इतिहास की विषय-वस्तु

इतिहास की विषय-वस्तु | इतिहास की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचार

इतिहास की विषय-वस्तु

इतिहास की विषय-वस्तु | इतिहास की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचार

इतिहास की विषय-वस्तु

इतिहास का क्षेत्र कितना व्यापक है, इसके लिए हमें उसकी विषय-वस्तु का अवलोकन बहुत आवश्यक है। इसलिए की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं पाया जाता। पहले के इतिहासकारों ने घटनामात्र को ही इतिहास की विषय-वस्तु मान लिया था। 15वीं सदी के पुनर्जागरणकाल में उसकी विषय-वस्तु के अन्तर्गत सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रकरणों को लेकर क्षेत्र विस्तृत किया गया। अब, इतिहास की विषय-वस्तु सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप हुई। जब घटना का सम्बन्ध मानवीय मस्तिष्क के साथ श्रृंखलाबद्ध किया गया तो वह इतिहास-दर्शन का गूढ़ विषय बन गया। इस तरह इतिहास की विषय-वस्तू व्यक्ति-जीवन से ऊपर उठकर समाज-जीवन तक पहुंच गयी और तब इतिहास का विषयभूत सामाजिक मानव एकरस और अपरिवर्तनीय सत्ता नहीं रह गया। इसमें विविध एवं विशिष्ट तथ्यों पर अध्ययन-मनन होने लगा, जिससे विषय-वस्तु सामान्यात्मक न होकर विशेषणात्मक हो गयी। अनावृत्तिशील सामुदायिक घटनाओं को अपना विषय बनाने के कारण इतिहास जिन नियमों के परिज्ञान से वैशद्यलाभ कर सका, वे उच्चस्तरीय हो गये। स्पेंगलर या कुछ हद तक ट्वायनबी इसके दृष्टान्त हैं। एक बात यह भी है। कि इतिहासकार मानवीय विषय-वस्तु के विवेचन में अपने संस्कारों को सर्वथा छोड़ नहीं पाता, किन्तु सत्य के आग्रह से उनके ऊपर अवश्य उठना चाहता है, अतएव इतिहास की विषय-वस्तु इससे प्रभावित भी होती है। रांके और सीले ने विषय-वस्तु को राजनीतिशास्त्र से सम्बद्ध किया है। इसकी आलोचना करते हुए व्यूरी ने उपालम्भ दिया है- इसमें इतिहास का क्षेत्र सीमित हो जायेगा, जबकि इतिहास का अध्ययन (विषय-वस्तु) सीमित नहीं है-—उसका अध्ययन शासन, कानून, परम्पराओं, धर्म, कला आदि को सम्मिलित करते हुए उससे भी आगे तक है। इतिहास के अध्ययन में व्यक्ति और समाज की बौद्धिक, भौतिक और भावनात्मक क्रियाओं का अध्ययन भी सम्मिलित किया जाता है। इतिहास साहित्य की एक शाखा नहीं है, न ही गणित विज्ञान जैसा विज्ञान, अपितु इतिहास मनुष्य के सामाजिक जीवन का उसके भौतिक और सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों का अध्ययन करता है। आधुनिक समय में इतिहास का अध्ययन केवल राजनीतिक अध्ययन तक ही सीमित नहीं है, अब वह मनुष्य जीवन के सभी क्षेत्रों से भी सम्बद्ध हो गया है। वैसे अध्ययन की सुविधा के लिए हम इसकी विषय-वस्तु को दो वर्गों में रख सकते हैं दार्शनिक वर्ग और व्यावसायिक वर्ग।

दार्शनिक वर्ग की अवधारणा के अनुसार इतिहास की विषय-वस्तु प्राकृतिक विज्ञान की विषय-वस्तु से भिन्न होती है। कालिंगवुड के अनुसार ऐतिहासिक ज्ञान अतीत में मनुष्य के मस्तिष्क का ज्ञान है। अतएव इसकी विषय-वस्तु विचार-प्रक्रिया है जिसे वह अपने मस्तिष्क में अनुभव द्वारा सजीव करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह वस्तु इतिहास की विषय-वस्तु नहीं हो पायेगी जिसकी पुनरानुभूति इतिहासकार के मस्तिष्क में नहीं होगी। इतिहासकार प्रत्येक युग की सामाजिक आवश्यकतानुसार विषय-वस्तु का निर्धारण करता है, अपनी विषय-वस्तु को देख सकता है, साथ ही उसे अपने मस्तिष्क में अनुभव द्वारा सजीव कर सकता है।

डिल्थे का कहना है कि केवल अनुभव ही नहीं, अपितु अवबोध भी इतिहास की विषय- वस्तु के निर्धारण में आवश्यक होता है। उनके अनुसार मानव-जाति उस समय मानव-अध्ययन का विषय बन जाती है जब सजीव वाणी में उसकी अभिव्यक्ति होती है जो बोधगम्य है। जीवन के मस्तिष्क तथा शरीर घटक को सजीव अनुभव तथा समक्ष के द्वैत सम्बन्धों द्वारा ही समझा जा सकता है।

कालिंगवुड यह भी कहते हैं कि इतिहास की विषय-वस्तु वह विचार हो सकता है जिसकी पुनरानुभूति इतिहासकार के लिए कर सकना सम्भव होता है। उदाहरण के रूप में यदि हम ‘आत्मकथा’ की रचना को लें तो देखेंगे कि वह रचना अनैतिहासिक सिद्धान्त पर होती है और उसमें विचार-प्रधान नहीं होता। इसलिए वह इतिहास न होकर केवल साहित्य ही माना जायेगा। कहना न होगा कि इतिहास किसी विशेष विचारों का नहीं होता, अपितु इतिहास में विचार-प्रधान होता है।

विषय-वस्तु की यह भी विशेषता होती है कि वह इतिहासकार से दूरस्थ नहीं होती, बल्कि इतना समीप होती है कि इतिहासकार उसकी पुनरानुभूति कर सकता है। इसीलिए वह अतीतकालिक व्यक्तियों के विचारों को स्वयं अनुभव करता है। जब वह अनुभव नहीं कर पाता या पुनरानुभूति कर सकने में असमर्थ हो जाता है तो अतीत वाक्यों को ही यथावत् लिखने को विवश होता है और यह एक प्रकार से पुनरावृत्ति होती है जिसे इतिहास की विषय-वस्तु नहीं कह सकते। विषय-वस्तु तो वही हो सकती है जिसका इतिहासकार पुनर्निर्माण कर सकता है। इसके अनुसार प्रतिबद्ध विचार ही इतिहास की विषय-वस्तु हो सकता है।

गार्डिनर के अनुसार इतिहास की अध्ययन-विषयक घटनाएँ अतीत की नहीं, अपितु वर्तमान की होती हैं जिनके अन्तर्गत यदि ऐतिहासिक अतीत बोधगम्य होता है तो उसका सम्बन्ध वर्तमान अनुभव से होता है। ऐतिहासिक अतीत का पुनर्निर्माण साक्ष्यों पर आधृत होता है, जबकि साक्ष्य का सम्बन्ध वर्तमान से होता है; क्योंकि इतिहासकार वर्तमान में साक्ष्यों का उपयोग करता है। उनके अनुसार मृत पदार्थ विज्ञान की विषय-वस्तु और कार्य विचार, व्यवहार जैसे जीवन्त पदार्थ इतिहास की विषय-वस्तु होते हैं।

हीगल ने विषय-वस्तु को समाज और राज्य को माना है। इनके अनुसार संस्कृति, राष्ट्र तथा राष्ट्रीय आन्दोलन इतिहास की विषय-वस्तु होते हैं। इररी भावना को हम ट्वायनबी एवं मार्क्स में भी पाते हैं। हीगल के अनुसार मनुष्य अपने व्यावहारिक जीवन तथा वस्तुनिष्ठ मस्तिष्क की अभिव्यक्ति क्रियाओं तथा संस्थाओं में करता है, ट्वायनबी संस्कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन में और मार्क्स समाज एवं आर्थिक शक्तियों की व्याख्या में।

इतिहास में विशिष्ट व्यक्ति (विशेष) एवं घटना (विशेष) का अध्ययन होता है जिसमें इतिहासकार इतिहास के पुनर्रचना में वैयक्तिक एवं विशेष के सन्दर्भ में सामान्य नियमों की उपेक्षा नहीं कर सकता। वह विषय-वस्तु की गवेषणा में प्रत्येक घटना के बाह्य एवं आन्तरिक स्वरूप की विवेचना करता है। बाह्य स्वरूप का सम्बन्ध शारीरिक गतिविधियों और आन्तरिक का विचारों से होता है।

व्यावसायिक वर्ग की अवधारणा के अनुसार विषय-वस्तु उपर्युक्त वर्णन से भिन्न होता है। इसके अनुसार युग की आवश्यकता के निमित्त ही इतिहासकार द्वारा विषय-वस्तु निर्धारित हुआ करती है, जैसे हेरोडोटस-थ्यूसिडिडीज का पूर्वजों की स्मृति को सजीव रखने का विचार, ट्वायनबी का मानव जीवन से सम्बद्ध कार्य-व्यापार का विचार, रेनियर का कहानी- विचार, हेनरी पिरने का सामाजिक मनुष्य के कार्य-उपलब्धियों का विचार, क्रोचे का सजीव आत्मीय कार्य का विचार, राउज का समाज के सभी पक्षों के वर्णन का विचार इत्यादि। यही कारण है कि 20वीं सदी के इतिहासकार समाज के सभी पक्षों का वर्णन करते हैं, यद्यपि मानव- कार्य-व्यापार का विस्तृत विचार प्रस्तुत कर सकना अत्यधिक कठिन होता है।

ट्वायनवी स्पष्ट रूप से बतलाते हैं कि विषय-वस्तु में मानव जीवन से सम्बद्ध सम्पूर्ण कार्य-व्यापार समाविष्ट होते हैं जिनमें ऐतिहासिक घटनाएँ, राज्य तथा समुदाय ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज का सम्बन्ध होता है। उन्हीं के शब्दों में, ‘मानव-जीवन से सम्बद्ध सम्पूर्ण कार्य-व्यापार इतिहास की विषय-वस्तु हैं।

क्रोचे ने अपना विचार इन शब्दों में प्रकट करते हुए विषय-वस्तु की ओर संकेत किया है और उससे इसके क्षेत्र को भी बतलाने का प्रयास किया है- ‘वे कार्य जिनका इतिहास होता है, उसे इतिहासकार की आत्मा में सजीव होना चाहिए।’ क्रोचे के अनुसार यदि हम विषय-वस्तु के अन्तर्गत समस्त मानवीय कार्यों को लेते हैं तो इतिहास का क्षेत्र अतीव विस्तृत दृष्टिगोचर होगा।

उपर्युक्त अध्ययन से हमें यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि समय के अनुसार विषय-वस्तु बदलती रही। 19वीं सदी में जो इतिहास मैकाले, स्कॉट, कारलायल आदि द्वारा मनोविनोद का साधन माना जाता था उसे 20वीं सदी में रांके आदि ने वैज्ञानिक आलोचनात्मक विषयों की भाँति स्वीकार किया और कहानी-उपन्यास जैसे प्रकरणों की हँसी उड़ायी। इस परम्परा से आगे चलकर रांके को भी विस्मृत किया जाना आश्चर्यजनक नहीं होगा, क्योंकि इतिहास की का स्वरूप सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार निरन्तर विस्तृत होता आया है। आधुनिक युग में सामान्य इतिहास ज्ञान के साथ विषय की दक्षता पर विशेष बल दिया जाता है। जहाँ तक विषय-वस्तु की बात है, सामान्य इतिहास के अन्तर्गत आने वाले ये इतिहास ही अपनी विषय-वस्तु कहे जा सकते हैं राजनैतिक इतिहास, संवै .. ‘क इतिहास, आर्थिक इतिहास, सामाजिक इतिहास, धार्मिक इतिहास, सांस्कृतिक इतिहास, अन्तर्राष्ट्रीय संबंध, कूटनीतिक इतिहास, औपनिवेशिक इतिहास, युद्धप्रणाली का इतिहास, विश्व का इतिहास, कामनवेल्थ का इतिहास, भौगोलिक इतिहास, इत्यादि।

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