इतिहास / History

पल्लव मन्दिरों की प्रमुख विशेषताएं | पल्लव मूर्ति कला | पल्लव मूर्ति कला पर संक्षिप्त टिप्पणी

पल्लव मन्दिरों की प्रमुख विशेषताएं | पल्लव मूर्ति कला | पल्लव मूर्ति कला पर संक्षिप्त टिप्पणी

पल्लव मन्दिरों की प्रमुख विशेषताएं

दक्षिण भारत में कला के क्षेत्र में पल्लव-काल से एक नवीन युग का प्रारम्भ होता है। पल्लव कला भारतीय इतिहास की महान् देन है। पल्लव वंश के शासक शैव धर्मावलम्बी थे। अतः उन्होंने अनेकों देवालयों का निर्माण करवाया था। पल्लवकालीन मन्दिरों में कला की दृष्टि से चार शैलियाँ प्रचलित थीं- (1) महेन्द्र शैली, (2) नरसिंह (नामल्ल) शैली, (3) राजसिंह शैली एवं (4) अपराजित शैली ।

  1. महेन्द्र शैली- इस शैली में निर्मित मन्दिर ठोस चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं। इस कला की शैली की प्रमुख विशेषतायें हैं–वृत्ताकार लिंग, विशिष्ट प्रकार के द्वारपाल एवं प्रभातोरण । महेन्द्र शैली में गुहा मन्दिरों का निर्माण हुआ। ये मन्दिर अपनी सादगी एवं सरलता हेतु भी प्रख्यात हैं।
  2. नरसिंह शैली- पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन प्रथम ने अपनी उपाधि महामल्ल के नाम पर मामल्लपुरम नगर स्थापित किया था और नरसिंह कला शैली की स्थापना की। उसने मामल्लपुरम में पाण्डवों के नाम पर पाँच मन्दिर बनवाये थे। इस शैली में रथ मन्दिर निर्मित किये गये थे। इन मन्दिरों में ‘शोर मन्दिर’ विशेष उल्लेखनीय है। इस मन्दिर में गर्भगृह आगे हैं तथा मण्डप पृष्ठ में है। मण्डप एवं गर्भगृह दोनों पर शिखर बना हुआ है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर भव्य अलंकरण किया हुआ है।
  3. राजसिंह शैली- राजसिंह शैली में पल्लव रेश राजसिंह ने काँची में कैलाशनाथ मन्दिर बनवाया था। इस मन्दिर के अतिरिक्त “बैकुण्ठ क पैरूमल मन्दिर” महाबलीपुरम् का मन्दिर भी राजसिंह शैली के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। इस शैली में मन्दिरों का निर्माण पाषाणों एवं ईंटों से हुआ है। मन्दिरों के नी वे का भाग पाषाण का तथा ऊपर का भाग ईंटों से निर्मित है। इन मन्दिरों के शिखर पिरामिडाकार के हैं तथा छत सपाट हैं।
  4. अपराजित शैली- इस शैली की स्थापना पल्लव नरेश अपराजित वर्मन ने की थी। अपराजित शैली की मुख्य विशिष्टता पर है कि देवालयों के लिंग ऊपर की ओर पतले होते गये हैं एवं शिखरों की गर्दन पूर्व की अपेक्षा स्थूल होती गयी है। इस शैली का श्रेष्ठतम उदाहरण है-तन्जौर का रामराज मन्दिर ।

निष्कर्ष रूप में, पल्लव कला शैली के अन्तर्गत, अत्यन्त भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ। आगे चलकर इस कला में जावा, सुमात्रा एवं अनाम’ इत्यादि के मन्दिरों की कला को भी प्रभावित किया।

पल्लव मूर्ति कला पर संक्षिप्त टिप्पणी

यहाँ जो रथों का निर्माण हुआ, उनकी रचना शैली से यह स्पष्टत: ज्ञात होता है कि इसका निर्माता मूलतः मूर्तिकलाकार रहा होगा । रथों में वास्तुकला एवं मूर्तिकला एक-दूसरे के पूरक हैं। रथों में आलों का आधिक्य है जो ब्राह्मण देव मूर्तियों से अलंकृत हैं। अन्त भाग में अनेक मूर्तिपट्ट हैं जो पौराणिक कथाओं का चित्रण करते हैं। इन मूर्तियों में जो गति, भाव, संकेत एवं लय है वह अमरावती कला से प्रभावित है।

पल्लव मूर्तिकला के वर्ण्य विषय मुख्यतः ब्राह्मण देवता, पौराणिक कथाएँ, पाश्र्वदेवता, प्राकृतिक दृश्य, वन्य पशु तथा किंचित राजनीतिक व्यक्तित्व हैं। पल्लव शिल्पियों ने मन्दिरों में शासकों तथा उनकी महारानियों की मूर्तियों का भी निर्माण किया है जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। आदि वराह रथ में महेन्द्रवर्मन् तथा उसकी महारानी एवं धर्मराज रष में नरसिंहवर्मन् की शासकीय मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं।

ब्राह्मण देव मण्डल में कलाकारों ने सर्वाधिक महत्व शिव को प्रदान किया है। पल्लव ने सिंहवाहिनी शक्ति को तो वंश शक्ति के रूप में चित्रित किया है। शिव-पार्वती की मूर्तियाँ विविध मुद्राओं में प्राप्त होती हैं।

गंगावतरण- 96×43′ के विशाल ग्रेनाइट पाषाण संड पर भगीरथ की तपस्या तथा हिमालय से गंगावतरण का दृश्य मनोहारी रूप में उक्ति है जो सजीवता का सर्वोत्तम उदाहरण है। अस्थिमात्र अदशिष्ट भगीरथ गंगा को हिमालय से भूतल पर लाने के लिए तपस्था में निमग्न हैं; उनके साथ सम्पूर्ण दिव्य एवं पार्थिव जगत यहाँ तक कि पशु भी उसी प्रकार तपस्यारत हैं। जिस प्रकार गंगा हिमालय से उतर कर समुद्र में विलीन होती हैं, मानव-दृष्टि में वह अनन्त हैं, उसी प्रकार इस मूर्ति-फलक का निर्माण ऐसे किया गया है कि एक स्थान से इसका दूसरा अन्त दृष्टव्य नहीं है। गंगावतरण से सम्पूर्ण जीव एवं अजीब प्रफुल्लित हैं; हस्ति, अन्य जीव, आकाश देव, भू-मानव, लहर-नाग तथा सभी रचनाएँ शिव के परोपकार की कृतज्ञता ज्ञापित कर रही हैं। पशु-भास्कर्य तो यहाँ अत्यन्त ही आकर्षक हैं। इनके गत्यात्मक अस्तित्व एवं अन्तःभावों में पूर्ण एकात्मकता है। देवता. पर्जन्यवत प्रसन्नता से उड़ रहे हैं, उनके ऊपर एवं नीचे पशु-मूर्तियाँ आह्लादित मुद्रा में खड़ी हैं। डॉ. जिम्बर ने इस मूर्ति फलक को हिन्दू दर्शन एवं पुराण कथाओं में वर्णित ब्रह्मवादी विचारधारा का प्रतिरूप माना है। सम्पूर्ण विश्व सजीव है, मात्र जीवन-विधि में भिन्नता है; प्रत्येक वस्तु दिव्य जीवनसत्त्व एवं शक्ति से एक अस्थायी परिवर्तनशील प्रक्रिया के रूप में संचालित लेती है; सभी. ब्रहा की माया की विश्वव्यापी क्रिया के अंग हैं।

इस मूर्तिपट्ट के नीचे एक सरोवर के तट पर बन्दरों की विविध मुद्राएँ स्वाभाविक रूप से चित्रित हैं। कलाकार ने गंगावतरण दृश्य में दिव्य-मानव पजु भगत का अद्भुत चित्रण किया है।

महिषमर्दिनी दुर्गा- महिषमर्दिनी दुर्गा की मूर्ति जो ललित कला संग्रहालय बोस्टन में आज सुरक्षित है, पल्लव शैली के गौरवपूर्ण उदाहरण है। मूर्ति में वास्तविकता है। ‘महिष के ऊपर दुर्गा विजय प्राप्त करने के लिए आतुर है,’ इसी दृश्य में यह मूर्ति अविस्मरणीय है। दुर्गा की स्त्री सुलभ सुकुमारता, भव्यता, क्रीड़ात्मक सहजता एवं आत्मविश्वास एक गहन तत्त्वज्ञानीय सत्य को प्रतिध्वनित करते हैं। पौराणिक कथानुसार देवी महिष के सिर पर खड़ी हैं; इनके आठ हाथ हैं; हाथों में धनुष, चक्र, त्रिशूल इत्यादि आयुध अलंकृत हैं; मूर्ति करण्ड मुकुट, हार, मेखला, कंगन से सुसज्जित है। यह मूर्ति प्रारम्भिक पल्लवों की कृति प्रतीत होती है। जिस आन्ध्र कला का पूर्ण प्रभाव है। मूर्ति शारीरिक संतुलन, गति, खिंचाव तथा हस्त संकेत की दृष्टि से पूर्ववर्ती मूर्तियों से अपेक्षाकृत अधिक सफल है। उसमें यदि नारी सुलभ कोमलता है तो दुर्गा की शक्ति दैवी भव्यता एवं पवित्रता भी है।

अनन्तशायी विष्णु- इस मूर्तिपट्ट में परमेश्वर की ब्रह्माण्डीय निद्रा उड़ते हुए गन्धर्वो, लक्ष्मी तथा अन्य देवियों की लज्जा की विभिन्न मनोवृत्तियों एवं युगल दैत्यमधु-कैटभ द्वारा युद्ध के लिए उद्यत दृश्यों की प्रतिकूलता से भी अविजित है। मधु तथा कैटभ जैसे देवता के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे हैं। देवता आदि शेष पर शयन कर रहा है, उसके ऊपर गदा एवं चक्र आयुध पुरुष राक्षसों पर दृष्टि रखे हैं। आदि शेष के नीचे भृगु तथा मार्कण्डेय घुटनों पर झुके प्रार्थना कर रहे हैं। विष्णु का 1/4 सिर भाग ऊपर उठा है। किन्तु शरीर का ¾ भाग आदि शेष है। उनके चार हाथ हैं। मूर्ति को किरीट मुकुट, हार, गुण्डल तथा यज्ञोपवीत से अलंकृत किया गया है।

उपर्युक्त मूर्तियों के अतिरिक्त महाबलिपुरम् तथा कांची से अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो दक्षिण भारतीय द्राविड़ मूर्ति शिल्प की आधारशिला है। पल्लव मूर्तियों की नमनीय लम्बाई, अंगों की सुकुमारता, उदर की क्षीणता, वक्ष एवं स्कन्धों की संकीर्णता मूर्ति में आश्चर्यजनक हल्कापान प्रदान करती हैं। देव तथा गन्धर्व मूर्तियाँ तो इन विशेषताओं के लिए विख्यात हैं। यहाँ तक कि पुरुष मूर्तियों में भी स्त्री सुलभ सुकुमारता है जिससे कलाकारों की रुचि का अनुमान लगाया जा सकता है। सिर पर लम्बे एवं नोकदार मुकुट हल्कापन में और वृद्धि करते हैं।

मामल्लपुरम की शिल्प विधि दो अवस्थाओं में प्राप्त होती है। सर्वप्रथम कलाकार अपनी छेनी से नियमित एवं आवश्यकतानुकूल ढाँचे में पूरी शिला को आकार मूलक संरचना में विन्यस्त करता था। पुनः संरचना को चौकोर फलक, या विविक्त स्थान में आकृतियों को चपटे तल पर इस प्रकार नियोजित करता था जैसे कि मूर्ति अनगढ़ चट्टान के अन्दर से निकल रही हो।

पल्लव मूर्तिकला का एक प्रमुख लक्षण गीतात्मकता न कि एलोरा की भांति वीरात्मक । यदि मामल्लपुरम् एवं एलोरा की दुर्गा मूर्तियों की तुलना की जाय तो यह ज्ञात होता है कि पल्लव दुर्गा में सहजता एवं सुकुमारता है किन्तु एलोरा दुर्गा में वीरता एवं विशालता है। इसे ही पल्लवों की सौंदर्य-अवधारणा कह सकते हैं। इस प्रकार पल्लवों ने दक्षिण भारतीय संस्कृति में सुविकसित मूर्तिकला परम्परा को जन्म देकर परवर्ती द्राविड़ मूर्तिकला के लिए एक आदर्श प्रदान किया।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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