शिक्षा के अर्थशास्त्र की संकल्पना | भारत के अर्थशास्त्र की संकल्पना | Concept of semiology of education in Hindi
शिक्षा के अर्थशास्त्र की संकल्पना | भारत के अर्थशास्त्र की संकल्पना | Concept of semiology of education in Hindi
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शिक्षा के अर्थशास्त्र की संकल्पना
वर्तमान में ‘शिक्षा’ का एक नवीन लोकप्रिय विषय हो गया है। इसका सम्बन्ध अर्थ एवं साधनों से जुड़ा हुआ है। अत: शिक्षा अर्थशास्त्र आर्थिक सिद्धान्त अन्वेषण की वह शाखा है जो शिक्षा और अर्थशास्त्र में यह सम्बन्ध स्थापित करती हैं। यद्यपि इस शाखा का इतिहास लम्बा है लेकिन इसका विस्तार 1960 के दशक से तेजी से हुआ है। क्लासिक अर्थशास्त्री (Adam Smith John Stuart, Nil, Alfred Marshal) के 18वीं और 19 वीं शताब्दी में लिखे गए लेखों ने सबका ध्यान शिक्षा की महत्ता की ओर आकर्षित किया। तभी से शिक्षा को एक प्रकार का राष्ट्रीय निवेश माना जाने लगा। अन्ततः इस विषय पर सोच विचार हुआ कि शिक्षा का वित्तीय प्रबन्ध किस प्रकार किया जाए।
शिक्षा जो एक प्रकार से सीखने की प्रक्रिया है। मनुष्य के विकास की प्रक्रिया के साथ- साथ बचपन से बुढ़ापे तक चलती है। मनुष्य जन्म के समय अपने चारों ओर के सामाजिक और भौतिक वातावरण से अपरिचित होता है परन्तु उसमें सहज क्षमताएँ होती हैं।
संस्कृत की उक्ति “तमसो मा ज्योतिर्गमय” अर्थात अंधेरे की ओर नहीं, प्रकाश की ओर जाए, शिक्षा के महत्व को भली-भांति दर्शाती है।
आर्थिक आधार पर शिक्षा के बहुत सम्पूर्ण आधारों में से एक है। इसका शिक्षा की लागत और प्रतिलाभ से अधिक सम्बन्ध है। शिक्षा का आर्थिक आधार इसकी आगत और निर्गत का पारस्पारिक सम्बन्ध है। आगत के अन्तर्गत शिक्षक, संचालक भवन हर प्रकार की साज-सज्जा आदि आती है। ये सब मिलकर शिक्षा की ‘लागत’ बनाते हैं। जो शिक्षा विद्यार्थियों ने ग्रहण की है वह शिक्षा का ‘निर्गत’ होता है।
इंग्लैण्ड और अमेरिका में 1960-70 के दशक के मानव पूँजी में निवेश की संकल्पना के विस्तार के साथ-साथ शिक्षा और अर्थशास्त्र में सह सम्बन्ध पर भी अध्ययन होने लगा। उस समय से लेकर अब तक सन् 2000 तक शिक्षा के अर्थशास्त्र के क्षेत्र में व्यापक शोध कार्य और प्रकाशन हुए हैं। यहाँ इस अध्ययन में शिक्षा के अर्थशास्त्र में सम्बन्धित कुछ अन्य विषयों की भी व्याख्या की गयी है। जो अर्थ के अभाव में शिक्षा में शिक्षा के प्रसार का मार्ग अंधकारमय है।
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