व्यक्ति और समाज | शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य | व्यक्ति तथा समाज के बीच सम्बन्ध

व्यक्ति और समाज | शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य | व्यक्ति तथा समाज के बीच सम्बन्ध

व्यक्ति और समाज

संसार की ओर देखने से हमें बहुत सी चीजें मिलती हैं-मनुष्य, पक्षी, पेड़ और पौधे। यदि ध्यान देकर देखा जावे तो कुछ रहस्य भी ज्ञात होते हैं। सारे विश्व में जो भी चीज है वह एक इकाई को प्रकट करती है जैसे एक मनुष्य, एक पशु, एक पक्षी और एक पेड़। उत्पत्ति एक ही होती है और विभाज्य रूप को प्रकट करता है। यहीं हमें ‘व्यक्ति’ (Individual) का बोध होता है। एक ही तरह की अथवा विभिन्न तरह की वस्तुओं को मिलाकर देखने में हमें अकेले (Single) के स्थान पर ‘बहुत’ (Many) का बोध होता है और जब इन्हें एक साथ देखने का प्रयल किया जाता है तो वहाँ ‘समूह’ (Group) का बोध होता है। यही समूह जब मनुष्यों से सम्बन्ध रखता है तो उसे ‘समाज नाम दिया जाता है। अतः हमें अपने चारों ओर के संसार में ‘अकेले’ और ‘बहुत’ का बोध होता है। इन्हें तकनीकी भाषा में क्रमशः व्यक्ति और समाज का नाम दिया जाता है। इनके बारे में कुछ विस्तार के साथ ज्ञान प्राप्त करने की यहाँ आवश्यकता है।

  1. व्यक्ति का तात्पर्य

सीधे-सादे तौर पर व्यक्ति का तात्पर्य किसी ‘एक मनुष्य’ से होता है। व्यक्ति ऐसी स्थिति में अपने आप में पूर्ण इकाई है और उसका अस्तित्व अकेला होता है। अंग्रेजी भाषा में व्यक्ति के लिये Individual शब्द का प्रयोग किया जाता है। मूल लैटिन शब्द के अनुसार ‘इंडिवीजुअल’ शब्द का अर्थ होता है “वह वस्तु जिसका विभाजन न किया जा सके।” इससे ध्वनि यह निकली कि व्यक्ति वह वस्तु है जिसका विभाजन नहीं होता है बल्कि वह अपने आप में अकेला ही रहता है। उदाहरण के लिये एक मनुष्य है जिसके दो हाथ, दो पैर, एक सिर, दो आँखें, दो कान, एक मुख और एक धड़ होता है। हम केवल हाथ या पैर को ‘व्यक्ति’ नहीं कहते बल्कि यह तो केवल एक अंग है। व्यक्ति हम उसे कहेंगे जिसके सभी अंग एक साथ जुड़े होंगे और एक समूचा स्वरूप होगा। अब स्पष्ट है कि व्यक्ति अथवा (Individual) वह अविभाज्य वस्तु है जिसका एक समूचा स्वरूप होता है, उसकी एक विशेषता यह होती है कि वह एकल अस्तित्व (single existence) रखता है। ऐसा व्यक्ति मनुष्य भी होता है और मनुष्येतर जीव या वस्तु होता है।

2. समाज का तात्पर्य

व्यक्ति का अर्थ समझने के बाद हमें समाज का अर्थ समझना चाहिये। समाज सीधे- सादे अर्थ में व्यक्तियों (मनुष्यों) का समूह अथवा एकत्र होना है। बिना व्यक्ति के इस प्रकार समाज नहीं बनता है। आधुनिक काल में समाज केवल “व्यक्तियों (मनुष्यो) का एकत्र होना” नहीं कहा जा सकता, इसका एक विशेष अर्थ लगाया जाता है। प्रो० राइट ने लिखा है कि “समाज लोगों का एक समूह नहीं है, यह तो समूह के व्यक्तियों के बीच रहने वाले सम्बन्धों की एक-प्रणाली व्यवस्था है।”

हिन्दी भाषा में समाज शब्द का विग्रह सम + अज के रूप में होता है। सम का अर्थ होता है प्रत्येक व्यक्ति और अज का अर्थ होता है खींचना। इससे स्पष्ट है कि समाज व्यक्तियों को अपने सम्बन्धों के द्वारा खींचकर एकत्र करने में पाया जाता है। इसमें यह अभिव्यंजना है कि लोग पहले परस्पर एक सम्बन्ध स्थापित करते हैं। ऐसे सम्बन्ध स्वार्थपूर्ति, आमोद-प्रमोद की दृष्टि से अथवा वैवाहिक जीवन के विचार से बनते हैं, तभी इनमें लोगों को समीप खींचने की शक्ति पाई जाती है। अतएव स्पष्ट है कि मनुष्यों के विचारपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना के कारण बना हुआ समूह समाज होता है।

अंग्रेजी भाषा का ‘सोसाइटी’ (Society) शब्द जिस मूल लैटिन शब्द से बना है वह है ‘सोशियस’ (Socius)। इसका अर्थ भी ऊपर व्यक्त अर्थ से मिलता-जुलता है। ‘सोशियस’ शब्द का अर्थ है “साथी”। अब समाज “साय के लोगों का समूह’ होगा। साथी किसी प्रयोजन के कारण बनते हैं और सोच-विचार के बाद बनते हैं। ऐसी स्थिति में समाज सम्बन्धों का समूह होता है। (Society is a complex of relationships) | सम्बन्ध बनने से परस्पर आकर्षण होता है जैसा कि हिन्दी के शब्द ‘अज’ से बोध होता है। अब स्पष्ट है कि समाज का तात्पर्य मनुष्य के सम्बन्धों द्वारा बनाया गया प्रयोजनपूर्ण समूह है।

  1. व्यक्ति और समाज में सम्बन्ध

ऊपर के विचारों से तो ज्ञात होता है कि व्यक्ति और समाज में घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। व्यक्ति (मनुष्य) अच्छी तरह से रहने के लिये ही समाज बनाता है। प्रो० जॉन डीवी का मत है कि यदि व्यक्ति को समाज का आश्रय मिल जाता है तो वह भी उन्नति के उच्चतम शिखर पर आसानी से पहुँच जाता है। दूसरी ओर प्रो० ह्वाइटहेड ने कहा है कि यदि मनुष्य में मनुष्यता की अनुभूति होती है तो वह समाज के हित के लिये काम करने में अपने आपको लगाता है। व्यक्ति में अच्छी आदतों, अच्छे गुणों, अच्छे व्यवहारों, अच्छे ज्ञान, अच्छी कला, आदि के विकास के लिये समाज लोगों को सुविधा देता है, साधन प्रस्तुत करता है, अभिकरण तैयार करता है और संस्थाएँ संगठित करता है, तभी व्यक्ति का विकास चतुर्मुखी होता है। इससे व्यक्ति और समाज का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध मालूम होता है।

दार्शनिक एवं सामाजिक दृष्टि से भी व्यक्ति एवं समाज में घनिष्ठ सम्बन्ध दिखाई देता है। दार्शनिक दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य में एक आत्मा होती है यह आत्मा विश्वात्मा का एक अंश है ऐसा विचार प्रायः सभी दर्शन एवं धर्म में माना जाता है। इसके कारण व्यक्ति समाज से सम्बन्ध रखता वस्तुतः समाज विभिन्न आत्माओं का एक संगठित स्वरूप है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक विचारकों ने ‘समूह मन’ (Group Mind) का सम्प्रत्यय प्रकट किया है। वस्तुतः दर्शन की शब्दावली में ‘समूह-मन’ ‘विश्वात्मा’ ही है। यह अवश्य है कि विश्वात्मा का विचार ईश्वर की आत्मा के रूप में प्रकट होता है। परन्तु ध्यान से देखने पर विश्वात्मा समूह मन के समान ही है और दोनों में केवल दृष्टिकोण का अन्तर है। अतएव व्यक्ति और समाज में अविच्छिन्न मेल एवं सम्बन्ध पाया जाता है।

अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि व्यक्ति वह इकाई है जिससे समाज का निर्माण होता है और समाज व्यक्तियों का वह सम्पूर्ण रूप है जो उनके हित के लिए व्यवस्था करता है तमाज रूपी शरीर में व्यक्ति अंगों के रूप में होते हैं। शरीर में जिस प्रकार सभी अंग मिलकर काम करते हैं, उसी प्रकार से समाज में सभी व्यक्ति मिलकर काम करते हैं। शरीर का महत्व सभी अंगों की क्रियाशीलता पर निर्भर करता है और इनके न होने से शरीर अपूर्ण होता है। ठीक इसी प्रकार से व्यक्तियों के न होने से समाज क्रियाशील नहीं बनता है। समाज दूसरी ओर अपने सदस्यों (व्यक्तियों) को क्रियाशील बनाये रखने में सभी प्रकार से सहायता करता रहता है। अतएव व्यक्ति और समाज दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं।

  1. व्यक्ति समाज और शिक्षा

व्यक्ति, समाज और शिक्षा में किस प्रकार का सम्बन्ध पाया जाता है इस तथ्य की ओर भी हमें ध्यान रखना चाहिए। शिक्षा की परिभाषा भी व्यक्ति और समाज को साथ लेकर ही की जाती है। “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, प्रगतिशील और समरूप विकास है”। इसी प्रकार से शिक्षा व्यक्तिगत प्रयल है जिससे व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक उन्नति की जाती है। दूसरी ओर शिक्षा की परिभाषा समाज के सन्दर्भ में भी की जाती है। इस दृष्टि से शिक्षा समाजीकरण की प्रक्रिया है। प्रो० डीवी ने शिक्षा को समाज के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया बताया है। और, यह पुननिर्माण व्यक्ति के द्वारा ही होता है। प्रो० डीवी ने और भी कहा है कि “शिक्षा के द्वारा समाज अपने प्रयोजनों को संगठित करता है।” अब स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति, समाज और शिक्षा में भी घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।

शिक्षा के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं-वैयक्तिक और सामाजिक विकास के उद्देश्य । शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य में व्यक्ति में छिपे हुए गुणों को बाहर समाज के वातावरण में प्रकट किया जाता है जिससे उसके गुणों को अन्य लोग भी देखें, समझें और ग्रहण करें। इससे हरेक मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है, सामाजिक उद्देश्य में मनुष्य को समाज के लिए तैयार किया जाता है। इससे मनुष्य के व्यक्तित्व को समाज के अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया जाता है। शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ किस प्रकार मिल-जुलकर रहे, कार्य करे, अपने और दूसरों को भी आगे बढ़ावे। इसका कारण यह है कि समाज मनुष्य के सम्मिलित व्यवहारों के तरीकों से संगठित होता है। इन्हीं सम्मिलित व्यवहार के तरीकों को सिखाना ही शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य कहा जाता है। शिक्षा के इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय होता है। व्यक्ति के विकास- प्रगति से समाज का विकास-प्रगति सम्भव है। यह तभी होता है जब व्यक्ति समाज के आदर्श, एवं गुणों को अपने आचरण में प्रकट करने लगता है। इस प्रकार वैयक्तित्व एवं सामाजिक एकीकरण एवं विकास शिक्षा का लक्ष्य होता है। अतएव व्यक्ति, समाज एवं शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध दिखाई देता है। इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय पूर्णतया सम्भव है यदि शिक्षा सामाजिक हित के विचार से लोगों को दी जाय । व्यक्ति और समाज दोनों पर समान ध्यान, बल दिया जाय । व्यक्ति में शिक्षा के द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न की जाय और वह समाज के कार्यों में भाग लेवे।

व्यक्ति, समाज एवं शिक्षा में शिक्षा की संस्था, शिक्षा के साधन, शिक्षा की विधियों एवं शिक्षा के पाठ्यक्रम के विचार से भी घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। शिक्षा की संस्थाओं में परिवार, विद्यालय, राज्य, धर्म प्रमुख हैं। ये सब समाज के अंग हैं और व्यक्तियों द्वारा ही इन संस्थाओं का निर्माण होता है। अतएव इन्हें हम शिक्षा का माध्यम मानते हैं और काम लेते हैं जिससे व्यक्ति एवं समाज दोनों का विकास, परिवर्तन एवं परिवर्द्धन सभी प्रकार से होता है। शिक्षा के साधन व्यक्तियों के द्वारा ही उपलब्ध होते हैं। उदाहरण के लिए श्रव्य-दृश्य सामग्रियाँ हैं। इनका निर्माता एवं प्रयोगकर्ता मनुष्य (व्यक्ति) ही होता है इसी प्रकार से पाठ्यपुस्तक, लेखनसामग्री, श्यामपट, चार्ट, नक्शे, रेखाचित्र आदि सभी ऐसे साधन हैं जो मनुष्य तैयार करता है। इनकी तैयारी में समूह और समाज का भी योगदान पाया जाता है। पाठ्यक्रम शिक्षा की वस्तु है जो ज्ञान और कौशल के रूप में प्रदान की जाती है। इसका निर्माण मनुष्य तथा समाज की आवश्यकताओं, माँगों एवं उपयोगिता के सन्दर्भ में होता है। अब स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि व्यक्ति, समाज एवं शिक्षा में किस प्रकार का और कितना घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

अन्त में, शिक्षार्थी, शिक्षाशास्त्री एवं शिक्षा के संगठन कर्ता के ऊपर भी दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जावेगा कि ये सभी व्यक्ति के हैं, ऐसे व्यक्ति हैं, जो समाज बनाकर रहते हैं और समाज के अभिन्न अंग हैं। इससे अलग शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती है। शिक्षा विद्यार्थी के लिए होती है यदि विद्यार्थी नहीं है तो शिक्षा कहाँ होगी, किसे दी जायेगी। ठीक इसी तरह विद्यार्थी हैं लेकिन शिक्षक नहीं हैं तो शिक्षा कौन देगा। शिक्षाशास्त्री शिक्षा का रूप निर्माण करते हैं और संगठनकर्ता उसको आगे बढ़ाने की व्यवस्था करते हैं। अब स्पष्ट है कि शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति एवं समाज से किस प्रकार अटूट है। इस सम्बन्ध को स्पष्ट करने में प्रो० ब्राउन के शब्द विचारणीय हैं। इनके अनुसार शिक्षा व्यक्ति और समूह के बीच होने वाली दोहरी प्रक्रिया है-

“Education is a two-way process between the individual and the group Whereby each individual or group stimulates the other, and, in varying degree modifies the behavior of the participants.”

  1. व्यक्ति और समाज विभिन्न विचारधाराओं की दृष्टि में-

व्यक्ति, समाज और शिक्षा के बारे में जानकारी कर लेने पर हमें व्यक्ति और समाज के प्रति विभिन्न विचारधाराओं का क्या मत होता है इसे भी जानना जरूरी मालूम होता है। पिछले अध्यायों में हमने शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, भौतिकवाद, प्रयोगवाद, अस्तित्ववाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि विचारधाराओं का अध्ययन किया है। इन्हीं दार्शनिक विचारधाराओं के सन्दर्भ में हम व्यक्ति एवं समाज को समझने का प्रयल करेंगे जिससे इसके सम्बन्ध में कुछ और स्पष्ट ज्ञान हो जावे ।

दार्शनिक विचारधाराओं को दो वर्गों में बाँटा जाता है-(1) व्यक्तिवादी और (2) समष्टिवादी । व्यक्तिवादी विचारधाराओं में व्यक्ति को केन्द्रीय महत्व प्रदान किया जाता है। उदाहरण के लिए आदर्शवाद है। आदर्शवाद व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व देता है। इसी प्रकार से प्रकृतिवाद भी व्यक्तिवादी विचाराधारा है जो शिक्षा में बालक को केन्द्र मानती है और शिक्षा बालक के लिये होती है न कि बालक शिक्षा के लिये होता है। आधुनिक काल में अस्तित्ववादी विचारधारा में ‘अंह’ (Ego) को प्रधानता दी जाती है। “मैं” में जो कुछ चाहता है, ठीक समझता है, उसे करना है, उसे किसी अन्य की चिन्ता नहीं। “मैं अपने आप में समाहित है। इसके लिए समाज की कल्पना विडम्बना भी कही जा सकती है। जनतन्त्रवाद भी आधुनिक युग की देन है और इसमें भी व्यक्ति की वैयक्तिकता, व्यक्ति की गरिमा (Individually and Dignity of Man) को अधिक महत्व दिया जाता है। यह महत्व उसी प्रकार है जैसे आदर्शवाद में मनुष्य की “आत्मा” (Soul or sell) को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। अब स्पष्ट है किन-किन दार्शनिक अस्तित्ववाद में व्यक्ति को श्रेष्ठ माना जाता है और क्यों ? आदर्शवाद व्यक्ति में श्रेष्ठता देखता है, प्रकृतिवाद व्यक्ति में अद्भुत गुण मानता है, अस्तित्ववाद व्यक्ति में “अहं” का प्रकाश देखता है, जनतन्त्रवाद व्यक्ति में वैयक्तिकता और गरिमा पाता है। ये सब व्यक्तिवादी विचारधाराएँ इसीलिये मानी गई हैं।

अब हम दूसरी ओर दृष्टि डालते हैं जिसे समष्टिवादी विचारधारा कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब अपने आपका अस्तित्व अपने लिये नहीं रखता है बल्कि समष्टि के लिये, बहुतों के लिये या समाज के लिये रखता है से वहाँ समष्टिवादी चिन्तन होता है। ऐसी धारणा हमें यथार्थवाद, प्रयोगवाद, समाजवाद, साम्यवाद तथा जनतंत्रवाद एवं सर्वोदयवाद की विचारधाराओं में मिलती है। यथार्थवादी विचारधारा के अनुसार व्यक्ति का अस्तित्व समूह के लिये होता है, वह जन-मानस का पालन करता है और इसीलिये वह सहकारिता के लिये प्रयत्न करता है; वह अकेला नहीं है जैसा आदर्शवादी मानता है बल्कि वह सब में है और सबके साथ है। प्रयोगवाद में व्यक्ति की कल्पना समाज के वातावरण में की जाती है। शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है न कि व्यक्तिगत प्रक्रिया और मनुष्य का लक्ष्य समाज का उपयोगी सदस्य बनना होता है। अतः स्पष्ट है कि प्रयोगवाद समष्टिवादी दृष्टिकोण अपनाए है और वह व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण मानता है परन्तु व्यक्ति को नगण्य नहीं गिनता।

समाजवाद एवं साम्यवाद प्रत्यक्षतः एक ही विचारधारा के दो पहलू हैं (Two faces of the same thinking)। समाजवाद व्यक्ति को समाज के हित में प्रयत्न करने वाला समझता है। सभी कुछ समाज के लिए है और समाज की रचना भी व्यक्ति के अधिकारों को समाप्त करके हुई है। इससे निजत्व का लोप होता है। व्यक्ति अपना सब कुछ खोकर ही समाज का अंग बनता है। साम्यवाद समाजवाद का वैज्ञानिक रूप माना जाता है। इसमें भी समाजवाद की विशेषताएँ मिलती हैं। अन्तर इतना है कि साम्यवाद एक विशेष ढंग की पार्टी में विश्वास रखता है और उसी को सर्वेसर्वा समझता है। व्यक्ति इस पार्टी का सदस्य बड़ी निष्ठा के साथ बनता है। उसकी निछा अडिग होती है। यदि निष्ठा में कमी पाई गई तो व्यक्ति का अस्तित्व समाप्त कर दिया जाता है। समाजवाद एवं साम्यवाद दोनों समूह के बल में विश्वास रखते हैं और उसका प्रयोग सदैव करते हैं, इसीलिए ये दोनों विचारधाराएँ हिंसा- क्रान्ति-परिवर्तन को महत्व देती है। शिक्षा की व्यवस्था भी इसी दृष्टिकोण से की जाती है जिसमें समाज का हित सामने होता है और व्यक्ति का दमन उसके लिए किया जाता है, यह अवश्य है कि साम्यवाद एवं समाजवाद सदस्यों को समानता के स्तर पर रखते हैं और सभी सुविधाएँ सभी के लिये सुलभ कराते हैं। ये भेदभाव रहित व्यवहार पर बल देते हैं फिर भी कुछ न कुछ अन्तर व्यक्ति-व्यक्ति में पाया ही जाता है। अस्तु, ये दोनों विचारधाराएँ समष्टिवादी कही जाती हैं।

जनतंत्रवाद एवं सर्वोदयवाद दो अन्य समष्टिवादी विचारधाराएँ हैं जिनमें सर्वहित की भावना व्याप्त होती है। जनतंत्रवाद सहकारी जीवन एवं साथ-साथ रहने के लिए जोर देता है। यहाँ व्यक्ति का मूल्य माना जाता है परन्तु उतना ही जितना कि वह अपने विकास में प्रयोग कर सके। व्यक्ति का मूल्य जन-समूह के बीच बहुत कम या नहीं भी होता है। इससे सभी लोगों की अपनी-अपनी और अपना-अपना राग भी हो जाया करता है। सर्वोदयवाद जनतंत्रवाद एवं साम्यवाद का अभौतिक रूप कहा जा सकता है जिसमें सह- अस्तित्व की धारा होती है। सर्वोदयवाद सबको सुखी चाहता है जिसमें व्यक्तिगत योगदान पाया जाता है। विनोबा के “भू-दान” में यह व्यक्तिगत योगदान दिखाई देता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी खुशी से अपनी अतिरिक्त भूमि देने को अपने-आप तैयार हुआ। अतएव सर्वोदयवाद में हम व्यक्ति और समाज दोनों को एक उच्च आध्यात्मिक स्तर पर बैठाते हैं और दोनों को समदृष्टि एवं समभाव से देखते हैं। यहाँ पर साम्यवाद का अभौतिक स्वरूप हमें दिखाई देता है तथा व्यक्तिवाद और समष्टिवाद का आध्यात्मिक समन्वय दृष्टिगोचर होता है।

  1. समन्वय और शिक्षा

व्यक्ति और समाज के प्रति विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों में समन्वय की एक आवश्यकता पाई जाती है क्योंकि बिना समन्वय के न तो व्यक्ति और न समाज ही आगे बढ़ सकता है। इस दृष्टि से विचार करते हुए अमरीका की राष्ट्रीय शिक्षा समिति ने अपने प्रकाशन ‘41 वें वर्ष ग्रन्थ भाग 1′ में बताया है कि “एक अच्छी तरह बने हुये शैक्षिक प्रोग्राम का प्रयोजन इस प्रकार से व्यक्तिगत बालक को अपनी आरंभिक पराश्रित अवस्था से बढ़कर अत्यन्त समृद्ध प्राप्य समूह जीवन में पूर्ण भागीदारों में सहायता करना होता है। ऐसे अच्छी तरह से बना प्रोग्राम आगे बढ़ेगा और समूह को संस्कृति को सुधारने का सक्रिय प्रयल करेगा।”

इस कथन से स्पष्ट है कि आधुनिक युग में व्यक्ति और समाज के बीच समन्वय लाना शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है और इसके लिये एक अच्छी तरह बनाया हुआ कार्यक्रम होना आवश्यक है। अतएव शिक्षा का कार्यक्रम बनाते समय हमें इस बात की ओर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है कि हम व्यक्ति के विकास को समाज की माँगों के अनुकूल, समाज में उपलब्ध साधनों के अनुकूल, समाज के पर्यावरण के अनुसार करना चाहिये। इसी में दोनों का हित पाया जाता है और शिक्षा का यह परम श्रेष्ठ लक्ष्य होता है। ऊपर दिया गया विचार इस तथ्य की पुष्टि करता है।

वैयक्तिकता का विकास और सामाजिक कुशलता का सम्बर्द्धन- यह आधुनिक शिक्षा का लक्ष्य माना जाता है। यह लक्ष्य समन्वयकारी समझा जाता है और उससे व्यक्ति का सम्यक् विकास होता है। शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और सामाजिक क्षमताओं का विकास करती है और इन क्षमताओं के बढ़ने से व्यक्ति इतना कुशल बन जाता है कि वह समाज के पर्यावरण में सफल समायोजन कर पाता है। यदि शिक्षा के द्वारा एकांगी विकास होता है तो यह समायोजन सम्भव नहीं होता है। अतएव समन्वय अर्थात् व्यक्ति को समाज का उपयोगी और कुशल नागरिक या सदस्य बनाना आधुनिक युग की शिक्षा का लक्ष्य माना गया है। वैयक्तिकता और सामाजिकता प्रत्येक मनुष्य की निजी सम्पत्ति है, उसे धारण करने का प्रयास प्रत्येक मानव का कर्तव्य है। अतएव यह कथन सार्थक है कि शिक्षा वैयक्तिकता और सामाजिक कुशलता दोनों का विकास करती है।

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