तुलसीदास की भक्ति भावना | तुलसीदास की भक्ति पद्धति के स्वरूप का वर्णन | रामभक्त कवि के रूप में तुलसीदास की भक्ति का मूल्यांकन

तुलसीदास की भक्ति भावना | तुलसीदास की भक्ति पद्धति के स्वरूप का वर्णन | रामभक्त कवि के रूप में तुलसीदास की भक्ति का मूल्यांकन

तुलसीदास की भक्ति भावना

भक्ति-रस का पूर्ण परिपाक जैसा तुलसीदास में देखा जाता है वैसा अन्यत्र अप्रार्यप्त है। भक्ति में प्रेम के अतिरिक्त आलम्बन के महत्त्व व अपने दैन्य का अनुभव परमावश्यक अंग है। तुलसी के हृदय-पटल एवं मनोविज्ञान से इन दोनों अनुभवों के ऐसे निर्मल शब्द-स्रोत निकले हैं, जिसमें अवगाहन करने से मन की मैल कटती है एवं शुष्क पवित्र प्रफुल्लता आती है।

भक्ति भावना-

तुलसी की भक्ति-भावना में सर्वप्रथम बात यह है कि उसमें अवलम्बन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए उसे अनन्त सौन्दर्य, शक्ति एवं शील का समन्वित रूप बताया गया है। तुलसी दास जी कहते हैं-

सील निधान सुजान शिरोमणि सरनागत प्रिय प्रनतपालु।

को समर्थ सर्वज्ञ सकल प्रभु सिय सनेह मानस मरालु॥

गोस्वामी जी ने अनन्त सौन्दर्य का साक्षात्कार करके उसके भीतर ही अन्नत शक्ति एवं अनन्त शील की वह झलक दिखायी है, जिससे लोक का आमोद-पूर्ण परिचालन होता है। आपके राम में सौन्दर्य, शक्ति व शील तीनों की चरम अभिव्यक्ति एक साथ समन्वित होकर मनुष्य के सम्पूर्ण हृदय को उसके किसी एक अंश को नहीं-आकर्षित कर लेती है। तुलसी के अनुसार अनन्त शक्ति और सौन्दर्य के मध्य से अनन्त शील की आभा फूटती देखकर जिसका मुग्ध न हुआ, जो भगवान की लोकरंजन मूर्ति के ध्यान में कभी लीन न हुआ, उसकी प्रकृति की कटुता बिल्कुल दूर नहीं हो सकती-

“सूर, सुजान, सपूत, सुलच्छन, गनियत गुन गरुआई।

बिनु हरि-भजन इन्दारुसन के फल, तजत नहीं करुआई।

तुलसी के आदर्श- शक्ति सौन्दर्य समन्वित इस शील की प्रतिष्ठा से गोस्वामी जी ने भक्ति का नया आदर्श खड़ा कर दिया है। इससे भगवान के चरम महत्त्व का दर्शन होता है। इस महत्त्व को देखकर भक्त के हृदय में दैन्य, आत्मसमर्पण, आत्मग्लानि, अनुताप के सान्निध्य से उस महत्त्व में लीन होने के लिए अनेकानेक आन्दोलन उत्पन्न होते हैं। कभी अनन्त रूप-राशि के अनुभव से प्रेम-पुलकित हो जाता है, कभी अनंतशील की झलक पाकर आश्चर्य व उत्साहपूर्ण होता है, कभी अनंत शील की भावना से अपने कर्मों पर पछतात है और कभी प्रभु के दया- दाक्षिण्य को मन में इस प्रकार का धैर्य बंधाता है-

कहा भयो जो मन मिलि कालहि कियों भौतुवा भौंर को हौं।

तुलसीदास सीतल नित एहि बल, बड़े ठेकाने ठौर को हों।

दिन-रात स्वामी के संसर्ग में रहते-रहते जिस प्रकार सेवक की कुछ धड़क खुल जाती है उसी प्रकार प्रभु के सतत् ध्यान में जो सानिध्य की अनुभूति भक्त के हृदय से उत्पन्न होती है, वह उसे कभी-कभी मीठा उपालंभ भी देती है। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। वह शक्ति, सौन्दर्य और शील के अनंत समुद्र के तट पर खड़ा होकर, लहरें लेने में ही जीवन को परम सफल मानता है-

इहै परम फल, परम बड़ाई।

नख-सिख रुचिर बिंदुमाधव छवि निरखहिं नयन अघाई।।

भक्त की आकांक्षा यह है कि प्रभु के सौन्दर्य शक्ति आदि की अनन्यता की जो मधुर भावना है वह अबोध रह- उसमें किसी प्रकार की न्यूनता न आने पाये क्योंकि न्यूनता आने पर उसे पछतावा होगा कि प्रभु की अनन्त शक्ति की भावना बाधित हो गयी-

नाहिंन नरक परत मो कहं डर जद्यपि हों प्रति हारो।

यह बडि त्रास वास तुलसी प्रभु नामह पाप न जारो॥

राम के भक्त-

तुलसी राम के अनन्य भक्त थे। जहाँ-कहीं इन्हें राम का यश गाने को मिला, उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। राम का वर्णन करते समय यत्र-तत्र किंचित-मात्र भी उन्हें मर्यादा समबन्धी शंका-संदहे दृष्टिगत हुआ, वे राम के अधिवक्ता के रूप में बिना निवारण किये अग्रसर नहीं हुए। उदाहरणतः फुलवारी वर्णन में राम केवल नूपुर की मधुर ध्वनि श्रवित होने पर आकर्षित हो गये थे-

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि-सुनि, कहत लषन सम राम हृदय गुनि।

राम लक्ष्मण से कहते हैं-

जासु बिलोकि अलौकिक शोभा, सहज पुनीत मोर-मन छोभा।

सो सब कारन जानु विधाता, फरकहिं सुभग अंग सुन भ्राता॥

तुलसी राम के वकील थे अतः उनके लिए यह मर्यादा भंग असह्य था। फलस्वरूप आपने प्रीति पुरातन लखै न कोई’ कहकर यह अंगित कर दिया कि यह पवित्र प्रेमाकर्षण प्राचनी है।

राम अपने विमुखों को भले ही क्षमा कर दें परन्तु तुलसीदास को यह कैसे ग्राह्य था, उन्होंने राम के विरोधियों को खूब खरी-खोटी सुनाई। आखिरकार राम के भक्त ठहरे, विरोध कैसे सह सकते थे। तुलसीदास के मतानुसार भगवच्चरणारबिन्दों से विमुख होकर किसी को सुख प्राप्य नहीं। अतः तुलसी सर्वस्व त्याग कर राम के सेवक बनना चाहते हैं-

तुलसीदास सब आस छाँड़ि कर होई राम कर चेरो।

अपने प्रभु के साथ तुलसी दास की भाँति, विनय व दीनता के गुण अपनी चरम सीमा पर पहुंच गये हैं और उनके साथ भावुकता भी-

मैं हरि पतित-पावन सुने

मैं पति, तुत पतित-पावन, दोऊ बानक बने।

सगुणोपासाना का निरूपण-

भक्त कंठ तुलसी को सगुणरूप विशेष प्रिय था।अपनी सगुणोपासना का निरूपण आपने कई ढंग से किया है। मानस में नाम व रूप दोनों को ईश्वर की उपाधि कहकर वे उन्हें उसकी अभिव्यक्ति मानते हैं-

नाम रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साथी।

नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परत बखानी॥

तुलसी ने भक्ति और सगुणोपासना को केवल साधन नहीं माना, वरन् साध्य भी माना है। निर्गुण और अलका ब्रह्म उन्हें कुछ अँचता ही नहीं देखिए, एक अलख अलख पुकारने वाले साधु से वे क्या कहते है-

हम लखि, लखहिं हमार, लखि हम हमार के बीच।

तुलसी अखलहिं का लखहिँ? रामनाथ जपु नींव।।

वे सदैव अपनी अक्षमता एवं अपने प्रभु की महिमा की ओर ही इंगित करते मिलते हैं। विनयपत्रिका के आरम्भ में आपने समस्त देवताओं की स्तुति की है-

सर्व देवः नमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति।

परन्तु अन्तोतोगत्वा सबसे यहीं माँगते हैं-

माँगत तुलसिदास कर जोरे, बहु राम सिय अनुदिन मोरे।।

गोस्वामी जी की भक्ति उनके ग्रन्थों में प्रत्येक स्थान पर झलकती है। भले मनुष्यों का तो कहना ही क्या, वह दुष्ट राक्षसों तक को भी भक्त ही कहते है और यह बात प्रायः हर एक के मरते समय कह देते हैं-

भरती बार कपट सब त्यागा।

आपके अनुसार सत्संग के बिना भक्ति, विवेक और मान-हानि नहीं हो सकती-

बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कथा निज सुलभ न सोई।

भक्ति मार्ग-

तुलसी के अनुसार भक्ति के दो मार्ग है? यह तो राम तुम्हें अच्छे लगे अथवा तुम राम को अच्छे लगे।

की तोंहि लागहिं रामप्रिय तुष्राम प्रिय होहि।

हुई मँह रुचै जो सुगम सोई, कीवे तुलसी तोहि।

भागवान की भक्ति के लिए प्रेम की भी आवश्यकता हैं तुलसीदास चातक प्रेम की आदर्श प्रेम मानते है-

एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास

एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास।

आपको समस्त संसार राममय दृष्टिगत होता है-

भक्ति पद्धति की विशेषता-

गोस्वामी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वाङ्गपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है न उसका कर्म या धर्म से विरोध, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्य लक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म तथा ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं। योग का भी उसमें समन्दय है कि भक्ति की चरम सीमा पर पहुँच कर भी लोकसंग्रह उन्होंने नहीं छोड़ा। लोकतंत्र का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था।

राम-भक्ति से तुलसी का यह अभिप्राय नहीं था कि समस्त लोक सर्व कार्य परित्याग कर, केवल राम-नाम जपे तथा दरिद्र गृहस्थों पर बोझ होकर रहें-

प्रीति राम सो, नीतिपथ, चलिय रागरस नीति।

कुल भी सन्तन, के मते, इहैं भगत की रीति॥

आपके अनुसार यदि जगत् से नाता जोड़ना है तो राम से नाता जोड़ना उचित होगा क्योंकि-

नाते नेह राम के मुनियत पूज्य सुसेब्य जहाँ लौं।

अंजन कहा आँखि जो फुटै बहु तक कहौं कहाँ लौं।

तुलसी के मत में हरि भक्ति प्रधान है एवं हरि भक्ति ऐसी है जो श्रुति सम्मत तथा विरक्ति और विवेकयुक्त हैं, मानव नहीं अपितु जीव मात्र के कल्याण की साधिका है। उसमें व्यक्ति धर्म एवं मानव धर्म के मूल सद्धिान्तों का समन्वय है एवं भारतीय-संस्कृति की महत्ता का दिग्दर्शन है। दृष्टांततः तुलसीदास की वाणी साधारण कविता नहीं, वरन् उच्चादर्शी, अनुभवगम्य सिद्धान्तों और भक्ति-भावों की अलौकिक रत्न-मंजूषा हैं इस वाणी पर सुरसिकर सारंगमणि जी भी एक अनुठा कवित्त लिख गये है।-

कीरति हरी की मुख नैन तें बही की ‘रसरंग’,

तारनी की धार सरजू सरी की है।

काटनी कसी की दिये आस फाँसरी की मुख्य,

म्यान में बसी को चोखी पत्रिका असी की है।

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