व्यूहरचनात्मक प्रबंधन / Strategic Management

व्यावसायिक पर्यावरण की अवधारणा | पर्यावरण के अवयव | आन्तरिक पर्यावरण | बाह्य पर्यावरण

व्यावसायिक पर्यावरण की अवधारणा | पर्यावरण के अवयव | आन्तरिक पर्यावरण | बाह्य पर्यावरण | Concept of Business Environment in Hindi | Components of Environment in Hindi | Internal environment in Hindi | External environment in Hindi

व्यावसायिक पर्यावरण की अवधारणा

(Concept of Environment)

एक व्यवसाय का अस्तित्व स्थायी स्थानों, वस्तुओं, प्राकृतिक साधनों तथा महत्वपूर्ण सिद्धान्तों एवं जीवित व्यक्तियों से निर्मित होता है। इन सब तत्वों एवं शक्तियों के योग को ही व्यावसायिक वातावरण या पर्यावरण कहते हैं।

रेनकी एवं शॉल के अनुसार, “व्यावसायिक पर्यावरण उन समस्त बाह्य घटकों का योग है जिनके प्रति व्यवसाय अपने को अनावृत करता है तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है।“

प्रो० आर०एल० पाटनी के अनुसार, “व्यावसायिक पर्यावरण से आशय उन समस्त बाह्य शक्तियों से है जो व्यवसाय कार्य को प्रभावित करती हैं।”

व्यवसाय एक समूहवाचक शब्द है जो ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक आदि अनेक परिस्थितियों तथा वातावरण के सम्मिश्रण एवं संयोग से उत्पन्न हुआ है। यह सत्य है कि सभी व्यावसायिक क्रियाएँ समाज के परिवेश में ही सम्पन्न की जाती हैं। अतः कोई भी व्यावसायिक क्रिया मनुष्य विहीन रेगिस्तान या जंगल में सम्पन्न नहीं की जा सकती। व्यवसाय एक निश्चित समाज में ही पलता और पनपता है अर्थात् व्यवसाय का पालन-पोषण समाज के अन्दर रहकर ही होता है। समाज ही व्यवसाय को निर्माण कार्य करने के लिए कच्चा माल, मानव शक्ति और पूँजी प्रदान करता है, जिसके बदले समाज की आशाओं एवं आंकाक्षाओं को पूरा करना व्यवसाय का कर्तव्य हो जाता है। अतः आर्थिक एवं व्यावसायिक सम्बन्धों का ही दूसरा नाम व्यवसाय है। मनोविज्ञान और समाजशास्त्र मानवीय सम्बन्धों को उचित दिशा प्रदान करने में सहायता करते हैं। व्यवसाय में राजकीय हस्तक्षेप की प्रकृति एवं उसके सम्भावित परिणामों को जानने और उनके अनुसार कार्य करने में राजनीतिशास्त्र हमें दिशा प्रदान करता है। व्यवसाय प्रणाली के विभिन्न अंगों के पारस्परिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का निर्धारण विधि शास्त्र द्वारा किया जाता है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि व्यवसाय के विकास पर उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक वातावरण का पूर्ण प्रभाव पड़ता है और उन्हीं की छत्र-छाया में वह फलता-फूलता है। व्यवसाय सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मूल्यों, सिद्धान्तों, संरचनाओं एवं मानकों का विकास करने में भी सहायक होता है। पेशेवर प्रबन्धकों के आगमन से अनेक परिवर्तन हुए हैं। व्यवसाय के बढ़ते हुए सरकारीकरण से राजनीतिक तन्त्र, राजकीय नीतियों एवं सरकार के कार्यों में परिवर्तन हो रहे हैं। अनेक नये व्यावसायिक मूल्यों का विकास हो रहा है, जैसे- औद्योगिक प्रजातन्त्र, बहुराष्ट्रीय निगम, संयुक्त क्षेत्र, कल्याणकारी राज्य आदि । निजी क्षेत्र द्वारा राजनीतिक नीतियों एवं विचारधाराओं का पालन न किये जाने के कारण सरकार स्वयं व्यवसायी बनकर आवश्यक परिवर्तन लाने की दिशा में कार्यरत एवं प्रयत्नशील है।

पर्यावरण के अवयव-

पर्यावरण के अवयव को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) आन्तरिक पर्यावरण, (2) नाह्य पर्यावरण। इनका विवेचन निम्नलिखित है-

(I) आन्तरिक पर्यावरण (Internal Environment)

प्रत्येक सार्थक संगठन के कुछ लक्ष्य, उद्देश्य या योजनाएँ होती हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए व्यूह रचना की जाती है। व्यूह रचना का अर्थ है कि संगठन का पर्यावरण के अनुकूल रखना अर्थात् कोई भी व्यूह संगठन की पर्यावरण के अनुकूल होना चाहिए। उपलब्ध पर्यावरण के प्रतिकूल बनायी गयी कोई भी व्यूह रचना सफल नहीं हो सकती है। कभी-कभी व्यवसाय के बाह्य पर्यावरणको ही व्यावसायिक पर्यावरण की संज्ञा दी जाती है। परन्तु वास्तव में व्यावसायिक पर्यावरण को प्रभावित करने वाले तत्वों को उपर्युक्त दो वृहत् वर्गीकरणों में विभक्त किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में प्रत्येक व्यावसायिक निर्णय संगठन के आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार के तत्वों से प्रभावित होता है। कुछ विचारक संस्था के आन्तरिक वातावरण में संस्था की कमजोरियों व शक्तियों का समावेश करते हैं, जबकि बाह्य वातावरण में व्यावसायिक अवसर तथा व्यावसायिक चुनौतियों को सम्मिलित किया जाता है। अतः व्यूह रचना में संगठन के आन्तरिक तत्वों को बाह्य सुअवसरों व चुनैतियाँ के अनुरूप तैयार किया जाता है।

प्रत्येक संगठन का प्रबन्ध तभी प्रभावी माना जाता है, जब वह संगठन के आन्तरिक वातावरण को बाह्य वातावरण की चुनौतियों व अवसरों के अनुकूल रख सके तथा उसे बाह्य वातावरण के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सके। उन्हें संस्था की आन्तरिक शक्तियों को उत्प्रेरित करना होता है तथा कमजोरियों को दूर करना होता है, तभी बाह्य चुनौतियों का सामना कर उपलब्ध अवसरों का सम्पूर्ण लाभ उठाया जा सकता है।

उदाहरण

(1) वित्त प्रदाता- उपक्रम के वित्त प्रदाता उपक्रम के कार्य संचालन पर प्रत्यक्ष व गहन रूप से प्रभावशाली होते हैं। वित्त की सुलभ उपलब्धता कार्यनिष्पादन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध होती है। वित्त प्रदाताओं की समता, नीतियाँ व्यूह, दृष्टिकोण आदि भी उपक्रम के कार्य संचालन पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में प्रभाव डालते हैं। वित्त उपक्रम की रक्त शिराओं के सदृश है, जो उपक्रम के प्रत्येक अंग को क्रियाशील रखता है।

(2) आपूर्तिकर्त्ता- एक उपक्रम के सूक्ष्म पर्यावरण में आपूर्तिकर्ताओं का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। आपूर्तिकर्ता में उपक्रम को कच्चा माल व उपकरण की आपूर्ति करने वालों को सम्मिलित किया जाता है।

(3) अन्य तत्व- आन्तरिक पर्यावरण के अन्य तत्व हैं- स्वामी या अंशधारी, प्रबन्ध ढांचा लक्ष्य या उद्देश्य, मानवीय संसाधन, भौतिक संसाधन, तकनीकी क्षमता, विपणन क्षमता, ख्याति ब्रांड स्थिति आदि।

(II) बाह्य पर्यावरण (External Environment)

व्यवसाय के वातावरण पर बाह्य तत्वों का निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है।

  1. आर्थिक तत्व- व्यावसायिक वातावरण को प्रभावित करने वाले तत्वों में आर्थिक तत्वों का अपना विशेष स्थान है, जैसे- प्रति व्यक्ति आय, राष्ट्रीय आय, सहायक एवं पूरक उद्योग, परिवहन एवं संचार व्यवस्था एंव बिजली की सुलभ मात्रा आदि। सामाजिक संस्थाओं द्वारा निर्मित वस्तुओं पर व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय आय का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि प्रति व्यक्ति आय अधिक होगी तो नागरिक समृद्ध होंगे और अधिक वस्तुओं का उपभोग कर अपना जीवन स्तर ऊंचा बना सकते हैं। जिस प्रकार उद्योग-धन्धों की आवश्यकता हो, उस देश में उसी प्रकार के उद्योग-धन्धे लगाये जाने चाहिए।
  2. प्राकृतिक तत्व– व्यवसाय संचालन प्राकृतिक तत्वों से भी प्रभावित होता है, जैसे जलवायु, भू-रचना, वन-सम्पदा आदि। टापुओं पर मछली पकड़ने का काम सुविधापूर्वक हो सकता है, पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन, पशुपालन एवं वन उद्योग अधिक पनप सकते हैं। ठण्डे देशों में गरम कपड़े का उद्योग, गरम देशों में सूती कपड़े का उद्योग और मैदानी भागों में कृषि उद्योग अधिक पनप सकता है। चीनी की मिलें उन्हीं स्थानों पर अधिक लगायी जा सकती हैं जहाँ गन्ने की पर्याप्त खेती होती है।
  3. सामाजिक तत्व- व्यावसायिक वातावरण पर सामाजिक रीति-रिवाज, शिक्षा का स्तर, सामान्य विचार और धार्मिक विश्वास का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। हमारे देश में आज भी अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें लोग कम आय में गुजर करना पसन्द करते हैं, लेकिन अपना गाँव छोड़कर दूसरे स्थानों पर जाना अधिक पसन्द नहीं करते। संयुक्त परिवार प्रथा में कुछ लोग अधिक

परिश्रम करते हैं और कुछ लोग कम परिश्रम करते हैं, लेकिन सब मिलकर काम करते हैं। सभी देशों की परिस्थितियाँ अलग-अलग होती है। इसलिए कहीं शिक्षा का प्रचार अधिक है, कहीं तकनीकी ज्ञान अधिक है और कहीं अन्य सुविधाएँ अधिक हैं।

  1. राजनीतिक तत्व- किसी देश के राजनीतिक तत्व देश में शान्ति व्यवस्था बनाये रखते हैं, बाहरी आक्रमणों से देश को सुरक्षा प्रदान करते हैं और व्यावसायिक क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप की सीमा भी निर्धारित करते हैं। व्यवसाय के निरन्तर विकास के लिए देश में अमन चैन होना आवश्यक है। यदि किसी देश में दंगे, लूटपाट, चोरी-डाका और आंतकवादी गतिविधियाँ सक्रिय होंगी तो उस देश का व्यापार अधिक उन्नति नहीं कर सकता और यदि कहा जाये कि चौपट हो जायेगा तो भी गलत नहीं है।
  2. तकनीकी तत्व– औद्योगिक क्रान्ति के बाद से व्यावसायिक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ उत्पादन प्रक्रिया में भी निरन्तर परिवर्तन और प्रगति हो रही है। अनेक देश अपनी सुविधानुसार तकनीकी ज्ञान का आयात भी कर रहे हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्धकीय तकनीक एवं ज्ञान का उत्पादन प्रकिग्रा पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
  3. नैतिक तत्व- व्यवसाय को समाज के नैतिक रतरों का पालन करना होता है। जटिल व्यावसायिक परिवेश में नैतिक सिद्धान्त एवं संहिताएँ प्रबन्धकों के व्यवहार का मार्गदर्शन करती हैं। विश्व के सफलतम राष्ट्रों- जापान, जर्मनी, अमेरिका ने व्यावसयिक नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में सफलताएँ प्राप्त की हैं। नैतिक मापदण्डों एवं आदर्शों को ध्यान में रखकर ही व्यवसाय के साधनों तथा साध्यों का निर्धारण होता है। प्रतिस्पर्धा, कीमत व किस्म निर्धारण, आय वितरण, विज्ञापन, विक्रय, कार्य की दशाएँ, श्रम-कल्याण व सामाजिक सुधार आदि से सम्बन्धित निर्णय नैतिक परिवेश में ही लिये जा रहे हैं। सामाजिक लागतों की समस्या इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है। आज व्यवसाय, शहरीकरण, प्रदूषण, शोरगुल, गन्दी औद्योगिक बस्तियों आदि की समस्याओं के समाधान खोजे जा रहे हैं। व्यावसायिक क्रियाओं को नीतिशास्त्र के अनुकूल संचालित करने के लिए निर्धारण पर सरकार विशेष बल दे रही है।
  4. सांस्कृतिक तत्व- राष्ट्र की संस्कृति उसकी कला, साहित्य एवं जीवन ढंग से परिलक्षित होती है। संस्कृति व्यक्तियों के दृष्टिकोण एवं मानसिक विकास को भी स्पष्ट करता है। राष्ट्र का सांस्कृतिक विकास ही व्यवसाय के प्रति जनमत एवं जन प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है। आर्थर मिलन ने अपने नाटक ‘एक विक्रयकर्ता की मृत्यु’ में बताया है कि प्रतियोगिता के दबावों ने एक विक्रयकर्ता के विचारों को इस प्रकार प्रभावित किया है कि वह आत्महत्या करने को विवश हो जाता है।

बाजार एवं मांग को प्रभावित करके ही राष्ट्र की संस्कृति व्यवसायियों के निर्णय को प्रभावित करती है। सम्पूर्ण विश्व में बढ़ रहे नारी स्वतन्त्रता आन्दोलन, औषध-संस्कृति, युवा केन्द्रित समाज, हिप्पीवाद आदि सांस्कृतिक मूल्य व्यावसायिक नीतियों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते रहे हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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