ माना है। ‘यया भाषा अयं प्रन्यो रचितः सा अवहट्ठ भाषा’। संदेशरासक के रचयिता अद्दहमाण चार प्रमुख काव्य भाषाओं का उल्लेख करते हैं-अवहट्ठ, सक्कय पाइयमि, पेसाइयंमि भासाए लक्खण छन्दाहरणे सुकइत्तं भूसियं जेहिं । विद्यापति कहते हैं-

सक्कय वाणी बुहअन भावइ

पाउअ रस को मम्म न पावइ

देसिल बअना सब जन मिट्ठा

तं तैसन जम्पओ अवहट्ठा।

उपर्युक्त अवहट्ट के सभी प्रयोग अपभ्रंश के स्थान पर ही या अपभ्रंश के लिए किए गए हैं। अवहट्ठ शब्द के मूल में संस्कृत शब्द अपभ्रष्ट है। प का विकार व के रूप में हुआ और ष्ट >ट्ठ में परिवर्तित हुआ है। पालि-प्राकृत के ध्वनि परिवर्तन के नियमों में निर्दिष्ट किया जा चुका है कि यदि संयुक्त व्यंजन में ऊष्म व्यंजन (स, ष, श) होता है तो वह अगली ध्वनि में ह को प्रविष्ट कर जाता है, ट में ह मिलकर फिर द्वित्व हुआ-ट्+ह-ट्ठ। महाप्राण मध्यग व्यंजन भ का ह हो गया है। अर्थ की दृष्टि से अवहंस तथा अवहट्ठ में कोई अन्तर नहीं है। उल्लेख किया जा चुका है अवहट्ट का प्रयोग परवर्ती रचनाकारों द्वारा ही किया गया है। इस प्रयोग के पीछे क्या उनका कोई नया मंतव्य या अभिप्राय हैं अथवा अनायास ही ऐसा किया है। डॉ० शिवप्रसाद सिंह का विचार है कि इससे सहज अनुमान किया जा सकता है कि अवहट्ठा शब्द पीछे का है और इसका प्रयोग परवर्ती अपभ्रंश के कवियों ने पूर्ववर्ती अपभ्रंश की तुलना में थोड़ी परिवर्तित भाषा के लिए किया।

अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्येताओं ने प्रायः अवहस तथा अवहट्ट को अलग मानकर अध्ययन नहीं किया है। इन्हें पूर्ववर्ती तथा परवर्ती अपभ्रंश कहने से भी मूल मान्यता में कोई फर्क नहीं पड़ता है।

अपभ्रंश भाषा आरम्भ से ही शब्द ग्रहण एवं व्याकरण की दृष्टि से उदार थी। अपनी इसी उदारता के कारण यह संस्कृत प्राकृत की परिनिष्ठत परम्परा से विचलित होकर लोक परम्पराओं की ओर मुड़ती गई। बारहवीं शताब्दी तक परिनिष्ठित अपभ्रंश ग्राम्यं अपभ्रंश की अपेक्षा कुछ भित्र हो गई थी। साहित्यिक भाषा लोक तत्वों को ग्रहण तो करती है किन्तु उसमें सहज-स्वच्छन्द विकास की उतनी गुंजायश नहीं रहती। साहित्य-सृजन की प्रक्रिया में भाषा स्थिर एवं परिनिष्ठित होती जाती है। हेमचन्द्र के समय तक अपभ्रंश भाषा का रूप बहुत कुछ स्थिर हो गया था। हेमचन्द्र ने व्याकरण लिखकर अपभ्रंश को स्थिर करने में विशेष सहयोग किया। मोटेतौर से बारहवीं शताब्दी तक (दसवीं के अंतिम तक भी कहा जा सकता है) अपभ्रंश का प्रयोग स्वाभाविक रीति से हुआ।

भारतीय आर्यभाषा के इतिहास अथवा विकास की दृष्टि से परवर्ती अपभ्रंश का यह देश्यमिश्रित साहित्य विशेष महत्व का है और सच्चे अर्थों में परवर्ती अपभ्रंश’ यही है, परिनिष्ठित अपभ्रंश में लोक भाषा या क्षेत्रीय भाषा की परिवर्तित ध्वनियों एवं शब्दों, तथा व्याकरणिक रूपों के समावेश से जो काव्यभाषा निर्मित हुई उसे ही परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ट कहा गया है।

अवहट्ठ की विशेषताएं

ध्वनि-व्यवस्था- अवहट्ट की ध्वनि-व्यवस्था अपभ्रंश के लगभग समान ही है । स्वरों में मुख्यतः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ, ए, ओ के ही प्रयोग होते रहे। संयुक्त स्वर ऐ, औ क्रमशः ए, ओ अथवा अइ, अउ रूप में ही स्वीकृत हैं। चर्यागीर्ति कोश, कीर्तिलता में ए, औ के यथावत प्रयोग मिल जाते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि आधुनिक हिन्दी में ए, और स्वरों का जो प्रचलन हुआ है उनकी स्थिति अवहट्ट काल में भी थी। इनका उच्चारण अइ अउ था जैसा कि वर्तमान अवधी में है अथवा मूल स्वर अए, अओ जैसा ब्रजभाषा में है। सिद्धों की सन्धा भाषा पर विचार करते हुए डॉ० मंगलबिहारी शरण सिन्हा ने इन्हें आ०भा० आर्यभाषा के ए, औ के समान बताया है। इससे उच्चारण सम्बन्धी भ्रम का निवारण नहीं हो पाता। कीर्तिलता में भुववै, तैसना, बोले, करा, चौहट्ठ आदि शब्दों में एक, और के जो प्रयोग हैं। वे सम्भवतः अइ, अउ को ही-सूचित करते हैं। ऋ तत्सम  शब्दों में लिखा जाता है किन्तु उच्चारण रि हो गया था। जैसे—मृगी। अधिकांशतः ऋका रूपान्तर अ, आ, इ, उ में ही हुआ है-जैसे-तृतीय तइला, कृष्ण काण्ह, गृह >गिह, तृण तिन, तिण, दृष्टि > दिछि, पुच्छ > पुच्छ। विसर्ग के स्थान पर ओ, उ दोनों मिलते हैं, जैसे—आरद्दो, पसिद्धो, चंदणु, मडलु।

क्षतिपूरक दीर्धीकरण- प्राकृत अपभ्रंश में प्रा0भा0आ0 भाषा के संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर द्वित्व व्यंजन हो गए थे। जैसे—कार्य > कज्ज, नृत्य > णच्च। अवहट्ठ में द्वित्व व्यंजन का समीकरण एवं सरलीकरण हुआ।

‘द्वित्व व्यंजन के अर्धांश को हटाकर केवल एक को सुरक्षित रखा गया। व्यंजन की इस क्षति की पूर्ति पूर्व स्वर को दीर्घ करके की गई। इसी प्रक्रिया को क्षतिपूरक दीर्धीकरण कहा गया है। अवहट्ट की यह सर्वप्रमुख विशेषता है, जैसे-मित्र > मित्त > मीत, निश्वास > निस्सास > नीसास, ईश्वर > इस्सर > ईसर। क्षतिपूरक दीर्धीकरण का प्रभाव पूर्ववर्ती स्वरों के अलावा परवर्ती स्वरों पर भी पड़ा है। जैसे- गुल्म > गुमा, रत्न > रअणा।

सानुनासिकता- अवहट्ट में सानुनासिकता की प्रवृत्ति बढ़ गई है। उच्चारण में अनुस्वार को भी ह्रस्व करके पूर्व स्वर को दीर्घ किया गया। जैसे-अञ्चल > आंचल, अंग > आंग, चन्द्र > चांद। सानुनासिकता का प्रभाव इतना अधिक था कि सम्पूर्ण शब्द में कोई भी ध्वनि सानुनासिक न होने पर भी अनुनासिकता लाई गई; जैसे-अक्षि > आँखि, अश्रु > अंसू, उत्साह > उंच्छाह। आरम्भिक हिन्दी पर अवहट्ट की इस प्रवृत्ति का गहरा असर पड़ा। जूल ब्लाक का विचार है कि अकारण सानुनासिकता की प्रवृत्ति दीर्घ स्वर के बाद र अथवा ऊष्म वर्ण या महाप्राण ओष्ठ्य स्पर्श व्यंजन के होने पर होती है।

स्वर-संकोचन या स्वर-सन्धि- शब्द मध्यग व्यंजनों क, ग, च, ज, त, द, ए, य, व के लोप के कारण जो स्वर शेष रहते थे उन्हें सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता था। अपभ्रंश तक उनकी अन्य स्वरों के साथ प्रायः सन्धि नहीं करते थे। अवहट्ठ काल तक सामान्यतः संप्रयुक्त स्वरों की सन्धि की जाने लगी, जैसे-अन्धकार > अन्धआर > अन्धार, उतिष्ठ > उइष्ठ >   ऊठ, उपवास > उपआस > उपास, स्वर्णकार > सुण्ण्आर > सुण्णार।

व्यंजन व्यवस्था- अवहट्ट में व्यंजनों की व्यवस्था लगभग वैसी ही है जैसी अपभ्रंश में, किन्तु लोक भाषाओं के प्रभाव के कारण कुछ ऐसे व्यंजनों का महत्व पुन: बढ़ गया जिन्हें कई शताब्दियों तक उपेक्षित कर दिया गया था। प्राकृत अपभ्रंश में ङ् और ब वर्गाधीन व्यंजनों के केवल अनुस्वार के द्वारा सूचित किया जाता था। इसीलिए अपभ्रंश भाषा के विद्वानों ने व्यंजनों की गणना करते समय ङ् ञ को छोड़ दिया है। अवहट्ट में ङ् और ब का व्यवहार प्रमुखता से होने लमा था। सिद्धों की सन्धा भाषा तथा कीर्तिलता में इनके व्यवहार हुए हैं। जैसे-भङ्ग, शंङ्क। पूर्वी भाषाओं में अब भी ङ ध्वनि अपने शुद्ध रूप में उच्चरित होती है। इसी तरह पूर्वी अवहट्ट में ब की भी प्रबलता परिलक्षित होती है। कीर्तिलता में सभी अनुनासिक स्वरों के लिए ब का ही इस्तेमाल किया गया है; जैसे-जानि, गाजो, बेहा, आदि।

पद विचार

वचन- अवहट्ठ में अपभ्रंश की तरह वचन दो हैं-एकवचन और बहुवचन। दो को सूचित करने के लिए दुइ, वेवि आदि संख्यावाची शब्दों के प्रयोग किए जाते हैं। अवहह में एकवचन तथा बहुवचन के भेद को भी गम्भीरता के साथ मान्यता नहीं दी गई हैं। एकवचन के स्थान पर बहुवचन तथा बहुवचन के स्थान पर एकवचन के प्रयोग आसानी से देखे जा सकते हैं । लुप्त-विभक्तिक प्रयोग में वचन का निर्णय क्रिया-रूपों के आधार पर ही सम्भव हो पाता है।

लिंग

भाषा में लिंग निर्णय की जटिलता प्रा0भा0आ0 भाषा काल से ही चली आ रही है। इस जटिलता से मुक्त होने की चेष्टा लगातार लोक में चलती रही। हेमचन्द्र के समय तक विकसित अपभ्रंश में लिंग-व्यवस्था पर्याप्त अनियमित हो गई थीं, अवहट्ठ में नपुंसक लिंग की स्थिति प्रायः नष्ट हो गई है। कुछ प्रयोगों को अपवाद ही माना जा सकता है। संदेशरासक में नपुंसक के प्रयोग मिल जाते हैं ।जैसे-गिरितरुवराई, रिक्खाईं। कीर्तिलता में लिंग सम्बन्धी लचीलापन एवं अस्थिरता सहज ही द्रष्टव्य हैं।

विभक्तिक-रूप

अवहट्ठ में प्रातिपादिक पालि-प्राकृत-अपभ्रंश की तरह स्वरान्त ही हैं। इसमें अ, आ, इ, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ आदि स्वरों से अन्त होनेवाले प्रतिपादिक मिलते हैं, इनमें अकारान्त रूपों की प्रबलता है। इकारान्त और उकारान्त रूपों को भी अकारान्त में ढालने का यल हुआ है, जैसे—गुरु > गरुअ, लक्ष्मी > लच्छि।

अवहट्ट में विभक्तियों की विभिन्नता बहुत कम हो गई है। एक ही विभक्ति भिन्न-भिन्न कारकों में प्रयुक्त होती है। कर्म, सम्प्रदान, करण, अपादान कारकों में भी एकीकरण होने लगा। ए विभक्ति जो तृतीया तथा सप्तमी के लिए प्रयुक्त होती थी कर्म तथा सम्प्रदान के लिए भी सिद्धों के द्वारा प्रयुक्त की गई हैं। जैसे—चित्ते, सुणे, दुःखे (दुख को)।

सम्बन्ध- परिनिष्ठ अपभ्रंश में सम्बन्ध के लिए केरए और तण मुख्यतः दो परसर्ग मिलते हैं। अवहट्ट में केर के विकसित रूप क, का, के, को, की मिलने लगते हैं।

केर से एर और अर या र विकसित हुए जो सिद्धों की भाषा में प्रयुक्त मिलते हैं। बंगला, उड़िया, असमी में इन्हें स्वीकृति मिली है।

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