संस्कृति और शिक्षा | संस्कृति का अर्थ | संस्कृति की परिभाषाएँ | संस्कृति की विशेषताएँ | संस्कृति के सिद्धान्त | संस्कृति और शिक्षा

संस्कृति और शिक्षा | संस्कृति का अर्थ | संस्कृति की परिभाषाएँ | संस्कृति की विशेषताएँ | संस्कृति के सिद्धान्त | संस्कृति और शिक्षा

संस्कृति और शिक्षा

मनुष्य क्रिया और चिन्तन से जीवन व्यतीत करता है। उसकी बुद्धि उसे अच्छी चीजों के चुनाव में सहायता करती है और इनसे वह जीवन की गतिविधियों को निश्चित करता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य कार्य-कलाप, विचार, अभिव्यक्ति आदि के प्रयत्न करता है। लगातार ऐसे प्रयलों से उसके मूल व्यवहार में परिवर्तन, शोधन एवं शिष्टता आती जाती है। इस स्थिति को हम “संस्कार” कहते हैं और जब संस्कार का एक समग्र रूप समाज के द्वारा लिया जाता है तो उसे हम “संस्कृति” का नाम देते हैं। मानव जाति की यह सबसे बड़ी विशेषता एवं देन है और उसके सम्पूर्ण जीवन के कार्य-कलाप उसकी संस्कृति का चित्र उपस्थित करते हैं। शिक्षा मानव की वह क्रिया है जिससे वह परिवर्तन एवं शोधन करता है। अतएवं संस्कृति तथा शिक्षा दोनों का सम्बन्ध मानव की जीवन क्रियाओं, गतिविधियों से होता है। अतः हमें संस्कृति एवं शिक्षा के बारे में कुछ विस्तार से जानना चाहिए।

संस्कृति का अर्थ

संस्कृति शब्द में दो शब्द मिले हुए हैं-सम् तथा कृति । सम् उपसर्ग है जिसका अर्थ अच्छी तरह होता है। कृति में ‘कृ’ धातु होता है जिसका अर्थ करना होता है। इस प्रकार संस्कृति का अर्थ हुआ “अछी तरह किया हुआ व्यवहार, आचरण, उत्पादन ।” संस्कृति शब्द के लिए अंग्रेजी भाषा में कल्चर’ शब्द होता है। कल्चर’ ‘शब्द लैटिन भाषा के ‘कलचुरा’ तथा ‘कोलियर’ शब्दों से निकला है जिनका अर्थ होता है ‘उत्पादन’ और ‘परिष्कार’ । ‘कल्चर (संस्कृति) लैटिन भाषा के एक दूसरे शब्द ‘कलटस’ से भी सम्बन्धित पाया जाता है। ‘कलटस’ का तात्पर्य रूप निर्माण होता है। जब हम कह सकते हैं कि संस्कृति का अर्थ अच्छी तरह से रूप-निर्माण होता है जो भाव, विचार, व्यवहार, वस्तु आदि से जुड़ा होता है।

संस्कृति की परिभाषाएँ

यहाँ पर हम कुछ विद्वानों के विचार देंगे जिनसे संस्कृति की परिभाषा स्पष्ट होगी। ये परिभाषाएँ नीची लिखी जा रही हैं-  

(i)  डा० एन० ह्वाइटहेड- “संस्कृति विचार और सौंदर्य एवं मानवीय भावनाओं की ग्राह्यता की क्रिया है।”

(ii) प्रो० मैथ्यू अरनोल्ड- “संस्कृति हमारे सभी पूर्णता का अनुगमन है”सर्वोत्तम ढंग से संसार में जो सोचा गया हो और कहा गया हो।”

(iii) डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन-“सभ्यता का दृढ़ हो जाना ही संस्कृति है।”

(iv) प्रो० जोसेफ पीपर- “संस्कृति संसार को सभी प्राकृतिक चीजों और उन उपहारों और गुणों का सार तत्व है जो मनुष्य से सम्बन्धित होते हुए भी उसकी आवश्यकताओं के तात्कालिक क्षेत्र से कहीं बाहर होती है।”

(v) प्रो० सी० एन० कून- “संस्कृति गतिविधियों का कुल योग है जिनसे मनुष्य जीवन व्यतीत करता है।”

निष्कर्ष- ऊपर की परिभाषाओं के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि संस्कृति जीवन के सर्वोत्तम विचार, भाव, कार्य एवं सम्पूर्ण विधि है जो शुद्ध एवं परिष्कृत होती है।

संस्कृति की विशेषताएँ

जीवन व्यापक होता है अतएव संस्कृति का स्वरूप भी व्यापक होता है। जीवन के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल सम्बन्धी, निर्माण, उत्पादन एवं रचना सम्बन्धी पक्ष पाये जाते हैं और इनसे सम्बन्धित गतिविधियाँ हैं। ये सभी संस्कृति के अन्तर्गत शामिल किये जाते हैं। इस सम्बन्ध में प्रो० ई० बी० टायलर ने लिखा है कि “संस्कृति वह संकुल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकदर्शन, नियम-कानून, रीति-रिवाज, और अन्य क्षमताएँ तथा आदतें शामिल होती हैं, जिन्हें मनुष्य समाज के एक सदस्य के नाते अर्जित करता है।” अब स्पष्ट है कि संस्कृति में प्राकृतिक एवं अर्जित, भौतिक एवं अभौतिक, ज्ञान, विश्वास और व्यवहार सभी कुछ शामिल किया जाता है। इस प्रकार हमें संस्कृति में निम्नलिखित विशेषताएँ मिलती हैं-

(i) संस्कृति अर्जित, उत्पादित और सीखी हुई होती है न कि जन्मजात होती है।

(ii) संस्कृति दृढ़ एवं हस्तांतरित होती है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती है।

(iii) संस्कृति समाज की संरचना पर आधारित एवं उत्पादित होती है, समाज के अनुकूल इसका निर्माण होता है।

(iv) संस्कृति आदर्शकृति होती है, वही चीजें संस्कृति में होती है जो सर्वोत्तम होती है, आदर्श रूप में होती हैं।

(v) संस्कृति मनुष्य की आवश्यकताओं, इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने वाली होती है।

(vi) संस्कृति मनुष्य को अपने भौतिक-सामाजिक पर्यावरण के साथ अनुकूलन में सहयोग देती है।

(vii) संस्कृति समाज के लोगों को परस्पर संगठित, एकीकृत एवं बाँधे रहती है।

(viii) संस्कृति समाज की प्रगति का द्योतक होती है, समाज की प्रगति का प्रतीक होती है।

(ix) संस्कृति मानव के व्यक्तित्व के चतुर्दिक विकास, निर्माण, जीवन के सहै समायोजन में सहायक होती है।

(x) संस्कृति सभ्यता से भिन्न होती है, सभ्यता बाह्याडम्बर है, मनुष्य की प्रगति पर सभ्यता निर्भर करती है।

(xi) संस्कृति सार्वभौमिक होते हुए भी विशिष्ट समाज की दृष्टि से विशिष्ट पाई जाती है, तभी इंग्लैंड, अमरीका, रूस, भारत की संस्कृति विशिष्ट रूप में पाई जाती है यद्यपि सभी “मानव संस्कृति” हैं।

(xii) संस्कृति परिवर्तनशील है जिससे उसमें स्थायित्व होता है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बढ़ने की क्षमता होती है और इसके कारण अनुकूलन, समायोजन एवं व्यवस्थापन करना सम्भव होता है।

संस्कृति के सिद्धान्त

उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर हम संस्कृति के सिद्धान्तों पर भी कुछ विचार प्रकट कर सकते हैं। संस्कृति के सिद्धान्त निम्नलिखित कहे जा सकते हैं-

(1) प्रजातीय सिद्धान्त- संसार में बहुत सी प्रजातियाँ हैं जैसे आर्य, द्रविड़, अंग्रेज, जर्मन, रूसी, रोमन, अमरीकी, इंडियन, चीनी, जापानी आदि। इन सबकी अलग-अलग संस्कृति है और तदनुसार संस्कृति के सिद्धान्त हैं।

(2) उद्विकासीय सिद्धान्त- जिस प्रकार समाज का उद्विकास होता है उसी के अनुसार मानव-जीवन की गतिविधियों का भी उद्विकास होता है। यहीं संस्कृति का उद्विकासीय सिद्धान्त पाया जाता है जैसे शुरू में लोग जंगली ये और सब सभ्य हो गये । एक पाषाण युग था और आज विज्ञान का युग है। दोनों संस्कृतियाँ अलग-अलग हैं। प्राचीन से नवीन का उद्विकास हुआ है।

(3) धर्म आध्यात्मिक का सिद्धान्त- जिन समाज में लोगों को जीवन धार्मिक आध्यात्मिक नियमों और सिद्धान्तों पर चलता है वहाँ की संस्कृति का सिद्धान्त भी वैसा होता है। उदाहरण के लिए भारत में लोग धर्म एवं आध्यात्मिक जीवन में विश्वास रखते हैं और उनका पालन भी करते हैं।

(4) भौतिकता और पूँजीवादिता का सिद्धान्त- पाश्चात्य देशों में लोगों का विश्वास भौतिक जीवन एवं धन-दौलत में पाया जाता है। तदनुसार उनकी संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है। फलतः भौतिकता एवं पूंजीवादिता सिद्धान्त होता है उदाहरण लिये के अमरीकी संस्कृति है।

(5) समन्वयवादी सिद्धान्त- कुछ समाज ऐसे बने हैं जिनमें पूरब-पश्चिम की संस्कृति का मेल पाया जाता है। अपने देश में बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता जैसे बड़े शहरों में एक समन्वित संस्कृति पाई जाती है। इसके अलावा जीवन में एक समन्वय होता है जिससे सामन्जस्य होता है। संस्कृति को इसीलिए प्रो० टायलर ने संस्कृति की परिभाषा “सकल पूर्णता” या “समन्वय” के रूप में दी है। इसी आधार पर समन्वयवादो सिद्धान्त पाया जाता है।

संस्कृति और शिक्षा

संस्कृति और शिक्षा दोनों का सम्बन्ध मनुष्य से होता है। “लोगों की संस्कृति उनका सभी भौतिक और उनके विश्वासों, मूल्यों, परम्पराओं और क्रियाओं का योग होती है।” ऐसा विचार प्रो० रूसेक और उनके सहयोगियों का है। इसी प्रकार से शिक्षा भी मनुष्य की एक क्रिया है जिससे वह अनुभव, ज्ञान, कौशल, विचार, चिन्तन आदि को ग्रहण करने में समर्थ होता है। शिक्षा वास्तव में मानव की वह क्रिया है जिससे वह अपनी जन्मजात शक्तियों का सामाजिक पर्यावरण में अधिकतम विकास करता है और पर्यावरण के साथ आजीवन समायोजन करता जाता है। अब स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति मानवीय प्रयत्न के दो पक्ष हैं-संस्कृति शोधनकारी एवं उत्पादनकारी है तो शिक्षा विकास एवं बुद्धि करने वाली है।

संस्कृति और शिक्षा मनुष्य के लिए हितकारी होते हैं। बिना संस्कृति के मानव पशु होता है और बिना शिक्षा के वह पूर्णतः को प्राप्त नहीं होता है। अब हम कह सकते हैं कि संस्कृति और शिक्षा मनुष्य की पशुता दूर करने वाले साधन हैं, उसे पूर्ण बनाने के यंत्र है और आज कुछ ज्ञान, विज्ञान, कला, विनिर्माण, विश्वास, धर्म, आध्यात्म में हुआ है वह सब मनुष्य की संस्कृति और शिक्षा के कारण सम्भव हो सका है। व्यक्ति तथा समाज को सर्वोत्तम बनाने, उच्चतम उठाने एवं महानतम स्थान देने में संस्कृति एवं शिक्षा दोनों का अद्वितीय योगदान पाया जाता है। अतः दोनों को समान महत्व दिया जाता है।

शिक्षा और संस्कृति में इस प्रकार अटूट सम्बन्ध होता है। बिना शिक्षा के संस्कृति नहीं और बिना संस्कृति के शिक्षा नहीं हो सकती। वस्तुतः शिक्षा और संस्कृति एक सिक्के के दो पहलू हैं। शिक्षित व्यक्ति संस्कृत और सभ्य कहा जाता है और संस्कृत व्यक्ति निश्चय ही शिक्षा प्राप्त करता है। संस्कृति एक प्रकार का सुधार है और शिक्षा विकास है। सुधार से विकास और विकास में सुधार अन्तर्निहित होता है। इस तरह दोनों का अन्तर्सम्बन्ध स्पर होता है।

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