प्रबन्ध पर परिवर्तनों के प्रभाव

प्रबन्ध पर परिवर्तनों के प्रभाव | प्रबन्ध पर बाह्य परिवर्तनों का प्रभाव | प्रबन्ध पर आन्तरिक परिवर्तन का प्रभाव

प्रबन्ध पर परिवर्तनों के प्रभाव | प्रबन्ध पर बाह्य परिवर्तनों का प्रभाव | प्रबन्ध पर आन्तरिक परिवर्तन का प्रभाव | Effects of Changes on Management in Hindi | Effect of external changes on management in Hindi | Effect of internal change on management in Hindi

प्रबन्ध पर आन्तरिक और बाह्य परिवर्तनों के प्रभावों का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार किया गया है-

प्रबन्ध पर बाह्य परिवर्तनों का प्रभाव

  1. आर्थिक परिवर्तन ये परिवर्तन निम्न कोई भी रूप ले सकते हैं-

(अ) आर्थिक नियोजन के परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आय एवं राष्ट्रीय आय में तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति में परिवर्तन हो सकते हैं। ऐसे परिवर्तनों का बाजार के स्वभाव एवं विस्तार पर प्रभाव पड़ना आवश्यक है। राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने से नये-नये कारखानों, नयी-नयी विधियों और नये-नये उत्पादों के लिये माँग बढ़ जायेगी। अतः प्रबन्धकों का कर्त्तव्य है कि परिवर्तन की दशा का अनुमान लगायें और तदनुसार ही अपने कार्य-कलापों को समायोजित करें।

(ब) मुद्रा प्रसार एक वृद्धिशील अर्थ-व्यवस्था का चिन्ह है बशर्ते कि इसका समुचित प्रबन्ध एवं नियन्त्रण किया जाये। प्रबन्धकों के लिये वह एक वरदान सिद्ध हो सकता है और एक अभिशाप भी। अतः प्रबन्धकों को चाहिये कि मुद्रा प्रसार के कारण होने वाली लागत, वृद्धियों के प्रति सावधान रहें और ऊंची माँग के रूप में ऐसे आर्थिक परिवर्तन के जो सुप्रभाव प्रकट होते हैं उनका पूरा-पूरा लाभ उठायें।

(स) पूंजी बाजार, कच्चे माल के बाजार, पूँजीगत समान के बाजार में होने वाले परिवर्तनों और माँग सम्बन्धी परिवर्तनों का भी अध्ययन सावधानी से करना चाहिये, जिससे कि उनके अनुरूप समुचित समायोजन किया जा सके।

(द) शहरीकरण बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण का परिणाम है। लोगों की उपयोग सम्बन्धी आदतों पर शहरीकरण का जो प्रभाव पड़ता है वह भी प्रबन्धकों के लिये अध्ययन का उपयोगी विषय है।

(य) नर्कसे के प्रदर्शन प्रभाव सम्बन्धी विचार के अनुसार पश्चिम के द्रुतगामी आर्थिक परिवर्तन पूर्वी देशों की अर्थ-व्यवस्था पर भी अपना प्रभाव डाल सकते हैं। ऐसे व्यापक प्रभावों का कल्पनात्मक अनुमान लगाना एवं अध्ययन करना प्रगतिशील प्रबन्ध का एक आवश्यक गुण होता है।

  1. समाजशास्त्रीय परिवर्तन- प्रौद्योगिक प्रगतियों के समाजशास्त्रीय अभाव वाले क्षेत्र निम्न हैं- (i) कार्य के प्रति अभिप्ररेणा में परिवर्तन होना, (ii) बढ़ा हुआ समूह साहचर्य, (iii) घटी हुई व्यक्तिगत सन्तुष्टि, (iv) सांस्कृतिक स्थायित्व में विघ्न पड़ेगा, (v) जीवन स्तर में एक स्पष्ट वृद्धि होना, (vi) कठोर प्रशासकीय व्यवस्था का विघटन, (vii) विश्वव्यापी-व्यावसायिक प्रवृत्ति, (viii) व्यवसाय में सार्वजनिक उत्तरदायित्व को स्वीकार करना, (ix) विकसित एवं विकासोन्मुख देशों में बढ़ती हुई दरार और (x) स्वतन्त्रं, प्रौद्योगिकी के प्रभाव से व्यापक मुक्ति। औद्योगिकी के समाजशास्त्रीय प्रभाव ने सामूहिक तनाव, शक्ति एवं साहचर्य को बढ़ाने के साथ-साथ कारखाने में, घरों में, मनोरंजन में और अन्य किसी भी काम-काज में, जिसे व्यक्ति अपनायें, व्यक्ति के सन्तुष्टि प्राप्ति के असवरों को घटा दिया है। शहरीकरण बढ़ती हुई क्रय शक्ति, उपभोग के बदलते हुए स्वरूप आदि माँग की दिशा प्रभाव डालते हैं। प्रगतिशील प्रबन्ध को चाहिये कि इन घटकों का अध्ययन करें फिर इनके अनुरूप अपनी कम्पनी के कार्य-कलापों को ढालें।
  2. सरकार सम्बन्धी परिवर्तन- इस शीर्ष के अधीन अग्र प्रकार के परिवर्तनों को सम्मिलित किया जा सकता है- (i) सरकार के स्वभाव में परिवर्तन राष्ट्रीय या विदेशी सरकार बनाना, (ii) सरकार की नीतियाँ, (iii) सरकार की आर्थिक योजनाएँ, (iv) प्रशुल्क एवं मौद्रिक नीतियाँ, (v) निर्यात एवं आयात प्रतिबन्ध, (vi) सरकारी कर्मचारी वर्ग। औद्योगिक प्रबन्ध को इससे सम्बन्धित परिवर्तनों का सावधानी से अध्ययन करना चाहिये और तदनुसार अपनी नीतियों को समायोजित करते रहना चाहिये।
  3. स्थिति सम्बन्धी परिवर्तन- ये परिवर्तन औद्योगिक इकाई की स्थापना से सम्बन्ध रखते हैं, और इनमें निम्न एक या सभी घटक सम्मिलित हैं- (i) श्रम,(ii) बाजार (iii) औद्योगिक शक्ति एवं अन्य सुविधाएँ, (iv) परिवहन एवं संचार के साधन, (v) जलपूर्ति के स्रोत, (vi) कच्चे माल के स्रोत, (vii) आवास सुविधाएँ, (viii) राजकीय अधिकारियों की मनोधारणाएँ (ix) स्थानीय कानून एवं नियम तथा (x) क्षेत्रीय असन्तुलन।
  4. प्रौद्योगिक परिवर्तन- भारी प्रौद्योगिक प्रगति का एक प्रत्यक्ष प्रभाव कार्य के प्रति श्रमिकों की साधारणा एवं अभिप्रेरणा में परिवर्तन होता है। “कार्य ही पूजा है” का परम्परागत सिद्धान्त अब धीरे-धीरे नये श्रमिकों द्वारा अस्वीकार किया जाने लगा है। प्रौद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप उद्योग की उत्पादकता बहुत बढ़ गयी है और जनसाधारण का बौद्धिक क्षितिज बहुत व्यापक बन गया है, किन्तु इसके साथ ही साथ आधुनिक, तकनीकी कौशल एवं कम्प्यूटर विज्ञान ने श्रम समस्या को कुप्रभावित किया है। प्रबन्धकों को ऐसे परिवर्तनों से सतर्क रहना चाहिये।

प्रबन्ध पर आन्तरिक परिवर्तन का प्रभाव

  1. प्रबन्धकीय परिवर्तन- प्रबन्ध सम्बन्धी विभिन्न परिवर्तन निम्न हैं- (i) प्रबन्ध के स्वरूप में परिवर्तन होना, (ii) शीर्षक कार्यवाहकों में परिवर्तन होना, (iii) सेविवर्गीय नीति में परिवर्तन, (iv) संगठन चार्ट में परिवर्तन एवं (v) प्रबन्ध के गुण में परिवर्तन।
  2. परिचालन सम्बन्धी परिवर्तन- प्रबन्ध पर इसके प्रभाव के सम्बन्ध में निम्न बातों को दृष्टिगत रखना चाहिये- (i) ले-आउट एवं इसका सुधार, (ii) विपणि सर्वेक्षण, (iii) लाभप्रदता का अनुपात, (iv) विनियोग सम्बन्धी सर्वेक्षण, (v) भर्ती एवं प्रशिक्षण नीतियाँ, (vi) मजदूरों का भुगतान करने का ढंग, (vii) परिवहन एवं संचार की सुविधाएँ, (viii) अन्य असुविधाएँ, जैसे- जल, शक्ति एवं भाप आदि (ix) लाइसेन्सिंग एवं (x) प्रबन्धकीय निपुणता एवं विकास।
  3. प्रवृद्धि एवं विकास सम्बन्धी परिवर्तन- प्रवृद्धि के क्षेत्र में जिन परिवर्तनों से हमें निपटना पड़ेगा, वे निम्न से सम्बन्ध रखते हैं- (i) वित्त व्यवस्था, (ii) विनियोग सम्बन्धी निर्णय, (iii) विपणि स्थायित्व (iv) सामाजिक आर्थिक पूर्वानुमान एवं सर्वेक्षण, (v) लाइसेन्सिंग क्षमता, (vi) विदेशी विनियम एवं (vii) प्रबन्धकीय निपुणता।
  4. संयन्त्र सम्बन्धी परिवर्तन- इस क्षेत्र में प्रबन्ध पर जिन परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है, वे निम्न घटकों से सम्बन्धित हैं- (i) ले आउट, (ii) सेवाएँ जैसे- शक्ति, ईधन, गैस, भाप, पानी वायु- अनुकूलन नमी-रक्षा, धूल-रक्षा, आद्रीकरण आदि, (iii) निपुण श्रम, (iv) निपुण पर्यवेक्षण, (v) असुरक्षा, (vi) अप्रचलन श्रम विस्थापन, (vii) मजदूरी प्रणाली एवं (ix) सुरक्षा प्रावधान।
  5. विधियों, प्रक्रियाओं एवं डिजायन में परिवर्तन- इन परिवर्तनों के प्रति भी सावधान रहना प्रबन्धक के लिए परमावश्यक है।
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