तुलसीदास की भाषा | तुलसीदास की शैलीगत विशषताएँ | तुलसी के काव्य की छन्द विधान की विशषताएँ

तुलसीदास की भाषा | तुलसीदास की शैलीगत विशषताएँ | तुलसी के काव्य की छन्द विधान की विशषताएँ

तुलसीदास की भाषा एवं शैलीगत विशषताएँ

तुलसी का कलापक्ष –

तुलसीदास को भाव के क्षेत्र में जितनी सफलता प्राप्त हुई है, उतनी ही उनको कला के क्षेत्र में भी प्राप्त हुई है। कला के क्षेत्र में भी वे एक देदीप्यामान नक्षत्र हैं। महाकवि हरिऔध ने उन्हें सर्वतोमुखी प्रतिभा का कवि कहा है- “हिन्दी काव्य क्षेत्र में तुलसी जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा लेकर कोई कवि अवतीर्ण नहीं हुआ। हिन्दी की कवि परम्परा मे उनका स्थान सर्वोपरि है। भारत के इस सपूत की लेखनी का स्पर्श पाकर कविता जैसे कृत-कृत्य हो उठी।

वस्तुतः-

“कविता करके तुलसी न लसे कविता लसी पा तुलसी की कला।”

श्रीयुत् सारंग ने तुलसी की कलात्मकता पर प्रकाश डालते हुए कहा है- “तुलसी की भावभूमि जहाँ इतनी व्यापक है, महान् है, वहाँ उनकी अभिव्यंजना शक्ति में उतनी ही गहनता और तीव्रता है। इतना अवश्य है कि तुलसी ने काव्य का वह विकृत रूप हमारे सामने नहीं रखा जो हमारे हृदय में मर्मस्थल को स्पर्श तहीं करता, रस का उद्रेक करते हुए हमारी अनुभूतियों को नही जगाता वरन् कुतूहल मात्र ही उत्पन्न करता है। इसलिए तुलसी की वाणी, शब्दों की कलाबाजी और उक्तियों की झूठी तड़क-भड़क में नहीं उलझी।” तुलसी से पूर्व काव्य की भाषा अव्यस्थित, अनगढ़ एवं विशृंखलित थीं कबीर की भाषा सधुक्कड़ी होने के कारण, उसमें अरबी फारसी आदि के शब्दों का समावेश था। उनकी भाषा कला का स्पर्श तक नहीं कर पायी थी। सूफी कवियों जायसी आदि की भाषा यद्यपि अवधी थी परन्तु इन कवियों की भाषा में तुलसी कला नहीं थी। उनकी भाशा भी लोक-जीवन के व्यवहार की भाषा थी। तुलसीदास ने अपनी भाषा को प्रवाहमयता, कमनीयता, सजीवता एवं शालीनता, से भरकर भाषा को समृद्ध किया।

तुलसीदास का भाषागत सौन्दर्य-तुलसीदास का ब्रज व अवधी दोनों भाषाओं का समान अधिकार है। ब्रज, एवं अवधी दोनों ही भाषाओं को उन्होंने अपने काव्य का माध्यम बनाया। रामचरितमानस परिष्कृत अवधी का ज्वलंत उदाहरण हैं विनयपत्रिका, गीतावली आदि में ब्रजभाषा का जीवित रूप व्यंजित होता है। तुलसीदास ने जहाँ अपने काव्य में कोमलकान्त पदावली का प्रयोग किया है वहाँ ओज की भी सुन्दर अव्यंजना उन्होंने अपने काव्य में की है।

भाषा की प्राञ्जलता एवं परिष्कृतता-

तुलसी दास की भाषा में प्राञ्जलता एवं परिष्कृतत्व का पूर्ण योग है। वस्तुतः तुलसी ने अवधी एवं ब्रजभाषा में प्राञ्जलता व परिष्कृतता की वास्तविकता को समावेशित किया। तुलसी की भाषा में ओज, प्रसाद और माधुर्य तीनों गुण हैं। एक ओर अवधी की ठेठ मिठास है तो दूसरी ओर संस्कृत की कोमलकान्त पदावली की नूतन छटा है।

देखिए-

कन्दर्प अगणित अमित छवि, नव नील नीरज सुन्दरम्।

पट पीत मानहु ताड़ित रूचि शूचि नौमि जनक सुताम्बरम्॥

विविध भाषाओं के शब्दों का प्रयोग – तुलसीदास ने अपनी भाषा में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, उर्दू, फारसी, राजस्थानी, गुजराती, बुन्देलखण्डी, भोजपुरी आदि भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है।

यथा- (i) मसक की पाँसुरी पयोधि परियत है-

(ii) रामबोला नाम हो गुलाम रामसाहिब को-

प्रचलित मुहाबरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग-

मुहावरे एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में सजीवता एव सशक्तता आ जाती है। तुलसीदास ने अपने समय में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग अपनी भाषा में खूब किया है- एक-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं-

(i) बात चले बात को न मानिवो बिलग, बलि,

काकी सेवा रीझि कै निवाजी रघुनाथ जू॥

(ii) पल टारति नाहीं

(iii) प्रसाद पाय राम को पसारि पाँय सूति हो।

प्रचलित लोकोक्तियों का प्रयोग भी तुलसीदास ने खूब किया हैं इन लोकोक्तियों के प्रयोग ने इनकी भाषा में प्राण डाल दिए है। देखिए-

(अ) अंजन कहा आँख जेहि फूटे बहुतन कहौ कहाँ करै।

(ब) तुलसीदास सावन के अंधेहि जो सूझत रंग हर्यौ।

(स) लैवे को एक न दैवे को दोऊ।

छन्द विधान-

भाषा के समान ही छन्दों पर भी तुलसी का अधिकार था। तुलसीदास ने अपने समय की प्रचलित सभी शैलियों को अपनाया हैं तुलसी के छन्द विधान के सम्बन्ध में डॉ0 गुलाबराय का मत है कि-“प्रबन्धकाव्य के लिए उन्होंने जायसी की दोहा, चौपाई, शैली की प्रतिष्ठा बढ़ाई, नीति के लिए कबीर की और उनसे पूर्व से चली आती हुई दोहा शैली को अपनाया। सहज में याद रखने के कारण नीति के लिए दोहे उपयुक्त ठहरते हैं श्रृंगारिक और अलंकारिक भावनाओं के लिए रहीम के बरवै छंद को अपनाया गया है। राम के यश-गान के अर्थ भाटों की कवित्त शैली को अलंकृत किया है। युद्ध-वर्णन के लिए वीर-गाथा काल की छप्पय शैली को वे काम में लाए।”

शैली-

शैली की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य शरीर परिपुष्ट है। वह सवैया रसानुरूप, पात्रानुरूप तथा स्थिति स्थान और अवसर के अनुकूल है।

भौतिक गुण उसकी ऋजुता, उसकी सरलता, उसकी सुबोधता, उसकी निव्यंजिता, उसकी अलंकारप्रियता, उसकी चारुता, उसकी रमणीयता और उसका प्रवाह है। ऐसा प्रतीत होता है कि शैली की ये विशेषताएं अपेक्षाकृत उनके जीवन का एक प्रतिरूप उपस्थित करती हैं। ये वास्तव में कवि के सुलझें एक मस्तिष्क को उसके सादे जीवन और उच्च विचार के आदर्श को, उसकी स्वभावगत सरलता एवं आडम्बरविहीनता को उसके ध्येय की एकाग्रता को और इन सबसे भी अधिक अपने विषय में उसकी पूर्ण आत्म-विस्मृति और उसके साथ पूर्ण तल्लीनता को किसी अन्य वस्तुत की अपेक्षा व्यक्त करती है। इस प्रकार तुलसी का व्यक्तित्व उनकी शैली में भली-भाँति मूर्तिमान है।”

तुलसी द्वारा विभिन्न पद्य-शैलियों के सफल विधान की ओर जब हम दृष्टि डालते हैं तब बिना चकित हुए नहीं नहीं रह सकते। अपने समय की सभी प्रचलित-शैलियों पर उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ हैं।

गीति शैली-विद्यापति की गीति शैली पर आधारित एक उदाहरण दीजिए-

जननी निरखत बान-धनुहिया।

बार-बार उन-नैननि लावत प्रभु जी की ललित पनहिया।

पद शैली- जाउँ कहाँ तजि चरण तिहारे।

काको नाम पतित पावन जग, केहि अति दीन पियारे।

प्रबन्धात्मक मुक्त शैली-

तुलसी ने मुत्तक और प्रबन्ध दोनों ही शैलियों में काव्य की रचना की है। दोहावली, बरवै रामायण, कवितावली, कृष्ण गीतावली तथा विनयपत्रिका आदि कृतियों की रचना तुलसीदास ने मुक्तक शैली में की है।

हिन्दी-साहित्य में प्रबन्ध सौष्ठव की दृष्टि से तुलसी का स्थान सर्वोपरि है। ‘रामचरितमानस तुलसी का ही नहीं हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। भावना और आदर्श के मापदण्ड के अनुसार तो यह विश्व साहित्य की श्रेष्ठतम रचना कही जा सकती है।

वस्तु-वर्णन-

इसमें तुलसीदास जी ने रूप, व्यवहार संस्कृति और प्रकृति का अत्यन्त हृदयस्पर्शी वर्णन किया है। वस्तु के रूप में तुलसी ने अपनी कृतियों में प्रायः राम की कथा अथवा राम की भक्ति से ओत-प्रोत अपनी भावना सांसारिक समस्याओं के बीच उनमें विचारों को ही साकार रूप दिया है। कहीं पर तुलसी की कृतियों की वस्तु में विषय साधनावस्था में है तो कहीं सिद्धावस्था में और कहीं दोनों समन्वित हैं। यह मूल विषय भी कहीं बिल्कुल प्रत्यक्ष और अभिधात्मक स्वर में व्यक्त है तो कहीं एकदम अप्रत्यक्ष और सूक्ष्म व्यंजनात्मक रूप में ऐसे रूप में मूल विषय के विशाल आधारफलक पर कवि को जीवन दर्शन की छाया के अन्तर्गत ही ऊपर की पालिश की चकाचौंध के भीतर कुछ सूझ सके।

अलंकार-

“भूषण बिन न विराजही कविता वनिता-मित्त” की भाँति तो नहीं परन्तु तुलसी ने सभी अलंकारों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। वस्तुत: बात यह है कि वे अलंकारों के आग्रही नहीं थे, बल्कि विषय के वर्णन में जिस प्रकार से भाषा में गति एवं प्रावाह आता गया, विविध अलंकार स्वतः उसमें सन्निविष्ट होते गए। उदाहरण देखिये।

शब्दांलकारों के अतिरिक्त अर्थांलकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सन्देह, भ्रांतिमान,

प्रतीप, व्यतिरेक, अतिशयोक्ति, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, असंगति आदि अनेक अलंकारों का सफल प्रयोग किया है।

अनुप्रास-

‘जानकी जावन को जन है जरि जाऊ सो जिह जो जाँचत औरहि।’

व्यतिरेक-

“सम सुवम सुषमा का सुखद न थोर।”

उपमा-

तुलसीदास के उपमा अलंकार के विषय में महाकवि हरिऔध ने लिखा हैक “रामचरित मानस का कोई पृष्ठ कठिनता से मिलेगा जिसमें किसी सुन्दर उपमा का प्रयोग न हो। उपमाएं साधारण नहीं हैं, वे अमूल्य रत्न हैं देखिए-

“नील सरोरुह श्याम, तरुण अरुन वारिज नयन।

करहु सो मय उर धाम, सदा क्षीर सागर सयन।”

यमक-

‘मूरति मधुर मनोहर देखी, भयऊ विदेह विदेह विसेखी।’

विभावना –

“बिनु पद चले सुनै बिन काना, कर बिनु कर्म करै विधि नाना।

आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।”

निष्कर्ष-

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि तुलसी को जहाँ भावपक्ष के निरूपण में अजर- अमर कीर्ति प्राप्त हुई है वैसी ही कला-पक्ष के निरूपण में। वस्तुतः तुलसी के काव्य में भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष का मणिकांचन संयोग है। अन्ततः तुलसी काव्य भाव एवं कला-सौष्ठव की दृष्टि से हिन्दी काव्य का प्राण हैं। इसके अभाव में हिन्दी काव्य का सौन्दर्य कपूर की भाँति विलीन हो जाएगा।

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