शिक्षक शिक्षण / Teacher Education

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi

Table of Contents

पाठ्यक्र पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त

  • वास्तविकता का सिद्धान्त –

वास्तविकता का सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं को स्थान मिलना चाहिये जिनमें वास्तविकता या यथार्थता हो। हर एक विषय पर क्रिया हमेशा के लिये यथार्थ नहीं होती। समय और परिस्थिति के अनुसार उसकी वास्तविकता या यथार्थता कम या अधिक होती रहती है। परम्परानुगामी पाठ्यक्रम केवल परम्परा को ही एकमात्र सिद्धान्त मानता है। वह परम्परा से चले आने वाले विषयों को चाहे वे आज के युग के लिये उपयोगी हो या न हो, अपने अन्दर स्थान अवश्य देता है। इसलिये परम्परानुगामी पाठ्यक्रम अनुपयोगी विषयों के भार से लद जाता है। वास्तविकता का मतलब है। पाठ्यक्रम में निहित ज्ञान और अनुभव का भविष्य के सामाजिक जीवन से मेल खाना।

  • जीवन से सम्बन्ध जोड़ने का सिद्धान्त –

आधुनिक शिक्षाशास्त्री शिक्षा को जीवन की तैयारी न मानकर खुद जीवन मानते हैं। शिक्षा सुख जीवन तभी बन सकती जब उसके पाठ्यक्रम को सामाजिक जीवन से पूर्णरूपेण सम्बन्धित कर दिया जाय। शिक्षा को सामाजिक जीवन से सम्बन्धित करने के लिए पाठ्यक्रम में समाज की समस्याओं एवं आवश्यकताओं को महत्त्वपूर्ण स्थान देना जरूरी है। विद्यालय के पाठ्यक्रम को एक ऐसे वातावरण का रूप देना चाहिये जिसमें समाज अपने वास्तविक रूप में झलक सके। तभी समाज और विद्यालय में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होगा और शिक्षा ग्रहण करने वाले बालक सुखमय जीवन व्यतीत कर शिक्षा की यथार्थता को प्रभावित कर सकेंगे।

  • रचनात्मकता का सिद्धान्त –

रचनात्मकता पाठ्यक्रम निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं को महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिये जिनसे बालकों की रचनात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है एवं उनका उचित दिशा में प्रशिक्षण होता है। हर एक बालक में रचनात्मक प्रवृत्ति होती है। परम्परागत पाठ्यक्रम पुस्तकीय ज्ञान एवं रटने पर अधिक जोर देकर इस रचनात्मक प्रवृत्ति को पनपने नहीं देता इसीलिए उनको पढ़ने वाले छात्र देश और समाज के लिये भार बन जाते हैं। उनके अन्दर आत्मनिर्भरता, कर्मठता एवं अन्य नागरिक गुणों का विकास नहीं हो पाता। बालकों की इस रचनात्मक प्रवृत्ति का किसी न किसी सामाजिक व्यवसाय के साथ सम्बन्ध जोड़कर उनको भविष्य के जीवन के लिये तैयार किया जा सकता है। गाँधी जी ने अपनी शिक्षा में इसलिये क्राफ्ट को विशेष महत्व दिया है।

  • क्रियाशीलता का सिद्धान्त –

यह मानी हुई बात है कि व्यक्तित्व का विकास केवल पुस्तक रटने, लिखने-पढ़ने से नहीं हो सकता। बालक अपनी समस्त शक्तियों, ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का प्रयोग क्रिया करते समय करता है। इसलिए अब पाठ्यक्रम में पुस्तकों से अधिक महत्त्व क्रियाओं को दिया जाने लगा है। वर्तमान युग के लिए पाठ्यक्रम बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि वह कम से कम सैद्धान्तिक और अधिक से अधिक समाज में क्रियात्मक हो। सक्रिय रहना बालकों का स्वाभाविक गुण होता है। बालकों की इस प्रवृत्ति को दबाकर एक कोठरी बन्द करने वाला पाठ्यक्रम आज के युग क्या किसी भी युग में प्रशंसा का पात्र नहीं बन सकता। सामहिक क्रियायें बालकों के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास कर उन्हें एक कुशल नागरिक बनाने की क्षमता रखती है। इसलिये पाठ्यक्रम में उनको महत्त्वपूर्ण स्थान अवश्य मिलना चाहिए।

  • योग्यता का सिद्धान्त –

योग्यता से यहाँ मतलब बालकों की योग्यता से है। एक निश्चित अवस्था के बालकों में कुछ निश्चित मात्रा में योग्यतायें होती हैं। अनेक मनोवैज्ञानिक अनुसन्धानों द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है। इसलिए पाठ्यक्रम बनाते समय बालकों की योग्यताओं पर ध्यान देना जरूरी है। एक निश्चित अवस्था के बालकों में जो शारीरिक और मानसिक योग्यता हो उसी के अनुसार पाठ्यक्रम में विषयों एवं क्रियाओं को स्थान देना चाहिए।

  • लोच का सिद्धान्त

पाठ्यक्रम इस ढंग का होना चाहिये कि समय और परिस्थिति के अनुसार उसमें काट-छाँट एवं संशोधन के लिये गुंजाइश हो।

  • स्वतन्त्रता –

यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त हैं। मनोविज्ञान बालकों को कम से कम नियन्त्रण और अधिक से अधिक स्वतन्त्रता देना चाहता है। पाठ्यक्रम इस ढंग का होना चाहिये कि उसमें बालकों को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर मिल सके।

  • आवश्यकता का सिद्धान्त –

आवश्यकता से यहाँ हमारा मतलब बालक और समाज दोनों की आवश्यकताओं से है। पाठ्यक्रम बनाते समय बालक और समाज दोनों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिये। हर अवस्था के बालकों की अपनी कुछ निजी आवश्यतायें होती हैं। उनके व्यवहार उन आवश्यकताओं के द्वारा ही प्रेरित होते हैं। पाठ्यक्रम में बालकों की इन आवश्यकताओं की ओर ध्यान देना जरूरी होता है। समाज बालकों को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा देना चाहता है और बालकों के भविष्य के जीवन को ध्यान में रखते हुए उन्हें समाज की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा जरूरी भी होती है।

  • वैज्ञानिक विभिन्नता का सिद्धान्त –

हर एक बालक रुचि और योग्यताओं में दूसरे से भिन्न होता है। पाठ्यक्रम बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी भी बालक के लिये पाठ्यक्रम भार न बनने पाये। पाठ्यक्रमों का इस ढंग से वर्गीकरण होना चाहिये कि एक ओर तो सभी छात्रों का उनकी अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार विकास भी हो सके और दूसरी ओर एक विशेष रुचि और योग्यता वाले छात्रों और दूसरे प्रकार के छात्रों के बीच परस्पर निर्भरता और सहयोग का भाव भी बना रहे। बहुधन्धी विद्यालयों के पाठ्यक्रम इसमें अधिक सफल हो रहे हैं।

  • विस्तार का सिद्धान्त –

पाठ्यक्रम का विस्तृत होना बहुत जरूरी होता है। संकुचित पाठ्यक्रम ही अनुशासनहीनता और ‘अपव्यय तथा अवरोध’ के कारण बनते हैं। संकुचित पाठ्यक्रम में कुछ छात्रों को तो अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार काम मिल जाते हैं पर अधिकांश छात्रों को मजबूर होकर अन्य विषयों को लेना पड़ता है। इसलिये अधिकांश छात्र कक्षा छोड़कर भाग जाते हैं और परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होते हैं। संकुचित पाठ्यक्रम में छात्रों को स्वतन्त्रता की अनुभूति नहीं होती और वे अनेकानेक मानसिक रोगों के शिकार होते हैं।

  • सह–सम्बन्ध का सिद्धान्त –

सह–सम्बन्ध के विषय में हम पिछले पृष्ठों में विचार कर चुके हैं। पाठ्यक्रम बनाते समय विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं के बीच परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करना चाहिये। जिससे छात्र विभिन्न विषयों का ज्ञान अलग अलग न प्राप्त कर एक इकाई के रूप में प्राप्त करें।

  • रुचि का सिद्धान्त –

रुचि का सिद्धान्त भी एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है। मनोविज्ञान बालकों की जन्मजात रुचियों की हर एक हालत में रक्षा करना चाहता है। उसके अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय बालकों की स्वाभाविक रुचियों की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये। बालकों की रुचियों के विपरीत बनाया गया पाठ्यक्रम कभी भी सफल नहीं हो सकता। हर एक अवस्था के बालकों की अपनी–अपनी विशिष्ट रुचियाँ होती हैं इसलिए किसी भी अवस्था के लिये पाठ्यक्रम बनाते समय उस अवस्था के बालकों की रुचियों की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये।

  • प्रगतिशीलता का सिद्धान्त –

चूँकि समाज प्रगतिशील होता है इसलिए शिक्षा के पाठ्यक्रम को भी प्रगतिशील होना चाहिये। बदलते हुए समाज के साथ बदलते रहने वाली शिक्षा ही युग के प्रति ईमानदार कही जाती हैं। परिवर्तन में विश्वास न करने वाला रूढ़ि और परम्परागत पाठ्यक्रम का बदलते रहना भी जरूरी है। प्रगति में समाज के पीछे छूट जाने वाली शिक्षा कभी भी सम्मान नहीं पाती। प्रगतिशील पाठ्यक्रम शिक्षितों में बेकारी नहीं आने देता पर परम्परागत पाठ्यक्रम ऐसे व्यक्तियों को पैदा करता जिनकी समाज में जरूरत नहीं होती।

  • व्यवहारिकता का सिद्धान्त –

पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक नहीं, व्यावहारिक होना चाहिये। सैद्धान्तिक पाठ्यक्रम केवल पुस्तकीय शिक्षा देता है, जब कि व्यावहारिक पाठ्यक्रम वास्तविक परिस्थिति में कार्य करने का अवसर देकर बालकों को जीवनोपयोगी अनुभव प्रदान करता है।

  • क्रमागत विकास का सिद्धान्त –

चूंकि बालक का विकास एकाएक न होकर क्रमशः होता है इसलिए पाठ्यक्रम को भी क्रमशः बालक की विकास की अवस्थाओं के साथ विकास होना चाहिये हर एक अवस्था विशेष के लिये बनाये गये पाठ्यक्रमों में वैकासिक क्रम होना चाहिये।

  • शैक्षिक उद्देश्यों से अनुरूपता का सिद्धान्त –

पाठ्यक्रम शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है। पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय शिक्षा के उद्देश्यों पर ध्यान रखना चाहिये। पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं का समावेश करना चाहिए जो शिक्षा के उद्देश्यों के अनुकूल हों। वर्तमान में शिक्षा का उद्देश्य बालकों का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, चारित्रिक विकास करने के साथ उन्हें किसी उद्योग अथवा उत्पादन कार्य में निपुण करना है। पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इन उद्देश्यों को सामने रखना चाहिए। शारीरिक विकास के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस बात पर विचार करना चाहिये कि शारीरिक विकास के लिए किन-किन विषयों का ज्ञान, किन क्रियाओं का अभ्यास लाभदायक हो सकता है। इसके लिए शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान एवं गृह विज्ञान के सामान्य सिद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ खेलकूद में व्यायाम को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए। बालकों को दैनिक जीवन में स्वास्थ्यप्रद नियमों जैसे – प्रातःकाल में सोकर जल्दी उठना, नित्य स्नान करना, शरीर एवं उसके विभिन्न अंगों (आँख, कान, नाक, गला तथा दाँत आदि) की सफाई करना, व्यायाम करना, सुपाच्य एवं पौष्टिक भोजन करना, दिनचर्या नियमित रखना, समय से सोना आदि का पालन करने की आदत विकसित करनी होगी।

  • संस्कृति एवं सभ्यता के ज्ञान का सिद्धान्त –

इसमें उन विषयों, वस्तुओं एवं क्रियाओं को सम्मिलित किया जाये जिससे बालकों को अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का ज्ञान प्राप्त हो सके। शिक्षा का एक उद्देश्य संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण, विकास करना भी है।

  • उपयोगिता का सिद्धान्त

इसके अनुसार पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो बालकों को भावी जीवन में काम आ सकें। नन (Nunn) का मानना है कि ‘मनुष्य अपने बच्चों को केवल ज्ञान के प्रदर्शन के लिए व्यर्थ की बातें सिखाना नहीं चाहता है।’

  • खेल एवं कार्य की क्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध का सिद्धान्त –

बालक खेल की क्रियाओं में रुचि रखता है, कार्य के प्रति वैसी रुचि प्रदर्शित नहीं करता। इसका कारण है खेल से उसे आनन्द की अनुभूति होती है। अतः पाठ्यक्रम निर्माण में इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि ज्ञान सम्बन्धी क्रियाओं से बालकों को खेल की क्रियाओं के समान ही आनन्द प्राप्त हो सके।

  • विकास की सतत् प्रक्रिया का सिद्धान्त –

किसी देश की शिक्षा पर उसके दर्शन, समाज, राजनीतिक स्थिति, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी प्रगति आदि का प्रभाव पड़ता रहता है। अतः पाठ्यक्रम को स्थायी रूप से सदैव के लिए निर्मित नहीं किया जा सकता। परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के अनुसार उसमें परिवर्तन करना आवश्यक है। अतः पाठ्यक्रम – निर्माण में विकास की सतत् प्रक्रिया का ध्यान रखना चाहिए।

  • सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त –

पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय स्थानीय आवश्यकताओं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन सभी सामाजिक प्रथाओं, मान्यताओं, विश्वासों, मूल्यों एवं समस्याओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जिनसे बालक सामुदायिक जीवन की प्रमुख बातों से परिचित हो सके। “पाठ्यक्रम सामुदायिक जीवन से सजीव एवं अनिवार्य अंग के रूप में सम्बन्धित होना चाहिए।”

  • अवकाश के लिए प्रशिक्षण का सिद्धान्त –

यदि अवकाश के उपयोग का बालक को सही प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है तो उसके गलत दिशा में जाने की सम्भावना रहती है। अतः पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए जो बालकों के कार्य एवं अवकाश दोनों के लिए प्रशिक्षित कर सके। “पाठ्यक्रम इस प्रकार नियोजित किया जाना चाहिए कि वह छात्रों को न केवल कार्य के लिए अपितु अवकाश के लिए भी प्रशिक्षित”

  • जीवन सम्बन्धी क्रियाओं एवं अनुभवों के समावेश का सिद्धान्त

पाठ्यक्रम में जीवन से सम्बन्धित उन सभी क्रियाओं एवं अनुभवों को स्थान दिया जाना चाहिए जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय प्रयास करना चाहिए कि उसमें सभी क्रियाएँ समाहित हो जायें जिनसे बालकों का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राजनीतिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक विकास सम्भव हो सके।

  • शिक्षाजीवन की अवस्थाओं का सिद्धान्त –

ए० एन० व्हाइटहेड ( A.N. Whitehead ) के अनुसार, ‘पाठ्यक्रम शिक्षा-जीवन की तीन अवस्थाओं-कौतूहल, यथार्थता तथा सामान्यीकरण के अनुरूप होना चाहिए। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालकों को यथार्थ ज्ञान दे सके तथा जिससे वे वास्तविक जीवन में सफल हो सकें।’ माध्यमिक शिक्षा आयोग का यह कथन इसकी पुष्टि करता है- ‘विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम बन जाता है जो छात्रों के लिए जीवन के सभी पहलुओं से जुड़ा होता है तथा सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता प्रगदान करता है।’

  • अधिगम क्षमता का सिद्धान्त –

पाठ्यचर्या निर्माण में छात्रों की भिन्न–भिन्न आयु में अधिगम की क्षमताओं की भिन्नता का ध्यान रखना चाहिए। एलिस (Ellis) ने छोटे बच्चों तथा वयस्कों की अधिगम-क्षमता में अन्तर बताये हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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