समाज शास्‍त्र / Sociology

धर्म निरपेक्षता के विकास में भारतीय विद्यालय की भूमिका | विद्यालयों में पंथोन्मुखी शिक्षा का स्थान

धर्म निरपेक्षता के विकास में भारतीय विद्यालय की भूमिका | विद्यालयों में पंथोन्मुखी शिक्षा का स्थान

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भारत एक बहुमुखी देश है, इसे ध्यान में रखकर हमने अपने संविधान में धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र की कल्पना की है। जिसका अभिप्राय है कि राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक आधार पर सभी को समान समझा जायेगा, चाह वह व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी हो, किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय के साथ न तो पक्षपात किया जायेगा और न ही उसका विरोध किया जायेगा, यह हमारे संविधान में स्पष्ट किया गया है तथा इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि राजकाय विद्यालयों में धार्मिक सिद्धान्तों की शिक्षा नहीं दी जायेगी। हाँ बालकों में धर्म निरपेक्ष दृष्ष्टिकोण के विकास के लिए उन्हें धर्मों के बारे में शिक्षा दी जा सकती है किन्तु यह शिक्षा उनमें मानवीय गुणों जैसे-सत्य, अहिंसा, सद्भावना, बन्धुत्व, समानता आदि को उत्पन्न करने तथा आत्म की अनन्त खोज (आध्यात्मिकता) से सम्बन्धित होगी। यह आवश्यक भी है कि भारत जैसे धर्म निरपेक्ष राज्य में सभी धरमों के सहिष्णुता पूर्ण अध्ययन को बढ़ावा मिले, जिससे नागरिक एक-दूसरे के धर्म को अच्छी तरह समझ सकें। शिक्षा आयोग (1964-66) ने भी इस प्रकार की धार्मिक शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव देते हुए लिखा है-“हमारा सुझाव है कि प्रत्येक प्रमुख धर्म से सम्बन्धित चुनी हुई जानकारी देने वाला एक पाठ्य विवरण स्कूलों तथा कालेजों में प्रथम उपाधि तक प्रारम्भ किये जाने वाले नागरिकता सम्बन्धी पाठ्यक्रम या सामान्य शिक्षा के एक भाग के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। यह पाठयक्रम विश्व के महान धर्मों में पायी जाने वाली मूलभूत समानताओं को भी स्पष्ट करे। यह पाठ्यक्रम देश के सभी भागों में एक जैसा हो।”

डॉ0 इकबाल के शब्दों में यह सत्य है कि “आत्मा अपने विकास का अवसर भौतिक प्राकृतिक तथा धर्म निरपेक्ष जगत में पाती है। इसलिए जिसकी जड़ों में ही धर्म निरपेक्षता है, वह पवित्र है।” संक्षेप में धर्म निरपेक्षता के विकास में भारतीय विद्यालय निम्नलिखित भूमिका का निर्वाह कर सकता है।

विद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व प्रतिदिन प्रार्थना-सभा आयोजन करना चाहिए। प्रार्थना सभा में सामूहिक रूप में सस्वर ईश प्रार्थना होनी चाहिए जिसमें अध्यापक और विद्यार्थी सभी सम्मिलित हों। प्रार्थना के बाद महापुरुषों की वाणी, सूक्तियाँ और सुभाषित पढ़कर सुनाए जाने चाहिए। अच्छी प्रार्थना सभा का प्रभाव विद्यार्थियों पर अच्छा होता है। धन्वन्तरि ने प्रार्थना को रोगनाशक कहा है। महात्मा गाँधी ने इसे मस्तिष्क की सफाई का साधन कहा है। प्रत्येक दिन प्रार्थना सभा को प्रभावोत्पादक बनाने का प्रयास विद्यालय-प्रधान के द्वारा होना चाहिए।

  • धार्मिक स्थानों का भ्रमण-

धार्मिक स्थानों का केवल धार्मिक महत्व नहीं होता है। बल्कि ऐतिहासिक, व्यावसायिक और मनोरंजनात्मक महत्व भी होता है। ऐसे स्थानों का अवलोकन सभी धर्मालम्बियों द्वारा होना चाहिए। वहाँ किसी के प्रवेश पर रोक न हो। धार्मिक स्थानों का भ्रमण विद्यार्थियों में धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न करता है तथा उनके मस्तिष्क के लिए अनेक प्रकार की उपयोगी जानकारियाँ प्रदान करता है।

  • महापुरुषों की जयन्तियाँ-

महापुरुष किसी देश विशेष में पैदा होकर भी उस देश के नहीं होते हैं। उनके ऊपर सम्पूर्ण मानवता को गर्व होता है। महापुरुष के जन्म दिन पर कार्यक्रमों का आयोजन होना चाहिए तथा उनकी जीवनियाँ बच्चों को पढ़ने के लिए दी जानी चाहिए। उनके जीवन से विद्यार्थियों को त्याग, अध्यवसाय सच्चरित्रता आदि की अच्छी प्रेरणा प्राप्त होती है।

  • सभी धर्मों की पुस्तकों का संग्रह-

विद्यालय के पुस्तकालय में सभी धर्मों की पुस्तकों का संग्रहण होना चाहिए और विद्यार्थियों को प्रत्येक धर्म की पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इससे विद्यार्थी एक-दसरे के धर्म का आदर करना सीखेंगे और उनकी धार्मिक संकीर्णता दूर होगी।

  • धार्मिक उत्सवों का आयोजन-

विद्यालय में सभी महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सवों का आयोजन सामूहिक रूप से किया जाना चाहिए। रक्षाबन्धन, होली, ईद, क्रिसमस डे आदि का आयोजन विद्यालय में करने से विद्यार्थियों का दृष्टिकोण विस्तृत होता है तथा वे सभी धार्मिक पर्वों का सम्मान करना सीखते हैं। प्रत्येक धार्मिक पर्व की छुट्टी का महत्व विद्यार्थि प्रों को बताया जाना चाहिए।

  • विद्यालय का सामूहिक जीवन-

विद्यालय के सामूहिक जीवन से धर्म के अनेक तत्वों का व्यावहारिक प्रशिक्षण विद्यार्थियों को मिल जाता है। विद्यालय का एक वेश, एक गीत, एक आदर वाक्य, एक ध्वज, विद्यार्थियों में अनुशासन, सहयोग, समानता, सहानुभूति आदि गुणों का विकास करता है।

  • समाज सेवा के कार्य-

विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार के समाज सेवा और समाज कल्याण के कार्या में लगाया जाना चाहिए। इससे उनके हृदय में मानव की परिधि का विस्तार होगा।

  • शैक्षिक संस्थाओं का प्रजातांत्रिक संगठन-

भारत में सभी शैक्षिक संस्थाओं का संगठन धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्तों के आधार पर होना चाहिए। जाति, उपजाति, धर्म, पंथ, मृत आदि के आधार पर न तो उनका नामकरण किया जाये न ही इन आधारों पर विद्यालयों की नियमावली बनाई जाये, बिद्यालयों में प्रवेश, अध्यापकों की नियुक्तियाँ एवं उनकी प्रोत्रति का आधार भी जातिगत तथा धर्म न होकर वरन् धर्म निरपेक्षता के आधार को अवलम्बन बनाया जाए।

  • बहुमुखी पाठ्यक्रम-

विद्यालय के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत कोई भी पाठ्य पुस्तक ऐसी न हो जिसमें विद्यार्थियों में जातिगत अथवा धार्मिक विद्वेष को बढ़ावा मिले। वस्तुत; उनका ध्यान सभी धर्मों की अच्छाइयों और उनके श्रेष्ठ मूल्यों की ओर ही आकर्षित किया जाये।

  • वैज्ञानिक शिक्षा पर बल-

धर्म निरपेक्षता का आधार विद्वान तक तर्क की कसौटी पर खरे उतरने वाले विचार हैं। धर्म निरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने से बालकों में न्यायोचित एवं तर्कसंगत विचारों का दय हो जिससे वे अन्धविश्वासों एवं: रूढ़ियों से मुक्त हो सकेंगे, तथा उनके दृष्टिकोण एवं रुचियों में परिवर्तन होगा बालकों में खोज (अन्वेषण) एवं प्रयोग करने व सत्य को पहचानने के जिज्ञासा जाम्रत होगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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