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प्रतीक का उद्भव एंव विकास | प्रतीक का अर्थ | प्रतीकों का वर्गीकरण | प्रतीक योजना का आधार | काव्य में प्रतीकों का महत्व

प्रतीक का उद्भव एंव विकास | प्रतीक का अर्थ | प्रतीकों का वर्गीकरण | प्रतीक योजना का आधार | काव्य में प्रतीकों का महत्व

प्रतीक का उद्भव एंव विकास

काव्य में प्रतीक के उद्भव एवं विकास के विषय में भी लोगों के मत समान नहीं हैं। कुछ उन्हें  उतना ही प्राचीन मानने के पक्ष में हैं जितना काव्य-साहित्य और कुछ विद्वानों का विचार है कि ‘प्रतीकवाद’ सन् 1885 ई० में फ्रांस में नयी कविता धारा के रूप में विकसित होकर आया। वैज्ञानिक उन्नति के परिणामस्वरूप जब यूरोप में प्रभाववाद एवं प्राकृतवाद का जन्म हुआ और इन वादों में साहित्य को यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रदान किया तो इसकी प्रतिक्रियास्वरूप साहित्य में आदर्शवाद का प्रादुर्भाव हुआ जिसने प्रतीकवाद को सहायता प्रदान कर विकसित होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। प्रतीकवाद का जन्म होने पर काव्य में रूढ़ियों का परित्याग करके नये-नये मोहक प्रयोग हुए। इन लोगों की दृष्टि सौन्दर्यवादी थी और इन्होंने ‘कला, कला के लिए’ का नारा दिया किन्तु यूरोप में इसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं रहा।

हिन्दी साहित्य में प्रतीकवाद यूरोप के प्रभाव से आया और छायावादी कवियों ने परम्पराओं को त्यागकर अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्रतीक के नवीन प्रयोग किये।

प्रतीक का अर्थ

प्रतीक शब्द का सामान्य अर्थ है अवयव, अंग, पता, चिह्न, निशान और कभी-कभी संकेत भी होता है। किन्तु साहित्य में अथवा काव्य में इसका प्रयोग कुछ विशिष्ट अर्थ में होता है। इस विशिष्ट अर्थ को आधार मानकर हिन्दी के अनेक विद्वानों ने ‘प्रतीक’ शब्द की परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें से कुछ प्रमुखं इस प्रकार हैं-

  1. आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘किसी देवता का प्रतीक सामने आने पर जिस प्रकार उसके स्वरूप और विभूति की भावना चट से मन में आ जाती है, उसी प्रकार काव्य में आयी हुई कुछ वस्तुएं विश्व मनोविकारों या भावनाओं को जागृत कर देती है। जैसे कमल माधुर्यपूर्ण कोमल सौन्दर्य की भावना जागृत करता है। कुमुदिनी, शुभ्र हासकी, चन्द्रमा, मृदुल आभा की, ‘समुद्र’ प्राचुर्य विस्तार एवं गम्भीरता की, ‘आकाश’ सूक्ष्मता और अनन्तता की। इसी प्रकार सर्प से क्रूरता और कुटिलता का, ‘अग्नि’ से तेज और क्रोध की वाणी से वाणी या विद्या का ‘चातक’ से निःस्वार्थ प्रेम का संकेत मिलता है।

कैसिरर के अनुसार, ‘प्रतीक मनुष्य की आवश्यकता एवं प्रयोजन के अनुसार रूप ग्रहण करते हैं। प्रतीक वास्तविक का एक आयाम नहीं, अपितु वास्तविकता है। प्रतीक में वस्तु तथा बिम्ब के बीच पूर्ण तादात्म्य की स्थिति रहती है।’ कैसिरर ने मनुष्य को एक प्रतीक निर्माता एवं एकमात्र प्रतीक निर्माता प्राणी बतलाया है—’Man is the symbol making animal, the only such animal.’

प्रतीकों का वर्गीकरण

विभिन्न विद्वानों ने प्रतीकों का वर्गीकरण अनेक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर किया है। पाश्चात्य समीक्षक डब्ल्यू० एम० अर्बन प्रतीकों के निम्न भेद मानते हैं-

(1) परम्परा मुक्त या स्वच्छन्द प्रतीक (Extrinsic or Arbitrary symbol),

(2) वास्तविक या व्याख्यापरक प्रतीक (Intense or Descriptive symbols),

(3) अन्तदृष्टिपरक प्रतीक (Insight symbols)

इनकी व्याख्या करते हुए वे आगे कहते हैं कि प्रथम वर्ग में आने वाले प्रतीक सरल एवं सुबोध होते हैं, इनमें कला और विज्ञान दोनों का ही समावेश हो जाता है। धार्मिक सम्प्रदायों में प्रचलित प्रतीक भी इसी वर्ग में आते हैं। सम्बन्ध-सूत्र स्थापना ही इनका विशेष कारण है। व्याख्यापरक अथवा वास्तविक प्रतीक केवल सम्पर्क सूत्र ही नहीं जोड़ता अपितु प्रतीकेय के साथ उसका आन्तरिक सम्बन्ध भी स्थापित करता है। धर्म एवं कला के क्षेत्र में ऐसे प्रतीकों का प्रयोग बाहुल्य देखा जाता है। अन्तदृष्टिपरक प्रतीक योजना उपर्युक्त दोनों प्रकारों से पृथक् हैं। ये सदैव वास्तविक प्रतीक होते हैं और प्रतीकेय से आन्तरिक सम्बन्ध रखते हैं। काव्य एवं धर्म के क्षेत्र में इनका प्रयोग किया जाता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मनोविकारों एवं मनोभावों के आधार पर दो प्रकार की प्रतीक-योजना का उल्लेख करते है-मनोभावों को जगाने वाले तथा विचारों को जगाने वाले। डॉ0 प्रेमनारायण शुक्ल ने चार प्रकार के प्रतीकों का उल्लेख किया है-

(1) व्यक्तिगत प्रतीक,

(2) परम्परागत प्रतीक,

(3) देशगत प्रतीक,

(4) युगगत प्रतीक।

इस प्रकार काव्यों में नानाविध प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। समीक्षकों ने उसके अनेक भेद-प्रभेद निरूपित किये हैं, जिन्हें निम्नलिखित पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) प्राकृतिक प्रतीक,

(2) सांस्कृतिक प्रतीक,

(3) ऐतिहासिक प्रतीक,

(4) जीवन-व्यापार सम्बन्धी प्रतीक,

(5) शास्त्रीय प्रतीक।

प्राकृतिक-प्रतीक- कवि जब प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से किसी भावना का प्रतिनिधित्व करता है, तो वहाँ प्राकृतिक प्रतीक ोता है। जैसे-

‘प्रिय यामिनी जागी।

अलस पंकज-दृग अरुण-मुख

तरुण अनुरागी।’

सांस्कृतिक प्रतीक- जहाँ किसी देश या जाति की संस्कृति से सम्बन्धित शब्दों के द्वारा प्रतीक योजना होती है, उसे सांस्कृतिक प्रतीक कहा जाता है। यह तीन प्रकार के होते हैं-संस्कार सम्बन्धी, पौराणिक एवं आध्यात्मिक। यथा-

संस्कार सम्बन्धी-

‘दुलहिनी गावहु मंगला चार।

हम घर आए राजा राम भरतार।।’

पौराणिक प्रतीक-

‘द्रौपदी औ गनिका-गज गीध

अजामिल जो कियौ सो न निहारो।’

आध्यात्मिक प्रतीक- ‘मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।

मुक्ता हल मुक्ता चुने, अब उड़ि अनत न जाहि।।’

ऐतिहासिक-प्रतीक- जब कभी किसी ऐतिहासिक घटना या व्यक्ति को प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया जाता है वहाँ ऐतिहासिक प्रतीक होता है। जैसे—चित्तौड़ जौहर का, शिवाजी-स्वातन्त्र्य भावनाओं का और कालिदास कवियों के प्रतीक माने जाते हैं-

‘कितनी द्रुपदाओं के बाल खुले, कितनी कलियों का अन्त हुआ।

रे हृदय खोल चित्तौड़ बता, कितने दिन ज्वाल बसंत हुआ।”

जीवन-व्यापार सम्बन्धी प्रतीक- कवि जब जीवन के अनेक व्यापारों एवं क्रियाओं को लेकर प्रतीक योजना करता है, उन प्रतीकों को इसी श्रेणी में रखा जाता है। यथा-

‘मैं की मेरी चेतना सबको ही स्पर्श किये सी।

सब भिन्न परिस्थितियों की मादक घुट पिए सी।।’

शास्त्रीय-प्रतीक- जब प्रतीकों का चयन विभिन्न शास्त्रों, राजनीति, दर्शन, मनोविज्ञान, गणित, विज्ञान आदि से किया जाता है, वहाँ शास्त्रीय प्रतीक होते हैं। यथा–

‘एक दिन सहसा, सूरज निकला।

अरे क्षितिज पर नहीं, नगर के चौक।

धूप बरसी, पर अन्तरिक्ष से नहीं।

फटी मिट्टी से।’

अमेरिका ने जापान पर द्वितीय विश्व युद्ध में नागासाकी और हीरोशिमा पर अणुवम गिराकर जो नर-संहार किया था, उसी का वर्णन कवि ने यहाँ शास्त्रीय प्रतीकों के माध्यम से किया है।

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रतीकों का प्रयोग भी कवि करता है जिनमें पारम्परित-प्रतीक राष्ट्रीय-प्रतीक, सार्वभौम-प्रतीक, देशगत-प्रतीक, विचारात्मक-प्रतीक, एकोन्मुखी, रूपकात्मक, अन्योक्तमूलक और लक्षणमूलक प्रतीक उल्लेखनीय हैं।

प्रतीक योजना का आधार-

काव्य में प्रतीक योजना का मूलाधार साम्य भावना होती है जो तीन रूपों में लक्षित होती है-

(1) रूप या आकार की समानता (सादृश्य विधान)।

(2) गुण या क्रिया की समानता (साधर्म्य-विधान)।

(3) शब्द साम्य।

इनमें पहले दो अधिक प्रभावी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। तीसरे का प्रभाव अधिक भावोन्मेषशाली नहीं होता, क्योंकि इसमें मात्र श्लेष अलंकार की योजना करके अर्थ चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। सादृश्य एवं साधर्म्य विधान ही इनमें विशिष्ट प्रयोग माने जाते हैं।

काव्य में प्रतीकों का महत्व

प्रतीक योजना का क्षेत्र विस्तृत होने के कारण, काव्य में प्रतीक योजना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मानव-जीवन एवं भिन्न परिस्थितियों, जीवन की समग्न क्रियाएँ और प्रक्रियाएँ प्रतीकात्मक होती हैं। अतएव काव्यों में प्रतीकों की स्थिति अपरिहार्य है। प्रतीक योजना का महत्त्व स्पष्ट करते हए. अर्नेस्ट केसिनर का यह कथन सत्य है, ‘Man lives in symbolic universe. Language, myth and religion are parts of this universe. The are the varied threads which veave the symbolic net, the tangled web of human experience.’ मानव प्रतीकमय विश्व में निवास करता है। भाषा, मिथक, धर्म, विश्व के ही अंग हैं। ये ऐसे धागे हैं जिन्होंने विश्व का प्रतीकात्मक जाल बुना है। अनेस्ट साइमन स्वीकार करते हैं कि ‘भाषा, विज्ञान, धर्म, साहित्य, दर्शन आदि सभी में प्रतीक-योजना को महत्त्व दिया गया है। भाषा वैज्ञानिक तो यहाँ तक स्वीकार करते हैं कि भाषा का आदि रूप प्रतीकात्मक ही था।’ ‘Symbolism began with the first words uttered by first man, as he named every living thing or before then in heaven God named the world being.’

प्रतीक किसी सूक्ष्म एवं जटिल भाव्या विचार को व्यक्त करने का सशक्त साधन है। भाव का संपूर्ण जीवन प्रतीकों से परिपूर्ण है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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