वित्तीय प्रबंधन / Financial Management

व्यवसाय में वित्त कार्य का विकास | वित्त कार्य की विचारधारा | परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराओं में अन्तर

व्यवसाय में वित्त कार्य का विकास | वित्त कार्य की विचारधारा | परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराओं में अन्तर | Development of Finance Function in Business in Hindi | IDEAS OF FINANCE WORK in Hindi | Difference between traditional and modern ideologies in Hindi

व्यवसाय में वित्त कार्य का विकास

EVOLUTION OF FINANCE FUNCTION IN BUSINESS

व्यवसाय के लिए आवश्यक कोषों की व्यवस्था (Procurement of Fund) करना वित्त का प्रमुख कार्य रहा है, किन्तु आधुनिक व्यावसायिक प्रबन्ध के बदले हुए सन्दर्भ में वित्त का कार्य इससे कहीं अधिक व्यापक हो गया है। अब कोषों की व्यवस्था के साथ-साथ इस प्रकार प्राप्त कोषों का प्रभावपूर्ण उपयोग (Effective use) करना भी वित्त के कार्य क्षेत्र में ही सम्मिलित किया जाता है। “परम्परागत व्याख्या के अनुसार कोषों के साधनों पर अधिक बल दिया जाता था जिसका सम्बन्ध अधिकांशतः विशिष्ट प्रक्रियात्मक ब्यौरे पर विस्तृत विवरण से होता था। अब नवीन व्यापक व्याख्या के अन्तर्गत कोषों के अनुकूलन संकलन, उपयोग एवं आवंटन की दिशा में विवेकपूर्ण नीति निर्धारण पर अधिक बल दिया जाता है।” इस प्रकार अब वित्त कार्य का केन्द्र बिन्दु वित्तीय निश्चयीकरण (Financial decision making) बन गया है। इसके बाद वित्त-कार्य के विकास क्रम में एक और मोड़ आया जिसके अनुसार कोषों की उपलब्धि तथा धरोहर के रूप में उनकी सुरक्षा के साथ-साथ व्यवसाय के लिए उनके आवंटन से सम्बद्ध संचालन प्रक्रियाओं के विश्लेषण पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। निम्न पंक्तियों में इन दोनों विचारधाराओं की विस्तृत व्याख्या की गयी है तथा उनके अन्तर को भली प्रकार स्पष्ट किया गया है।

वित्त कार्य की विचारधारा

Concept of Financial Function

(1) परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach)

वित्त कार्य की विचारधारा ( Concept of Finance Function): पिछले पाँच दशकों में वित्त कार्य के विचार एवं स्वरूप तथा इसके कार्य क्षेत्र में जो क्रमिक परिवर्तन हुआ है, उसके फलस्वरूप वित्त-कार्य एक यत्रतत्रिक कार्य (Sporadic Function) न रहकर व्यवसाय संचालन की प्रक्रिया में निरन्तर प्रशासनिक कार्य (Continuous Administrative Function) बन गया है। परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach ) के अन्तर्गत विषय का अध्ययन प्रमुख रूप से कोषों की व्यवस्था (Procurement of funds) करने तथा समय-समय पर आवश्यकतानुसार कतिपय अन्य कार्यों को सम्पन्न करने तक ही सीमित था, जिसमें पूँजी प्राप्ति के साधनों (Instruments), संस्थागत स्रोतों (Institutions) तथा प्रतिलित व्यवहारों (Current Practices) के अध्ययन को अधिक प्रमुखता प्रदान की जाती थी। अतः इसके अन्तर्गत ऐसे प्रकरणों का अध्ययन किया जाता था जिनका सम्बन्ध दैनिक व्यवसाय संचालन से न होकर यदाकदा उत्पन होने वाली कतिपय समस्याओं से होता था जैसे कम्पनी प्रवर्तक, प्रतिभूतियाँ, पूँजी बाजार, पुनर्संगठन, एकीकरण, संविलयन आदि। यह समस्त अध्ययन निवेशक के दृष्टिकोण (Investor’s Point of View) का परिचालक था, जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि वित्तीय प्रबन्ध का प्रयोजन आन्तरिक प्रबन्ध से न होकर बाहरी व्यक्तियों (पूँजी लगाने वाले व्यक्तियों, बैंकरों, वित्तीय संस्थाओं) के मार्गदर्शन के लिए अधिक था।

(2) आधुनिक विचारधारा ( Modern Approach )

आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्ध, व्यावसायिक प्रबन्ध का एक अभिन्न अंग बन गया है, जिसका सम्बन्ध व्यवसाय के आन्तरिक संचालन से अधिक है। विषय के वर्णनात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान देने के स्थान पर अब इसके विश्लेषणात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाता है। विचारधारा में परिवर्तन एवं विषय-वस्तु के विस्तार के लिए अनेक कारण उत्तरदायी रहे हैं। वर्तमान शताब्दी के मध्य के पश्चात् (विशेषतः द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से) व्यावसायिक फर्मों के आकार में पर्याप्त वृद्धि हुई है। विशाल निगमों की स्थापना तथा उनमें होने वाली कड़ी प्रतिस्पर्द्धा ने साधनों के अनुकूलतम उपयोग, (Optimum utilisation) की ओर प्रबन्धकों का ध्यान आकर्षित किया। अतः वित्तीय नियोजन, नियन्त्रण तथा कार्य निष्पादन की नवीन विधियों एवं तकनीकों का विकास हुआ जिन्होंने व्यावसायिक वित्त को नये आयाम प्रदान किये जिनका सम्बन्ध कोषों के प्रभावपूर्ण एवं कुशलतापूर्ण उपयोग से है।

अति आधुनिक रूप में वित्त का कार्य उच्च स्तर पर नीति-निर्धारण एवं प्रबन्धकीय निश्चयीकरण से अधिक जुड़ गया। इसके अन्तर्गत कोषों के अनुकूलतम उपयोग (optimal use) की दशा में विवेकपूर्ण निर्णय लिये जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन, कोषों के वैकल्पिक उपयोगों का मूल्यांकन, पूँजी बजटिंग, व्यवसाय की वित्तीय सफलता के मापदण्डों का निर्धारण, पूँजी की लागत तथा कार्यशील पूंजी के प्रबन्ध आदि इस विषय के प्रमुख अंग बन चुके हैं। व्यावसायिक इकाइयों के बढ़ते हुए आकार, व्यवसायियों में बढ़ती हुई प्रतिस्पर्द्धा, निरन्तर नवीन तकनीकी प्रगति, परिवर्तनशील बाह्य परिवेश एवं परिस्थितियों के सन्दर्भ में व्यवसाय के सही आकलन की विवशता तथा मूल्यांकन एवं पूर्वानुमान के क्षेत्र में मशीनी कम्प्यूटरों की महत्वपूर्ण भूमिका आदि ने वित्त-कार्य के दायरे को तो विस्तार दिया ही है, साथ ही इसके दायित्वों को भी बढ़ा दिया है।

परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराओं में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN TRADITIONAL & MODERN APPROACHES)

इन दोनों विचारधाराओं में निम्नलिखित अन्तर है-

(1) परम्परागत विचारधारा वर्णनात्मक (Descriptive) तथा संकुचित (Narrow) थी जबकि आधुनिक विचारधारा विश्लेषणात्मक (Analytical) एवं अधिक व्यापक (Wider) है।

(2) परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्ध एक यत्रतत्रिक (Sporadic) कार्य था, जबकि आधुनिक विचारधारा के अनुसार यह अनवरत (Continuous) तथा नियमित (Regular) कार्य है।

(3) निश्चयीकरण की प्रक्रिया में पहले इस क्षेत्र की सक्रिय भूमिका (Active role) नहीं थी जबकि अब वित्तीय प्रबन्ध के क्षेत्र को महत्वपूर्ण भूमिका प्राप्त है। इसलिए अब यह एक प्रासंगिक कार्य न रहकर एक प्रशासनिक कार्य बन चुका है।

(4) पहले कोषों की उपलब्धि (Procurement of funds) पर अधिक ध्यान दिया जाता था, जबकि अब उसके साथ-साथ कोषों के सम्यक् उपयोग (Judicious Use of Funds) पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता है।

(5) पहले प्रबन्धकीय निर्णयन के आधार अन्तर प्रेरणा (Intition) तथा अनुभव (Experience) थे; किन्तु अब निश्चयीकरण के लिए वैज्ञानिक विश्लेषण (Scientific Analysis) की आधुनिक प्रविधियों ( Modern Techniques) का प्रयोग किया जाता है।

(6) परम्मपरागत दृष्टिकोण इस बात पर अधिक ध्यान देता था कि बाहरी व्यक्ति आन्तरिक प्रबन्ध को किस नजरिये से देखते हैं (Outsider looking in approach), जबकि आधुनिक विचारधारा इस बात पर बल देती है कि आन्तरिक प्रबन्ध बाहरी दशाओं के परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार अपनी वित्तीय-नीतियों के निर्धारण एवं वित्तीय प्रशासन का कार्य सम्पन्न करता है। (Insider looking out approach)

(7) परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्त के दीर्घकालीन कोषों के प्रबन्ध पर अधिक बल दिया जाता था, जबकि अब कार्यशील पूंजी के प्रवन्ध एवं अल्पकालीन कोषों के प्रबन्ध केक्षसाथ-साथ वित्तीय प्रबन्ध के अनेक नवीन आयामों पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता है, जैसे पूंजी की लागत, पूँजी बजटिंग आदि।

निष्कर्ष :

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि समय के साथ-साथ परम्परागत विचारधारा के स्थान पर आधुनिक विचारधारा (Modem Concept) प्रमुखता प्राप्त करती गयी। इससे व्यावसायिक- वित्त के दायरे अथवा क्षेत्र (Scope) का विस्तार हुआ, जिसने उसकी विषय-वस्तु (Content) में व्यापक परिवर्तन को जन्म दिया।

आधुनिक विचारधारा के अनुसार, वित्तीय प्रबन्ध, व्यावसायिक प्रबन्ध का अभिन्न अंग तो है ही साथ ही व्यवसाय संचालन एवं व्यवसाय के उद्देश्यों की पूर्ति में इस क्षेत्र की भूमिका आधारभूत (Key Role) है। कोषों की व्यवस्था करने के साथ-साथ इस प्रकार प्राप्त कोषों के सम्यक् उपयोग (Judicious utilisation) का महत्वपूर्ण कार्य भी इस क्षेत्र के दायित्वों में जुड़ गया है और इस प्रकार वित्तीय प्रबन्ध अब यत्रतत्रिक न होकर एक सतत् प्रशासनिक कार्य बन गया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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