अर्थशास्त्र / Economics

असंतुलित आर्थिक विकास सिद्धान्त | असन्तुलित विकास का अर्थ | हर्षमैन का असन्तुलित विकास सिद्धान्त

असंतुलित आर्थिक विकास सिद्धान्त | असन्तुलित विकास का अर्थ | हर्षमैन का असन्तुलित विकास सिद्धान्त | Unbalanced Economic Growth Theory in Hindi | Meaning of unbalanced development in Hindi | Harshman’s theory of imbalanced growth in Hindi

असंतुलित आर्थिक विकास सिद्धान्त

(Doctrine of Unbalanced Economic Growth)

‘आर्थिक विकास’ एक सतत् प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य अल्पविकसित देश में विद्यमान ‘निर्धनता का दुश्चक्र’ तोड़कर उसे आत्मनिर्भर विकास की व्यवस्था या स्व-सृजक अर्थव्यवस्था की ओर ले जाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आर्थिक विकास की अर्थपूर्ण व्यूह रचना अपनाने की आवश्यकता है। विकास की अर्थपूर्ण व्यूह रचना’ वह मानी जायेगी, जिसके अन्तर्गत विकास की अधिकतम दर प्राप्त करने के लिये अर्थव्यवस्था को न्यूनतम प्रयास करना पड़े तथा रूपान्तरण की प्रक्रिया में बहुत अधिक समय न लगे। सिंगर (Singer) और हर्षमैन (Hirshman) ने ‘असन्तुलित विकास’ को आर्थिक विकास की सर्वोत्तम (अर्थपूर्ण) व्यूह रचना सिद्ध किया है।

असन्तुलित विकास का अर्थ –

‘असन्तुलित विकास’ का विचार अमेरिकन अर्थशास्त्री हर्षमैन के मस्तिष्क की देन है। असन्तुलित विकास का अभिप्राय यह है कि अर्थव्यवस्था के  चुनींदा क्षेत्रों या उद्योगों में ही निवेश केन्द्रित किया जाये। हर्षमैन के शब्दों में, “पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अर्थव्यवस्था में जानबूझाकर असन्तुलन सृजित करना ही आर्थिक विकास की सर्वोत्तम व्यूह-रचना है।” आर्थिक विकास असन्तुलनों की श्रृंखला द्वारा होता है। अतः असन्तुलनों को समाप्त करने की बजाय जीवित रखना चाहिये। प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में उपस्थित लाभ और हानियाँ इस तरह के असन्तुलनों का लक्षण है। यदि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना है, तब विकास-नीति का कार्य तनावों, गैर-आनुपातिकताओं एवं असन्तुलनों को बनाये रखना होना चाहिये।

सिंगर के अनुसार, “आर्थिक विकास की उपयुक्त व्यूह रचना उपलब्ध निवेश साधनों को ऐसे क्षेत्रों में केन्द्रित करना है, जो अर्थव्यवस्था को अधिक लोचदार बनायें तथा बढ़ती हुई माँग एवं विस्तृत होते हुये बाजारों की प्रेरणा के अन्तर्गत विकास की अधिक क्षमता प्रदान करें।” अल्पविकसित देशों के लिये सन्तुलित विकास नीति का अनुसरण न तो सम्भव है और न वांछनीय। द्रुत आर्थिक विकास हेतु इन देशों को ‘नियोजित असन्तुलित विकास नीति’ का अनुसरण करना चाहिये।

हर्षमैन का असन्तुलित विकास सिद्धान्त

(Unbalanced Growth Theory of Hershman)

हर्षमैन द्वारा प्रतिपादित ‘असन्तुलित विकास सिद्धान्त’ अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास त्वरित करने का मार्ग सुझाता है। यह नियोजित विकास के विभिन्न पहलुओं, प्रेरणाओं बाधाओं और रूकावटों पर विचार करने के नाते अधिक यथार्थवादी है। हर्षमैन का विकासशील देशों के लिये निर्यात-संवर्धन तथा आयात प्रतिस्थापन का सुझाव भी यथार्थवादी है। वे न तो पूर्णतः राजकीय नियोजन के पक्षपाती हैं और न प्रत्येक कार्य निजी उद्यमियों को सौंपना चाहते हैं। उनकी राय में जब तक राज्य द्वारा ‘सामाजिक ऊर्ध्वस्थ पूँजी’ का निर्माण नहीं किया जायेगा, तब तक प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निजी निवेश प्रोत्साहित नहीं होगा। इस तरह, हर्षमैन ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के समर्थक जान पड़ते हैं।

जहाँ सन्तुलित विकास सिद्धान्त के समर्थक अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिये प्रबल प्रयास की आवश्यकता व्यक्त करते हैं, वहीं हर्षमैन अल्पविकसित देशों की निवेश-सामर्थ्य को सन्तुलित विकास के मार्ग की गम्भीर अड़चन मानते हैं। उनकी राय में पूंजी एवं कौशल- निमार्ण सरीखी साधन-सेवाओं की स्वल्पता के कारण अल्पविकसित देशों में सन्तुलित विकास सिद्धान्त का प्रयोग असम्भव है अल्पविकसित देशों की निवेश-सामर्थ्य मुख्यतः इस बात पर निर्भर करेगी कि अर्थव्यवस्था में पहले कितना निवेश हुआ है। निवेश-सामर्थ्य की प्राप्ति तथा इसके विकास के साथ अर्थव्यवस्था की कौशल-निर्माण शक्ति भी बढ़ती है। विभिन्न उद्योगों में निवेश-सम्बन्धी पूरकता विद्यमान होती है। विकसित देशों की अपेक्षा अल्पविकसित देशों में पूरकता को बनाये रखना अधिक आवश्यक है। निस्सन्देह अल्पविकसित देश की गतिहीन अर्थव्यवस्था को निर्धनता के कुचक्र से मुक्ति दिलाने के लिये प्रबल प्रयास किया जाना चाहिये; किन्तु यह भी सत्य है कि ऐसी अर्थव्यवस्था में प्रबल प्रयास की सामर्थ्य नहीं होती। अतः उचित यही जान पड़ता है कि अर्थव्यवस्था के चुनिंदा क्षेत्रों या ड़ोगों में निवेश द्वार विकास त्वरित किया जायें। विश्व के किसी देश में सनतुलित विकास नहीं हुआ है। आर्थिक विकास का प्रसार एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की ओर तथा एक ‘उत्पादन-इकाई से दूसरी उत्पादन इकाई की ओर सम्भव  हुआ है। अतः अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों या उद्योगों का विवेकपूर्ण चयन किया जाना चाहिये, जिनमें उपलब्ध निवेश-राशि जुटाकर विकास प्रक्रिया को गति प्रदान की जा सके।

निवेश- विस्तार का क्रम निर्धारित करने के लिये हर्षमैन ने अर्थव्यवस्था को दो क्षेत्रों में बाँटा है-

(i) सामाजिक ऊर्ध्वस्थ पूँजी तथा (ii) प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियायें। ‘सामाजिक ऊर्ध्वस्य पूँजी का अर्थ उन आधारभूत सेवाओं से है, जिनके अभाव में प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक उत्पादक क्रियाओं का विकास एवं विस्तार असम्भव होता है। परिवहन, संचार, सिंचाई, चालक-शक्ति आदि इसी तरह की आधारभूत सुविधायें हैं। प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं का अर्थ कषि, उद्योग एवं व्यापार से है। इन क्रियाओं में निवेश से अन्तिम उत्पादन में वृद्धि होती है। सामाजिक ऊर्ध्वस्थ पूँजी में निवेश से प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निवेश-वृद्धि को प्रोत्साहन मिलता है। चूंकि अल्पविकसित देशों में निवेश साधनों की सीमितता के कारण सामाजिक ऊर्ध्वस्य पूँजी एवं प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं को एक साथ आगे बढ़ाना सम्भव नहीं होता, इसीलिये सामाजिक उर्ध्वस्थ पूंजी के निर्माण द्वारा प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। हर्षमैन के शब्दों में, “द्रुत आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी जाये। इससे कुछ’ समय के लिये अर्थव्यवस्था में असन्तुलन अवश्य उत्पन्न होंगे; किन्तु चुनिंदा क्षेत्रों का द्रुत विकास अन्ततोगत्वा दूसरे क्षेत्रों के विकास हेतु सुदृढ़ आधार का कार्य करेगा।”

सामाजिक ऊर्ध्वस्थ पूँजी में निवेश से परिवहन, चालक-शक्ति और सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि होगी। उपलब्ध आधारभूत सुविधाओं के प्रयोग हेतु प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निवेश प्रोत्साहित होगा तथा इन क्रियाओं का विस्तार होगा। सामाजिक ऊर्ध्वस्य पूंजी के निर्माण द्वारा प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निवेश प्रोत्साहित करने की पद्धति ‘सामाजिक ऊर्व्वस्थ पूँजी की अतिरिक्त क्षमता द्वारा विकास’ कहलाती है। हर्षमैन के अनुसार, चाहे आर्थिक विकास सामाजिक ऊर्ध्वस्य पूँजी की अतिरिक्त क्षमता द्वारा हो या इसकी दुर्लभता द्वारा, दोनों ही परिस्थितियों में प्रोत्साहन एवं दबात (असन्तुलन) उपस्थित न हो जाने के कारण विकास की दर अपेक्षाकृत ऊँची रहती है। अर्थव्यवस्था में असन्तुलन उत्पन्न किया जाना आवश्यक है। यह असन्तुलन या तो सामाजिक ऊपरी पूँजी SOC पर निवेश को केन्द्रित करके या प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं DPA पर केन्द्रित करके सम्भव हो सकता है। हर्षमैन का विचार है कि SOC के द्वारा अर्थव्यवस्था में असन्तुलन उत्पन्न करना DPA के द्वारा असन्तुलन की तुलना में ज्यादा बेहतर माना जाता है।

विकास के प्रारम्भ में यदि निवेश SOC में किया जाता है तो इससे सिंचाई, ऊर्जा, शिक्षा, परिवहन, स्वास्थ्य सेवायें आदि का विकास होगा, जिससे प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं में निजी निवेश प्रोत्साहित होने लगेगा अर्थात् SOC में निवेश से DPA में निवेश का विस्तार होकर अर्थव्यवस्था में तीव्र आर्थिक वृद्धि को सम्भव बनाया जा सकता है। इसे SOC की अतिरिक्त क्षमता के माध्यम से विकास प्रक्रिया कहा जाता है।

अर्थव्यवस्था में DPA में निवेश के द्वारा भी असन्तुलन उत्पन्न किया जा सकता हैं। इस प्रक्रिया को SOC की कमी के माध्यम से विकास की प्रक्रिया कहते हैं। निर्माण कार्य उद्योगों में निवेश को प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं का निवेश कहा जाता हैं इसे अग्र चित्र की सहायता से व्यक्त किया जा सकता है-

प्रस्तुत चित्र में विकास की दोनों स्थितियों अर्थात SOC से DPA को तथा DPA से SOC को दर्शाया गया है। OX-चक्र पर SOC को तथा OY-वक्र के साथ DPA पर किये गये निवेश को दिखाया गया है। इस चित्र में तीन सम-उत्पाद चक्र PC1, PC2 एवं PC3 SOC तथा DPA की विभिन्न मात्राओं से प्राप्त होने वाली उपज को व्यक्त करते हैं। दायीं तरफ का प्रत्येक वक्र आय के उच्च स्तर को प्रकट करता है। 45° की रेखा सम-उत्पाद चक्रों को उनके उच्चतम बिंदुओं पर मिलाती हैं यदि SOC को A से बढ़ा कर A’ किया जाता है तो इससे DPA में निवेश तब तक प्रोत्साहित होगा, जब तक कि B बिन्दु पर समय स्थापित नहीं हो जाता। इस बिन्दु पर समस्त अर्थव्यवस्था उत्पादन के पहले से अधिक ऊँचे स्तर पर होगी। यदि SOC को और अधिक बढ़ाकर B2 पर लाया जाये तो DPA भी C से बढ़कर C‘ पर पहुँच जायेगा। इस प्रकार AA’ BB’ विकास मार्ग प्राप्त होगा, जो SOC की अतिरिक्त क्षमता के विकास का मार्ग है।

यदि SOC की कमी वाले मार्ग को अपनाया जाये तो अर्थव्यवस्था गहरी रेखा AB’ BC’ C के मार्ग का अनुसरण करेगी। यदि DPA को B’ बिन्दु तक बढ़ाया जाता है तो SOC को भी B बिन्दु तक बढ़ाना होगा, जिससे कि साम्य स्थापित हो जाये। यदि DPA को और अधिक बढ़ाया जाता है अर्थात् वह C’ तक पहुँच जाता है तो उस स्थिति में SOC को भी C तक पहुँचाना होगा जो कि सन्तुलन के लिये आवश्यक है।

किस तरह का असन्तुलन समाज को अधिकतम लाभ उपलब्ध करायेगा, इसकी जाँच केbलिये हर्षमैन ने ‘अग्रगामी सम्बन्ध’ और ‘अयोगामी सम्बन्ध’ की कसौटियों के प्रयोग का सुझाव दिया है। ‘अग्रगामी सम्बन्ध’ (Forward Linkage) का अभिप्राय ऐसी परियोजना में निवेश से है, जो उत्पादन की अगली अवस्थाओं में निवेश प्रोत्साहित करे। ‘अधोगामी सम्बन्ध’ (Backward Linkage) का अभिप्राय ऐसी परियोजना में निवेश से है, जो उत्पादन की पिछली अवस्थाओं में निवेश को प्रोत्साहित करें। हर्षमैन की राय में निवेश नीति निर्धारित करने से पूर्व विभिन्न परियोजनाओं के अग्रगामी सम्बन्धों का विश्लेषण आवश्यक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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