विपणन प्रबन्ध / Marketing Management

वस्तु के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाएं | नयी वस्तु की कीमत निर्धारण

वस्तु के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाएं | नयी वस्तु की कीमत निर्धारण | Different stages of the life cycle of an object in Hindi | New item pricing in Hindi

वस्तु के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाएं

वस्तु के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में कीमत नीति एक वस्तु के आविष्कार से लेकर उसके जीवन काल के अन्तिम चरण तक विभिन्न अवस्थाओं में आती है। किसी वस्तु के जीवन चक्र को छः अवस्थाओं में बाँटा जा सकता है – (1) प्रारम्भिक (2) वृद्धि (3) परिपक्वता (4) परिपूर्णता (5) पतन (6) अप्रचलन। वस्तु के जीवन चक्र की इन विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न कीमत नीति अपनायी जाती है। इनका वर्णन निम्नलिखित है।

I. नयी वस्तु की कीमत निर्धारण या अग्रणी कीमत निर्धारण

(Pricing of a New Product or Pioneer Pricing)

एक नई वस्तु का आविष्कार करके बाजार में लाकर उसके लिए माँग उत्पन्न करना एक कठिन समस्या होती है क्योंकि ऐसी वस्तु की बाजार माँग का पता नहीं होता। ऐसी वस्तु की विपणन लागतों का भी सही पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। अतः ऐसी वस्तु की कीमत निर्धारित करना भी एक महत्वपूर्ण समस्या है। प्रायः नयी वस्तु की कीमत निर्धारण के लिए दो मुख्य रीति-नीतियाँ प्रचलित हैं- (अ) ऊँची प्रारम्भिक कीमत नीति या मलाई उतारने की तकनीकी (ब) कम प्रवेशक कीमत नीति।

(अ). प्रारम्भिक उच्चतम कीमत नीति या मलाई उतारने की तकनीक

(A High Initial Price Policy or Scheme the Cream Technique)

इस कीमत रीति-नीति के अन्तर्गत नयी वस्तु का उत्पादक, जब तक प्रतिस्पर्धी बाजार में नहीं आते, तब तक वस्तु की ऊँची कीमत निर्धारित करता है। जब बाजार में नये प्रतियोगी आने लगते हैं तो वस्तु की कीमत कम कर दी जाती है। इसे ही मलाई उतारने की तकनीक कहते हैं। यह नीति इस तर्क पर आधारित है कि वस्तु के अनुसंधान पर काफी व्यय होता है और शुरू-शुरू में बाजार में प्रतिस्पर्धी भी नहीं होते। अतः वस्तु की प्रारम्भिक अवस्था में अधिक कीमत निर्धारित की जा सकती है। यह रीति-नीति उन वस्तुओं के लिए अधिक उपयुक्त होती है जिनकी प्रारम्भिक अवस्था में विज्ञान और सवंर्धन कार्यक्रमों पर अधिक व्यय करने की आवश्यकता होती है। इस रीति-नीति को अपनाने के लिए निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –

  1. कम लोचदार माँग की लोच- वस्तु जीवन चक्र की प्रारम्भिक व्यवस्था में वस्तु की माँग कम लोचदार होने के कारण कीमत ऊँची निर्धारित की जा सकती है क्योंकि ऐसी स्थिति में वस्तु नयी होती है। इस कारण ग्राहक वस्तु की कीमत को अधिक महत्व नहीं देते।
  2. प्रतिस्पर्धा का अभाव- वस्तु की प्रारम्भिक अवस्था में प्रतिस्पर्धा का अभाव होता है। दूसरे शब्दों में, एकाधिकारी जैसी स्थिति होती है। अतः ऐसी स्थिति में वस्तु की अधिक कीमत निर्धारित की जा सकती है।
  3. आय के आधार पर बाजार विभक्तीकरण- कीमत ऊँची निर्धारित करके बाजार को आय के आधार पर विभक्त किया जा सकता है। वस्तु की कीमत ऊँची होने के कारण उच्च आय वर्ग के ग्राहक जो कि कीमत के प्रति अधिक संवेदनशील नहीं होते, वस्तु क्रय करने के लिए प्रेरित होते हैं।
  4. कीमत त्रुटि में सुधार की सम्भावना- यदि कीमत निर्धारण में कोई त्रुटि रह गई है तो कीमत ऊंची होने के कारण सुधार की सम्भावना बनी रहती है, क्योंकि ऊंची कीमत को आसानी से कम किया जा सकता है।
  5. अधिक आगम एवं लाभ- वस्तु की प्रारम्भिक अवस्था में ऊँची कीमत निर्धारित करके अधिक कुल विक्रय आगम प्राप्त किये जा सकते हैं। परिणामस्वरूप प्रारम्भ में ही अधिक लाभ प्राप्त होने लगते हैं।
  6. फर्म की उत्पादन क्षमता के अनुरूप माँग- फर्म ऊँची कीमत द्वारा अपनी उपलब्ध उत्पादन क्षमता के अनुरूप माँग करने में सफल हो जाती है क्योंकि प्रारम्भ में उत्पादन क्षमता प्रायः कम हो जाती है।
  7. विलासित वस्तुओं के लिए अधिक उपयुक्त- यह नीति विलासित वस्तुओं के लिए अधिक उपयुक्त होती है।
  8. विनियोग की शीघ्र वापसी- यदि विनियोग को शीघ्र प्राप्त करना है तो इस रीति-नीति को अपनाया जाता है।

(ब) कम प्रवेश कीमत नीति

(Low Penetration Pricing Policy)

यह नीति प्रारम्भिक उच्चतम मूल्य नीति के ठीक विपरीत होती है। इस नीति के अन्तर्गत नयी वस्तु की प्रारम्भिक अवस्था में नीची कीमत निर्धारित की जाती है जिससे कि वस्तु के बाजार का विकास हो सके और बाजार के अधिकांश भाग पर संस्था का प्रभुत्व स्थापित किया जा सके। यह रीति-नीति इस मान्यता पर आधारित है कि नीची कीमत एवं कम विपणन प्रयत्नों द्वारा ही विस्तृत बाजार में शीघ्रता से प्रवेश किया जा सकता है। यह नीति ऐसी वस्तुओं के सम्बन्ध में अधिक अपनायी जाती है जिनकी माँग अधिक लोचदार होती है। इस नीति का प्रमुख लाभ यह है कि नीची कीमत होने के कारण सम्भावित प्रतिस्पर्धा कम होती है। इस रीति-नीति को अपनाने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं।

  1. अधिक लोचदार माँग- यदि वस्तु की माँग अधिक लोचदार है तो ऐसी स्थिति में वस्तु नीची कीमत पर भी अधिक मात्रा में बेची जा सकती है।
  2. प्रतिस्पर्धा को हतोत्साहित करने के लिए- इस रीति-नीति का प्रमुख उद्देश्य सम्भावित प्रतिस्पर्धा को हतोत्साहित करना है क्योंकि वस्तु की कीमत नीची होने के कारण लाभ की मात्रा कम होती है। इस कारण अधिक प्रतिस्पर्धी उस क्षेत्र में आकर्षित नहीं होते।
  3. बड़े पैमाने के उत्पादन की मितव्ययितायें- वस्तु की निम्न कीमत होने के कारण माँग में वृद्धि होने से बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है जिससे उत्पादन और विपणन लागतों में कमी होती है।
  4. कम उच्च आय वर्ग के ग्राहक- यदि उस बाजार में, जिसमें वस्तु को प्रस्तुत किया गया है, उच्च आय वर्ग के क्रेता अल्प संख्या में हैं तो ऊंची कीमत रखने से वस्तु को अधिक मात्रा में नहीं बेचा जा सकता। अतः वस्तु की नीची की निर्धारित की जाती है।
  5. आविष्कार पर कम व्यय- यदि वस्तु आविष्कार पर कम व्यय हुआ है तो भी वस्तु की नीची कीमत निर्धारित की जाती है।
  6. तीन प्रतिस्पर्धा- यदि वस्तु के बाजार में प्रवेश करने के उपरान्त ही अन्य उत्पादों द्वारा उसी प्रकार की वस्तु का उत्पादन किया जाने लगा है तो इस रीति-नीति का प्रयोग करना चाहिए।
  7. सरकारी हस्तक्षेप- सरकारी हस्तक्षेप को बचाये रखने के लिए भी यह रीति-नीति अपनायी जाती है।
  8. वस्तु की कम उत्पादन लागत- यदि वस्तु की उत्पादन लागत कम है तो भी यह रीति-नीति अपनायी जा सकती है।

नई वस्तु की कीमत निर्धारण के लिए कौन-कौन सी रीति-नीति अपनाई जाये? –

इसके लिए हमें अनेक बातों पर विचार करना चाहिए। यदि वस्तु के आविष्कार पर अधिक व्यय किया गया है, निकट भविष्य में प्रतिस्पर्धा की सम्भावना नहीं है और वस्तु उच्च आय वर्ग के ग्राहकों से सम्बन्धित है तो उच्चतम कीमत नीति अपनानी चाहिए। इसके विपरीत, यदि वस्तु के आविष्कार पर अधिक व्यय नहीं हुआ है, निकट भविष्य में प्रतिस्पर्धा की सम्भावना है और वस्तु निम्न आय वर्ग के ग्राहकों से सम्बन्धित है तो कम प्रवेशक कीमत नीति अपनानी चाहिए।

II. वृद्धि अवस्था में कीमत निर्धारण

(Pricing Under Growth Stage)

वस्तु के जीवन चक्र में वृद्धि की अवस्था ऐसी स्थिति होती है जिसमें विक्रय मात्रा में तीव्र गति से वृद्धि होती है क्योंकि वस्तु बाजार में अच्छी ख्याति प्राप्त कर चुकी होती है और उत्पादन को लाभ कमाने का सुअवसर प्राप्त होता है। अतः इस अवस्था में प्रतिस्पर्धियों की कीमत नीति पर ध्यान रखना चाहिए। यदि वस्तु की प्रारम्भिक अवस्था में उच्चतम कीमत नीति अपनाई गई है तो इस अवस्था में कीमत निर्धारित करनी चाहिए और यदि कम प्रवेशक कीमत नीति अपनायी गयी है तो उसे जारी रखा जा सकता है या यदि अनुकूल परिस्थिति हो तो वस्तु की कुछ ऊंची कीमत निर्धारित की जा सकती है। इसके अतिरिक्त इस अवस्था में विभिन्न प्रवर्तन कार्यक्रम अपनाकर बिक्री में वृद्धि करने के लिए प्रयत्न किये जाने चाहिए।

III. परिपक्व अवस्था में कीमत निर्धारण

(Pricing Under Maturity Stage)

इस अवस्था में वस्तु की बिक्री की वृद्धि दर क्रमशः कम होने लगती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि वस्तु अपनी विशिष्टता खोने लगती है। वस्तु के डिजाइन व गुण के सम्बन्ध में सुधार की सीमा आ जाने के कारण बाजार में उपलब्ध विभिन्न वस्तुओं के बीच अन्तर कम हो जाता हैं। उत्पादन विधियों में स्थिरता आ जाती है। क्रेताओं की दृष्टि से वस्तु के ब्राण्ड का महत्व कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में उत्पादक को अपनी वस्तु की कीमत कम कर देनी चाहिए लेकिन कीमत निर्धारण का निर्णय, वस्तु की माँग की लोच का समुचित अध्ययन करने के पश्चात ही लेना चाहिए। इस स्थिति में संस्था को अपने प्रतिद्वन्द्वियों को खुले कीमत युद्ध का आमन्त्रण नहीं देना चाहिए।

IV. परिपूर्णतः अवस्था कीमत निर्धारण

(Pricing Under Saturation Stage)

इस अवस्था में वस्तु की विक्रय मात्रा स्थिर हो जाती है अर्थात ऐसी अवस्था में नई माँग उत्पन्न नहीं होती, केवल प्रतिस्थापन माँग के कारण ही वस्तु की बिक्री होती रहती है। इस अवस्था में बिक्री की मात्रा चरम सीमा पर होती है। ऐसी स्थिति में उत्पादक को चाहिए कि वह ऐसी अवस्था को अधिक समय तक बनाये रखे। इस अवस्था में विक्रय बढ़ाने के लिए सभी सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए। इस अवस्था में यदि आवश्यक समझा जाये तो वस्तु की कम कीमत निश्चित करनी चाहिए और कीमत युद्ध होने की आशा हो तो कीमत कम नहीं करनी चाहिए बल्कि विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

V. पतन अवस्था में कीमत निर्धारण

(Pricing Under Decline Stages)

इस अवस्था में वस्तु की बिक्री कम होने लगती है। इसका मुख्य कारण वस्तु की विशिष्टता समाप्त होना है और नई-नई वस्तुयें बाजार में अपना स्थान ग्रहण करने लगती है। वस्तु की ब्राण्ड लोकप्रियता समाप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में उत्पादक को अपनी वस्तु की ऐसी कीमत निर्धारित करनी चाहिए जिससे कि वस्तु की इतनी बिक्री अवश्य हो जाये जिससे कि उत्पादक को वस्तु का उत्पादन करने में हानि न हो। ऐसी अवस्था में यदि वस्तु का बाजार के कुछ भाग पर अच्छा  अधिकार हो तो लागत से कुछ अधिक कीमत वसूल की जा सकती है। ऐसी अवस्था में सीमान्त कीमत नीति (Marginal Price Policy) भी अपनायी जा सकती हैं।

अप्रचलन अवस्था में कीमत निर्धारण करने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि इस अवस्था में उत्पादन करना लाभकारी नहीं होता अर्थात इस अवस्था में वस्तु का उत्पादन बन्द कर देना चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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