भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्र

भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्र | Major Sectors of Indian Economy in Hindi

भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्र | Major Sectors of Indian Economy in Hindi

भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों की एक दूसरे पर निर्भरता

भारतीय अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों को निम्न आधार पर विभाजित किया जा सकता है –

  1. स्वामित्व के आधार पर
  2. व्यवसायों या क्रियाओं के आधार पर
  3. विकास के क्षेत्रों के अनुसार

 

  1. स्वामित्व के आधार पर

भारतीय अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था है, अतः इसमें सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र, दोनों साथ-साथ कार्य करते हैं।

(i) सार्वजनिक क्षेत्र-

मिश्रित अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत सरकार के स्वामित्व वाले उद्यम सार्वजनिक क्षेत्र में आते हैं और ये उद्यम सार्वजनिक उद्यम कहे जाते हैं। इस सार्वजनिक क्षेत्र में देश के महत्वपूर्ण बड़े उद्योग सम्मिलित होते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र का विकास- भारत की औद्योगिक नीति 1948 में अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण, अणुशक्ति निर्माण, रेलवे व डाक तार के विकास एवं स्थापना का पूरा दायित्व सरकार पर दिया गया। छः उद्योगों लोहा एवं इस्पात, हवाई जहाज निर्माण, कोयला, खनिज तेल, टेलीग्राम, टेलीफोन, बेतार के उपकरणों का निर्माण इन सभी में विद्यमान इकाइयों को तो निजी क्षेत्र में रहने दिया, किन्तु नवीन इकाइयों की स्थापना राज्य के लिए सुरक्षित छोड़ दी गई।

18 उद्योगों के नियमन एवं नियन्त्रण की व्यवस्था की गई। इसी प्रकार 1956 की औद्योगिक नीति में 17 उद्योगों का विकास दायित्व सरकार पर रखा गया। 12 उद्योगों की स्थापना का अधिकार राज्य को दिया गया। शेष उद्योग निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिए गए।

किन्तु नवीन औद्योगिक नीति 1991 में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका सीमित कर दी गई और निजी क्षेत्र को बढ़ाने का प्रयास किया गया है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों के द्वारा महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। देश का वर्तमान औद्योगिक एवं आर्थिक ढांचा काफी हद तक इन सार्वजनिक उपक्रमों की भूमिका का ही परिणाम है जिसे सार्वजनिक उपक्रमों की उपलब्धियाँ कहा जा सकता है जैसे- पिछड़े हुए अविकसित क्षेत्रों का विकास, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, राष्ट्रीय आय में योगदान, निर्यात वृद्धि, लघु एवं सहायक, उद्योगों के विकास, आत्मनिर्भरता प्राप्ति में सहायक, आधारभूत एवं पूँजीगत उद्योगों का विकास।

(ii) निजी क्षेत्र-

निजी क्षेत्र से अभिप्राय उन संस्थाओं से है जिनका स्वामित्व सरकार का नहीं है और जो जनता को वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्रदान करती हैं।

निजी क्षेत्र का विकास- भारत में 1948 की औद्योगिक नीजि में निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित थी। उस पर अनेक प्रतिबन्ध भी लगाए गए थे। इसी प्रकार 1956 की औद्योगिक नीति में भी निजी क्षेत्र पर प्रतिबन्ध थे। मोटे तौर पर उपभोक्ता वस्तुओं को ही निजी क्षेत्र के लिए खोला था। यही नहीं, औद्योगिक विकास एवं नियमन, 1951 के अन्तर्गत निजी क्षेत्र पर नियन्त्रण एवं नियमन की भी व्यवस्था थी। निजी क्षेत्र को नवीन कारखाने खोलने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था। इसी प्रकार अनेक वस्तुओं के उत्पादन के प्रारम्भ के लिए भी सरकार की अनुमति आवश्यक थी जिससे आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण न हो जाए।

  1. क्रियाओं के आधार पर

(i) प्राथमिक क्षेत्र-

अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र कृषि, पशुपालन, वानिकी और मत्स्य को शामिल किया जाता है। अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ राष्ट्रीय आय में प्राथमिक क्षेत्र के योगदान में कमी होती गई है। प्राथमिक क्षेत्र का राष्ट्रीय आय में भाग 1950-51 में NDP का 57.7 प्रतिशत था जो 1980-81 में कम होकर 39.7 प्रतिशत ही गया और फिर 2004-05 में और कम होकर 20.8 प्रतिशत रह गया।

(ii) द्वितीयक क्षेत्र-

द्वितीयक क्षेत्र के दो प्रमुख भाग हैं-विनिर्माण और निर्माण। 1950-51 में विनिर्माण का भाग GDP का 8.9 प्रतिशत था जो 2004-05 में बढ़कर 15.4 प्रतिशत हो गया। इसी प्रकार निर्माण का भाग 1950-51 में 4.1 प्रतिशत था जो 2004-05 में बढ़कर 6.5 प्रतिशत हो गया।

(iii) तृतीयक क्षेत्र-

तृतीयक क्षेत्र में व्यापार, परिवहन, बैंकिंग, बीमा, वास्तविक जायदाद तथा सामुदायिक एवं व्यक्तिगत सेवाएँ शामिल की जाती हैं। तृतीयक क्षेत्र का भाग GDP में 1950-51 में 28.0 प्रतिशत था जो 2004-05 में बढ़कर 47.2 प्रतिशत हो गया। अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ तृतीयक क्षेत्र का विकास भी बढ़ता गया।

  1. विकास के क्षेत्रों के आधार पर

(i) शहरी क्षेत्र-

आर्थिक विकास की भिन्नता के कारण देश की अर्थव्यवस्था दो भागों में विभाजित हो गई है। एक तो शहरी अर्थव्यवस्था जो कि जटिल है तथा स्वावलम्बी नहीं है। यहाँ विनिमय का मुख्य साधन मुद्रा है। यहाँ के लोगों की आवश्यकताएँ असीमित तथा विस्तृत होती हैं। तथा उनका जीवन स्तर भी ऊँचा होता है।

(ii) ग्रामीण क्षेत्र-

ग्रामीण क्षेत्र में भारत की लगभग 72% जनसंख्या निवास करती है जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई होती है। ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आवश्यकताएँ सीमित होती हैं, यहाँ उत्पादन छोटे पैमाने पर तथा परम्परागत, पुरानी विधियों से किया जाता है। यहाँ जीविका का मुख्य साधन कृषि है। यहाँ बैंकिंग, व्यापार, परिवहन, शिक्षा आदि की सुविधाएँ भी कम पायी जाती हैं।

विभिन्न क्षेत्रों की परस्पर निर्भरता

सार्वजनिक व निजी क्षेत्र-

दोनों ही क्षेत्र अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है। अतः ये दोनों क्षेत्र एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित हैं और एक-दूसरे पर निर्भर भी हैं। उदाहरण के लिए सड़क निर्माण के निजी क्षेत्र के एक ठेकेदार को सार्वजनिक क्षेत्र से सीमेण्ट, पत्थर आदि लेना पड़ता है। इसी प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग तथा विभाग अपने कार्य निजी क्षेत्र से या निजी फर्मों से कराते हैं। इस प्रकार, दोनों क्षेत्र एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र-

देश का प्राथमिक क्षेत्र गन्ना, कपास, लकड़ी, जूट आदि का उत्पादन करता है। इन उत्पादित वस्तुओं का उपयोग द्वितीयक क्षेत्र के उद्योगों के द्वारा विभिन्न वस्तुओं के निर्माण के लिए किया जाता है। जैसे गन्ने का प्रयोग चीनी के लिए, सूती वस्त्र के लिए कास का प्रयोग आदि। इसके बदले में द्वितीयक क्षेत्र प्राथमिक क्षेत्र को बीज, उर्वरक कृषि यन्त्र आदि प्रदान करता है। जो कि प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादन के लिए आवश्यक होते हैं। तृतीयक क्षेत्र जो सेवाएँ देता है वे प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों ही क्षेत्रों के लिए आवश्यक होती है। जैसे- बैंकिंग, संचार, परिवहन, बीमा आदि। इन सेवाओं की आवश्यकताओं प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों ही क्षेत्रों को होती है। इन सेवाओं के बिना ये दोनों क्षेत्र विकास की कल्पना भी नहीं कर सकते। दूसरी ओर तृतीयक या सेवा क्षेत्र भी प्राथमिक एवं द्वितीयक क्षेत्रों के उत्पादों के बिना अपना कार्य नहीं कर सकता। जैसे- खाद्यात्र, यन्त्र, उपकरण, मशीन आदि उत्पाद जो कि प्राथमिक एवं द्वितीयक क्षेत्रों द्वारा उत्पादीत किया जाता है। इन उत्पादों की आवश्यकता सेवा क्षेत्र को होती है।

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