वित्तीय प्रबंधन / Financial Management

समता पर व्यापार से आशय | समता पर व्यापार के प्रकार | समता पर व्यपार नीति के उद्देश्य | समता पर व्यापार नीति का महत्व | समता पर व्यापार की सीमाएँ

समता पर व्यापार से आशय | समता पर व्यापार के प्रकार | समता पर व्यपार नीति के उद्देश्य | समता पर व्यापार नीति का महत्व | समता पर व्यापार की सीमाएँ | Meaning of trade on equity in Hindi | Types of Business on Parity in Hindi | Trade Policy Objectives on Equity in Hindi | Importance of Trade Policy on Equity in Hindi | Trade Limits on Parity in Hindi

समता पर व्यापार से आशय (Meaning of Trading of Equity)-

समता पर व्यापार नीति का साधारण शब्दों में अर्थ स्वामित्व पूँजी की अपेक्षा ऋण पूँजी पर व्यापार करने से लिया जाता है। गर्स्टनबर्ग के अनुसार, “जब व्यक्ति या निगम स्वामित्व पूँजी के साथ-साथ ऋण पूँजी लेकर अपने व्यापार का संचलन करता है तो इसे समता पर व्यापार कहते है।”

गुथमैनडुगल के अनुसार, “ऋण कोषों का स्थिर लागत पर संस्था के वित्तीय प्रबन्ध हेतु प्रयोग समता पर व्यापार कहलाता है।”

अतः इन परिभाषाओं के आधार पर यह कहना उचित होगा कि जब कम्पनी समता अंशों का प्रयोग कम करती है व पूर्वाधिकार अंशों व ऋण पत्रों का प्रयोग करती है तो इसे समता पर व्यापार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, परिवर्तनशील लागत वाली प्रतिभूतियों का प्रयोग कम व स्थिर लागत प्रतिभूतियों का प्रयोग अधिक होने पर समता पर व्यापार कहा जाता है। पूर्वाधिकार अंश व ऋण पत्रों पर चूँकि लाभांश ब्याज दर स्थित होती है। अतः इन्हें स्थिर लागत वाली प्रतिभूतियाँ कहा जाता है। इनका प्रयोग व्यवसाय में तभी करना चाहिए जब इस बात का विश्वास हो कि व्यवसाय में लाभ की दर इन पर दिए ब्याज से अधिक होगी।

समता पर व्यापार के प्रकार

समता पर व्यापार दो प्रकार का होता है-

(1) अल्प समता पर व्यापार (Trading on Thin Equity)- जब किसी कम्पनी की कुल पूँजी में अंश पूँजी की मात्रा ऋण पूँजी व पूर्वाधिकार अंश पूँजी की तुलना में कम होती है तो इसे अल्प समता पर व्यापार कहा जाता है।

(2) उच्च समता पर व्यापार (Trading on Thick Equity)- जब समता अंशों की राशि कुल पूँजी में ऋण पूँजी व पूर्वाधिकार अंशों की तुलना में अधिक हो तो इसे उच्च समता पर व्यापार कहा जाता है।

समता पर व्यपार नीति के उद्देश्य

समता पर व्यापार नीति के निम्नलिखित चार उद्देश्य होते हैं-

(i) समता अंशों पर दिये जाने वाले लाभांश की दर में वृद्धि करना।

(ii) व्यवसाय का नियन्त्रण कुछ हाथों में ही केन्द्रिता रखना।

(iii) कम स्वामित्व पूँजी के आधार पर व्यापार पर अधिकतम ऋण लेकर वित्तीय साधनों को नियन्त्रित करना।

(iv) कर की राशि बचाना क्योंकि ऋणपत्रों पर ब्याज एक व्यय माना जाता है।

समता पर व्यापार नीति का महत्व

समता पर ब्याज नीति का बहुत महत्व होता है। ऋण पूँजी के आधार पर व्यापार करने से उनका ब्याज ब्यय माना जाता है। इससे कर कम चुकाना पड़ता है। ऋण पूँजी पर ब्याज की मात्रा भी सीमित होती है। इससे समता अंशों के लिए अधिक लाभांश दिया जा सकता है। इससे कम्पनी की साख में वृद्धि होती है। साख बढ़ने पर उसे ऋण भी आसानी से मिल जाते हैं।

किन्तु कभी-कभी समता से व्यापार में हानि भी होती है। कम्पनी के लाभ कम होने पर यह राशि ब्याज चुकाने में ही समाप्त हो जाती है व समता अंशों पर लाभांश घोषित नहीं किया जा सकता। इससे कम्पनी की साख में गिरावट आती है।

अतः संस्था को समता पर व्यापार नीति तभी अपनानी चाहिए जब ब्याज दर की तुलना में उसकी अर्जन क्षमता अधिक हो।

समता पर व्यापार की सीमाएँ

समता पर व्यापार की निम्न सीमाएँ हैं-

(1) आय की स्थिरता व अनिश्चितता- समता पर व्यापार की नीति तभी लाभदायक हो सकती है जब कम्पनी के लाभ निश्चित व स्थिर हों। यदि आय में अनियमितता या अस्थिरता है तो समता पर व्यापार की नीति हानिप्रद होगी। लाभ कम होने पर वह ब्याज चुकाने में ही समाप्त हो जायेंगे।

(2) ऊँची ब्याज दरों पर ऋण प्राप्ति- यदि कम्पनी को निम्न ब्याज दर पर ऋण प्राप्त हो जाते हैं तो समता पर व्यापार करना लाभप्रद है अन्यथा नहीं। यदि प्रत्येक ऋण बढ़ने के साथ-साथ व्याज दर बढ़ती जाती है तो समता अंशों पर लाभांश कम होता जायेगा। प्रत्येक ऋण लेने पर ऋणदाता की जोखिम बढ़ जाती है अतः नये ऋण अधिक ब्याज पर ही प्राप्त होते हैं।

(3) प्रबन्धकों का दृष्टिकोण- कभी-कभी कम्पनी की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी होती है कि ऋण प्राप्त करना आसान होता है व ऋण प्राप्त कर काम चलाना सस्ता पड़ता है किन्तु प्रबन्धों की नीति के कारण ऋण कम लिये जाते हैं। इनका कारण प्रबन्धकों की ऋण न लेने की नीति हो सकती है या प्रबन्धक ऋण न लेकर कम्पनी की साख ऊँची बनाकर भविष्य में कम ब्याज दर पर ब्याज प्राप्त करना चाहते हैं।

(4) वैधानिक सीमाएँ- कभी कभी देश में प्रचलित कानून में कम्पनी के पार्षद सीमा नियम पार्षद अन्तर्नियम में भी ऋण की सीमा निर्धारित कर दी जाती है। ऐसी देशा में समता पर व्यापार की नीति लागू करना सम्भव नहीं होता।

(5) अन्य सीमाएँ- यदि कम्पनी लगातार ऋण लेती रहे तो कम्पनी की साख गिर जाती है, स्थायी लाभों का कोष बढ़ जाता है व बाद में उपक्रम अतिपूँजीकरण का शिकार हो जाता है। अधिक ऋण लेने पर ऋणदाता भी कम्पनी के प्रबन्ध में हस्तक्षेप कर सकते हैं। यदि किसी वित्तीय निगम से ऋण लिए जाये तो वह अधिक ऋण होने पर नियन्त्रण लगा देती है।

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि सदैव ही समता पर व्यपार की नीति अच्छी नहीं कही जा सकती है। जहाँ पर एक ओर समता पर व्यापार नीति लाभ बढ़ाती है वहाँ यह हानि भी बढ़ा सकती है। सामान्य वर्षों में समता पर व्यापार में लाभ होता है असमान्य वर्षों में हानि।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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