शिवाजी के उत्तराधिकारी | शिवाजी के कार्यों का एक मूल्यांकन

शिवाजी के उत्तराधिकारी | शिवाजी के कार्यों का एक मूल्यांकन

शिवाजी के उत्तराधिकारी

शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् उनका उत्तराधिकारी उनका ज्येष्ठ पुत्र शंभाजी बना। शंभाजी में शिवाजी जैसे गुण नहीं थे। वह विवेकहीन और उच्छंखल नवयुवक था। इसलिए, अनेक मराठा सरदार शंभाजी को छत्रपति के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। एक षड्यंत्र के द्वारा शिवाजी के अल्पवयस्क द्वितीय पुत्र राजाराम को गद्दी पर बिठाया गया, परंतु शंभाजी इस षड्यन्त्र को विफल करने में कामयाब हुआ। उसने राजाराम और उनकी माता को बंदी बना लिया एवं स्वयं अपना अभिषेक किया (जुलाई, 1680)। राजा बनने की खुशी में उसने अपने समर्थकों को धन और उपाधियाँ बाँटी।।

शंभाजी के चरित्र से असंतुष्ट मराठा सरदारों ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र आरम्भ कर दिया। मराठा दरबार षड्यन्त्रों एवं गुटबाजी का अखाड़ा बन गया। शंभाजी की हत्या का षड्यन्त्र भी रचा गया। इसे कुद्ध होकर शंभाजी ने अपनी विमाता एवं कई अन्य मराठा सरदारों की हत्या करवा दी एवं अनेकों को गिरफ्तार कर लिया। उसने उज्जैन के एक ब्राह्मण कवि कलश को अपना सलाहकार नियुक्त किया एवं उसी के परामर्श से शासन करने लगा। कवि कलश के प्रभाव से मराठों में आपसी वैमनस्य और अधिक बढ़ा।

मुगल-मराठा संबंध- इस बीच औरंगजेब के पुत्र शाहजादा अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। वह दुर्गादास राठौर के साथ शंभाजी के पास सहायता के लिए पहुंचा। इस नई परिस्थिति ने औरंगजेब को स्थिति दुर्वल कर दी। अकबर और शंभाजी की मैत्री औरंगजेब के लिए घातक हो सकती थी। इसलिए वह स्वयं दक्षिण पहुँच गया। उसने मराठा राज्य की आंतरिक दुर्बलता का भी पता लगा लिया एवं मराठों की शक्ति को कुचलने का प्रयास आरम्भ कर दिया। इधर यद्यपि शंभाजी ने अकबर को संरक्षण प्रदान किया तथापि वह शंभाजी के समर्थन में मुगलों के विरुद्ध कोई ठोस नीति तय नहीं कर पाया। ऐसा कर उसने मुगलों को परास्त करने का एक सुनहरा मौका खो दिया। औरंगजेब जैसे राजनीतिज्ञ के लिए यह बहुत अच्छा मौका था। उसने गोलकुण्डा और बीजापुर पर अधिकार कर मराठों और अकबर को मिलनेवाली संभावित सहायता को बंद कर दिया। जंजीरा के सीदियों एवं यूरोपीय व्यापारियों को भी उसने अपने पक्ष में मिला कर मराठों को मिलने वाली सहायता का मार्ग बंद कर दिया।

औरंगजेब ने मराठों पर आक्रमण कर दिया । नासिक के निकट रामसेज दुर्ग को मुगलों ने घेर लिया, लेकिन उन्हें घेरा उठाना पड़ा। अकबर ने शंभाजी को मुगल छावनी पर अक्रमण कर औरंगजेब को बंदी बनाने का सुझाव भी दिया, परंतु शंभाजी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार, औरंगजेब को परास्त करने का एक सुनहरा मौका उसके हाथ से निकल गया। शंभाजी ने सीदियों एवं पुर्तगालियों पर भी आक्रमण किया, परंतु मुगल सेना के बढ़ते दबाव के कारण उन्हें छोड़ देना पड़ा। औरंगजेब शंभाजी पर दबाव बढ़ाता गया। अनेक स्थानों पर मराठों को पराजित होना पड़ा। बाध्य होकर शंभाजी ने संगमेश्वर के दुर्ग में शरण ली। मुगल सेनापति मुकर्रब खां ने दुर्ग को घेरकर शंभाजी, मंत्री कलश एवं अनेक पदाधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। शंभाजी पर मुगल अधीनता एवं इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाव डाला गया, परंतु शंभाजी ने शामिल थे। इन्हें स्वीकार नहीं किया। उसने औरंगजेब को अपशब्द भी कहे । क्रुद्ध होकर औरंगजेब ने शंभाजी, उसके मंत्री एवं अनेक पदाधिकारियों को मार्च, 1689 में दक्षिण-पूर्वी प्रांत । उत्तरी प्रांत में सूरत से लेकर पूना तक का इलाका था। इसके प्रशासक त्रियम्बक पिगले थे। दक्षिणी प्रांत में समुद्रतटीय इलाके तथा कोंकण प्रदेश शामिल था। इसकी देखभाल अन्नाजी दत्तो के जिम्मे थी। सतारा, कोल्हापुर, बेलगाँव और धारवार के इलाके दक्षिण-पूर्वी प्रांत में रखे गए एवं इनकी व्यवस्था का भार दत्तोजी पंत को सौंपा गया। प्रांतीय अधिकारियों का कोई अलग संवर्ग नहीं था, बल्कि विभिन्न मंत्रियों को ही प्रांतीय प्रशासक का उत्तरदायित्व सौंपा जाता था। स्वराज्य के अतिरिक्त नवविजित क्षेत्रों को एक प्रांत के रूप में अलग से संगठित किया गया था। इस प्रांत में (मुगलई) मैसूर का उत्तरी, मध्यवर्ती और पूर्वी भाग, मद्रास (चेनई) का वेलारी जिला, चित्तूर और आर्काट के क्षेत्र रखे गए। कुछ अन्य क्षेत्रों, जैसे दक्षिण धारवार, बेदनौर इत्यादि पर भी शिवाजी का अधिकार था, परन्तु इन्हें किसी प्रांत के रूप में संगठित नहीं किया गया।

प्रांतों से छोटी प्रशासनिक इकाई परगना थी। एक परगना में अनेक ग्राम होते थे परगना का प्रशासन देशमुख सैनिक अधिकारियों एवं स्थानीय कर्मचारियों के अधीन था। गांवों की व्यवस्था पटेल और प्राम-पंवायतें देखती थीं। मामों को प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की गई थी।

शिवाजी द्वारा स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था दोषमुक्त नहीं थी। मराठा राज्य शक्ति और शिवाजी के व्यक्तित्व पर आधृत था। इसे लोक कल्याणकारी राज्य नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए अनेक विद्वानों ने शिवाजी के राज्य को ‘लड़ाकू’ अथवा ‘लुटेरा’ राज्य कहा है। मंत्रियों को भी आवश्यकता से अधिक अधिकार दिए गए। भूमि-व्यवस्था में जागीरदारों और जमींदारों का प्रभाव पूर्णतः समाप्त नहीं किया जा सका। राज्य की आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा जनहित के लिए कोई ठोस कार्य नहीं किए गए। फलतः शिवाजी का राज्य मूलतः सेना और राजा के व्यक्तित्व पर ही आधृत रहा। जब तक शिवाजी जिंदा रहे अपनी योग्यता के बल पर इसे बनाए रखे परंतु, उनकी मृत्यु के साथ मराठा राज्य की कमजोरियां सामने आने लगीं।

शिवाजी के कार्यों का एक मूल्यांकन

(An Estimate of the works of Shivaji)

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में जितने भी शासक हुए हैं उनमें शिवाजी का नाम अग्रणी है । एक राज्य संस्थापक एवं प्रशासक के रूप में उनकी तुलना किसी भी महान् शासक से की जा सकती है। शिवाजी में अनेक व्यक्तिगत गुण थे। वह वीर, साहसी और नीति-निपुण थे। अपने अदम्य साहस और सूझ-बूझ के बल पर एक साधारण जागीरदार से वह मराठा राज्य के संस्थापक बन गए। उनकी शक्ति और पराक्रम के आगे दक्षिण की शिया रियासतों और मुगलों ने भी घुटने टेक दिए। औरंगजेब जैसा शक्तिशाली और साधनसंपन्न सम्राट भी उनके उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक नहीं बन सका। शिवाजी के आलोचकों ने उन्हें पहाड़ी चूहा, अथवा ‘लुटेरा’ एवं ‘अलाउद्दीन और तैमूर लंग का हिन्दू संस्करण’ कह कर उनकी निंदा की है। यह सत्य है कि उन्होंने धर्म से राजनीतिक लाभ उठाया; परंतु वह कट्टरपंथी नहीं थे। उनकी धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा खफी खाँ जैसे आलोचक भी करते हैं। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य था मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना जगाना । मराठा इतिहास इसके लिए उनका सदैव ऋणी रहेगा।

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