बालकों का मानसिक स्वास्थ्य | पाठशाला के बालकों में मानसिक स्वास्थ्य | मानसिक स्वास्थ्य के संवर्द्धन में परिवार की भूमिका
बालकों का मानसिक स्वास्थ्य | पाठशाला के बालकों में मानसिक स्वास्थ्य | मानसिक स्वास्थ्य के संवर्द्धन में परिवार की भूमिका
बालकों का मानसिक स्वास्थ्य
बालकों के मानसिक स्वास्थ्य पर, वातावरण से सम्बन्धित कई ऐसे कारक होते हैं, जो अपना प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। ये कारक उसके मानसिक सन्तुलन में बाधा उपस्थित करते हैं। निम्नलिखित तत्त्वों से स्पष्ट हो जायेगा कि किस प्रकार वे बालक को मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ बनाने के लिए उत्तरदायी हैं-
(1) निर्धनता- पारिवारिक निर्धनता के कारण माता-पिता अपने बालकों की सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते। हर बालक अपने अन्य साथियों के समान पहनने, खेलने, खाने-पीने, घूमने-फिरने आदि की सुविधाओं को प्राप्त करना चाहता है। परन्तु गरीबी के कारण वह इनसे वंचित हो जाता है। वह अपने में हीनता का अनुभव करने लगता है। उसमें मानसिक असन्तोष और कुण्ठा उत्पन्न हो जाती है। इन सबका उसके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(2) शैशवावस्था में दोषपूर्ण पालन-पोषण- प्रायः देखा गया है कि शैशवास्था में ही उस उम्र में प्राप्त होने वाले संवेगों का विकास न होने पर बालक मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ हो जाता है। जैसे उचित पालन-पोषण न होना, माता-पिता के स्नेह से वंचित हो जाना, सुरक्षा, प्रसन्नता व क्रियाशीलता आदि का अभाव होना। इनके होने पर बालक का सांवेगिक विकास ठीक से नहीं होगा और मानसिक अस्वस्थता की संभावना बनी रहेगी।
(3) पक्षपातपूर्ण व्यवहार- बालक प्रायः अपने परिवार, विद्यालय एवं समाज के सम्पर्क में आता है। यह आवश्यक नहीं है कि उसे इन सभी स्थानों पर समान व्यवहार प्राप्त हो। विद्यालयों में प्रायः शिक्षक कुछ होशियार बच्चों को अधिक मानते हैं और मंद बुद्धि वालों को दण्ड देते हैं। इसी प्रकार परिवार में माता-पिता का अपने बिभिन्न बच्चों के प्रति स्नेह में अन्तर, उनका दूसरों के बच्चों को दोष देना, आदि अनुपयुक्त व्यवहार बालक का संवेगात्मक सन्तुलन खराब कर देते हैं। वह भी आगे चलकर समाज में वैसा ही व्यवहार करने लगता है। कभी-कभी इस पक्षपात पूर्ण व्यवहार से बालक के आत्म सम्मान को धक्का लगता है। परिणामस्वरूप वह झगड़ालू, जिद्दी, चिड़चिड़ा, क्रोधी और अनैतिक व्यवहार करने लगता है।
(4) अत्यधिक सुरक्षा- कई बालक इस प्रकार के देखे गये हैं जो साधारण-सी बाधा या कष्ट होने पर अत्यधिक निराश, चिन्तित और दुःखी हो जाते हैं। इनका प्रमुख कारण यह है कि घर में माता-पिता उनकी जरूरत से ज्यादा देखरेख करते हैं। बालक को जरा- सा कष्ट होने पर उनका दिल बैठ जाता है। इससे एक तो बालक पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर हो जाता है और दूसरे अपना संवेगात्मक विकास नहीं कर पाता। विषम परिस्थितियों में वह अपना मानसिक सन्तुलन खो देता है। इससे उसके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(5) कठोर नैतिक आदर्श- कभी-कभी परिवार, समाज या विद्यालय के अत्यन्त कठोर नैतिक नियम बालक के आदर्शों के स्थान पर विकार उत्पन्न कर देते हैं, बालक को कठोर अनुशासन के कारण उन आदर्शों का पालन करना पड़ता है। अतः वह अपनी इच्छाओं का दमन करता है जिसका उसके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(6) विद्यालय का अनुपयुक्त वातावरण- परिवार के बाद बालक के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला विद्यालय का वातावरण है। इसमें शिक्षकों का व्यवहार, खेलकूद, पाठ्यक्रम व पाठ्येतर क्रियायें, अनुशासन, शिक्षण आदि क्रियाओं में प्रतियोगिता होने पर बालक में कई प्रकार के मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। शिक्षकों के अनुचित व्यवहार, अनुचित शैक्षिक व्यवस्था, आदि कठोर प्रबन्ध से बालक ग्रस्त रहेगा। इसी प्रकार अन्य प्रतियोगिताओं में भाग लेने पर भी कोई पुरस्कार आदि की प्राप्ति न होने पर, अथवा परीक्षा में असफल होने पर बालक अपने को हीन समझने लगता है। लगातार निजयी बालक दम्भी हो जाते हैं। इन सब कारणों से बालक का संवेगात्मक सन्तुलन खराब हो जाता है।
उपर्युक्त तत्त्वों की उपस्थिति में बालक अपनी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में अपने को असमर्थ पाता है और यह संवेगात्मक असन्तुलन का शिकार हो जाता है।
मानसिक अस्वस्थता को दूर करने में परिवार का योगदान-
बालक के मानसिक स्वास्थ्य की आधारशिला परिवार में ही रखी जाती है। व्यक्ति अपने जीवन के अधिकांश वर्ष परिवार में व्यतीत करता है । विशेष रूप से बालक शैशवावस्था और बाल्यावस्था में ही अपने व्यक्तित्व का अधिकांश निर्माण कर लेता है। बालक के प्रारम्भिक पाँच-छ: वर्ष बहुत ही महत्व के होते हैं। इनके अलावा किशोरावस्था में भी वह अनेक बातें सीखता है। इस इति से चालक के स्वस्थ सांगिक विकास में परिवार का दायित्व बहुत बढ़ जाता है।
प्रथम तो मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम हेतु माता-पिता को चाहिये कि ये प्रारम्भ से ही बालक को उचित शिक्षा दे। उसकी अहम् बुद्धि और सामाजिक अनुमोदन (Social approval) की प्रेरणाओं को सन्तुष्ट करें। यदि प्रारम्भिक अवस्था के विभिन्न संवेगों जैसे, लेह, सुरक्षा, कोध, भय, हर्ष और उत्सुकता आदि का सन्तुलित विकारा किया जाय तो मानसिक स्वस्थता बनी रहती है। अत: माता-पिता का बालक के प्रति मृदुल और स्नेहपूर्ण व्यवहार होना चाहिये। भाई-बहनों का व्यवहार भी प्रेम और सदाचार की भावनाओं से पूर्ण होना चाहिये। कठोर अनुशासन, प्रतिबन्ध, तिरस्कार डॉट-फटकार आदि से बालक मे भाव-ग्रन्थियाँ बन जाती है। जहाँ तक हो सके बालक से बहलाकर काम लेना चाहिये। इसके अलावा स्वस्थ सांवेगिक विकास हेतु खेल-कूद मनोरंजन आदि के साधन भी होना चाहिये।
माँ-बाप का चरित्र और जीवन यापन का ढंग भी बच्चों को बहुत प्रभावित करता है। अधिकांश माता-पिता बच्चों के पालन-पोषण की उचित विधि से बिलकुल अनभिज्ञ रहते हैं। उन्हें चाहिये कि ये मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के सिद्धान्तों और प्रयोगों का अध्ययन करें। यदि बालक में किसी भी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता के लक्षण दिखाई दें, जैसे, सिरदर्द, चिड़चिड़ाहट, थकान, अनिद्रा, अपच, आदि तो शीघ्र ही उसका उपचार किया जाना चाहिये। शीघ्र उपचार से रोग के ठीक होने के अधिक अवसर रहते हैं और रोग जीर्ण नहीं होने पाता।
मानसिक अस्वस्थता को दूर करने में विद्यालय का योगदान-
परिवार के बाद बालक के जीवन के आरम्भिक वर्ष सबसे अधिक विद्यालय में गुजरते हैं। विद्यालय का वातावरण उसके मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं। विद्यालय में शिक्षण का बालक के प्रति बर्ताव, उचित शिक्षा, बालक की प्रेरणाओं को समझने की शक्ति, उनका दृष्टिकोण, स्वयं का व्यक्तित्व एवं चरित्र ऐसी कई बातें शिक्षकों से सम्बन्धित हैं जो बालक के मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। अतः सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अध्यापकों का चुनाव बहुत सोच-समझ कर होना चाहिये। प्रारम्भिक कक्षाओं में महिला अध्यापिकायें अधिक कुशलता से काम करती हैं।
शिक्षकों को चाहिये कि बालक में जब भी कोई व्यवहार या समंजन सम्बन्धी दोष देखें तो उसे सुधारने का प्रयास करें। यदि आवश्यकता पड़े तो मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों की सहायता लें। सम्पूर्ण विद्याल व्यवस्था का पुनर्गठन किया जाना चाहिये। विद्यालयों में मनोवैज्ञानियों की नियुक्ति हो जिससे वे बालकों का उचित अध्ययन कर उनका सही मार्ग निर्देशन करें।
मानसिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य से भी प्रभावित होता है। विद्यालय में स्वस्थ शारीरिक विकास की शिक्षा का होना भी जरूरी है। खेलकूद उत्सव आदि के माध्यम से बालकों में आत्मनिर्भरता, सहयोग, दूसरों की मान्यता, संकल्प, साहस, आत्म-सम्मान आदि व्यक्तित्व के गुणों का विकास होना चाहिये ।
पाठ्यक्रम और शिक्षण विधि व्यापक हो जो बालक के वर्तमान जीवन की अवश्यकताओं को पूरा करन, हो। बालक में उसके प्रति स्वाभाविक रुचि हो। इससे बालक को मानसिक सन्तोष पास होता है। साथ ही संवेगात्मक असन्तुलन दूर करने हेतु यौन शिक्षा व सहशिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये ताकि बालकों की यौन सम्बन्धी जिज्ञासा पूरी हो सके।
इन सब बातों के साथ ही विद्यालय बालकों को मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान की शिक्षा देकर भी उनके साथेगिक विकास में सहायता प्रदान कर सकता है। जो बालक मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ है, अग हो कि उनकी उचित देखभाल हेतु विशेष आयसीय विद्यालयों की स्थापना की जाये जहाँ उन्हें विशेष प्रकार की सुविधा देकर उनके समंजन सम्बन्धी दोष दूर किये जायें।
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