इतिहास में वस्तुनिष्ठता | ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता की समस्याएं | इतिहास में वस्तुनिष्ठता का महत्त्व
इतिहास में वस्तुनिष्ठता | ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता की समस्याएं | इतिहास में वस्तुनिष्ठता का महत्त्व
इतिहास में वस्तुनिष्ठता
लोगों की यह मान्यता है कि कोई भी अध्ययन या तो व्यक्तिनिष्ठ होता है अथवा वस्तुनिष्ठ। जब व्यक्ति को विषय बनाते हैं तो वह अध्ययन सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत का होता है और जब वस्तु को विषय बनाते हैं तो वह अध्ययन विशुद्ध विज्ञान का होता है। परन्तु यह सोच सर्वथा भ्रामक है। अध्ययन-विषय विज्ञान का हो अथवा सामाजिक विज्ञान का, दोनों में ही व्यक्ति और वस्तु को लिया जा सकता है। हाँ, यह अवश्य सोचने का विषय है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व दुनिया में कभी भी एक तरह का (समान) नहीं मिलता किन्तु वस्तु में समानता के गुण विद्यमान होते हैं, इसलिए व्यक्ति को जिसमें अध्ययन का विषय बनाते हैं उसमें प्राप्त निष्कर्ष सार्वभौम नहीं होते होंगे, किन्तु वस्तुएँ क्योंकि समान मिलती हैं अतएव उनके विषय में प्राप्त निष्कर्ष सार्वभौम होते होंगे। यह कारण है कि जहाँ सार्वभौगता और प्रायोगिक सत्यता की बात आती है वहाँ लोग व्यक्ति के स्थान पर वस्तु को ही अध्ययन का विषय बनाना अधिक पसन्द करते होंगे और उसी आधार पर व्यक्तिनिष्ठता को वस्तुनिष्ठ की तुलना में कम महत्त्व दिया जाता होगा और वस्तुनिष्ठ को वैज्ञानिक विधा की विशेषता कहा जाता होगा।
वस्तुनिष्ठ वह आधुनिक वैज्ञानिक विधा है जिसमें कोई वैज्ञानिक समुचित विधि तथा नियमों के आधार पर प्रयोगशाला में सिद्ध निष्कर्ष को प्रस्तुत करता है तो सभी वैज्ञानिक उस गवेषणा को स्वीकार कर लेते हैं, जैसे पानी, पारा और लोहा के विषय में प्राप्त निष्कर्ष सार्वकालिक एवं सार्वभौम साथ ही सर्वमान्य होते हैं। जो लोग यह मानते हैं कि इतिहास भी एक विज्ञान है उनके अनुसार इतिहास में वस्तुनिष्ठ पायी जाती है, परन्तु जो विद्वान् ऐसा नहीं मानते उनके अनुसार इतिहास में वस्तुनिष्ठ नहीं होती। आज भी इसके लिए प्रयास चल रहे हैं और इतिहास को वैज्ञानिक विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले इतिहासकार इस बात पर बल दे रहे हैं कि इतिहास को पूर्णतया विज्ञान स्वीकार कर लिया जाय। यदि ऐसा होता है तो उसमें वस्तुनिष्ठ अपेक्षित होगी। परन्तु व्यवहार में लोग यह भी पाते हैं कि ऐतिहासिक निष्कर्ष प्रयास के बाद भी वस्तुनिष्ठ नहीं बन सके हैं, क्योंकि इतिहास मानवीय उपलब्धियों का विवरण है। मानवीय क्रिया-कलापों के सम्बन्ध में सभी का एकमत होना सम्भव नहीं हैं, इसलिए ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता की समस्या आज भी विवाद का विषय बनी हुई है।
ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता की समस्याएं–
जैसे इतिहास को विभिन्न लोगों ने विभिन्न दृष्टि से देखा है वैसे ही वस्तुनिष्ठता को भी लोगों ने अपने-अपने अनुसार विवेचित किया है। उसका विवेचन अभी हो रहा है। उसकी जो मुख्य समस्या है वह यही है कि उसकी पहचान स्थायी नहीं हो पायी है और वह भी इतिहास विषय के सन्दर्भ में। इसके वस्तुनिष्ठ होने में विभिन्न इतिहासकारों को जो विभिन्न प्रकार की सोच समस्या प्राप्त हुई है उसको क्रमशः आगे प्रस्तुत किया गया है।
डार्डेल ने कहा है कि स्वयमेव कोई भी तथ्य वस्तुनिष्ठ नहीं होता। तथ्य का विषय पृथक् करके वस्तुनिष्ठ प्रतिरोपित की जाती है। इतिहासकार जब अतीत का चित्रण करने लगता है तो उस पर आन्तरिक एवं बाह्य प्रभाव दृष्टिकोण, अवधारणा, संस्कृति, ईर्ष्या, द्वेष, भ्रम इत्यादि के पड़ते हैं, साथ ही वह धर्म, जाति, समाज और वातावरण से भी प्रभावित होता है, अतएव सार्वभौम अध्ययन-निष्कर्षों को दे पाने में वह असमर्थ होता है। ऐसी स्थिति में यह एक समस्या समझ में आती है। कार्ल मार्क्स भी यही कहते हैं कि संस्कृतियों से परिष्कृत मानव अपनेक्षऐतिहासिक अध्ययन में अपने को उन्हीं संस्कृतियों से भिन्न (अलग) करके कैसे रख सकता है?
इतिहास में वस्तुनिष्ठता होने के प्रति यह भी एक समस्या है कि इतिहासकार अपने इतिहास-लेखन को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार करते हैं। जे0 ए0 राबिन्सन का कहना है कि आधुनिक इतिहासकार अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों द्वारा एकत्रित ऐतिहासिक तथ्यों का प्रयोग अपने युग की आवश्यकताओं के अनुसार करता है। क्रोचे, गार्डिनर, हैजलिट, गूच आदि भी इसी को मानते हैं। क्रोचे युग के प्रति संवेदनशील होने पर बल देते हैं। गार्डिनर सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप लिखने को कहते हैं। हैजलिट भावनाओं को अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण मानते हैं। गूच लेखक के व्यक्तित्व को उसकी लेखनी में उतरा हुआ पाते हैं। रांके इतिहास-लेखन को अंतश्चेतना का विषय मानते हैं तो फिर इतिहास में वस्तुनिष्ठता कैसे हो सकेगी, यह एक समस्या अवश्य है।
कार्ल बेकर ने इतिहास को अतीत कालिक घटनाओं का सर्वांगीण विवरण कहा है। इधर हम देखते हैं कि अतीत की घटनाओं का वर्णन प्रत्येक युग का इतिहासकार समान रूप से नहीं प्रस्तुत करता। अपितु प्रत्येक पीढ़ी का इतिहासकार अपने युग की आवश्यकतानुसार ही इतिहास-लेखन का कार्य करता है। ऐसे में दास-प्रथा जो किसी युग में सामाजिक आवश्यकता थी, आज वह सामाजिक अभिशाप हो चली है तो फिर उसके विषय में वस्तुनिष्ठता की कल्पना कैसे होगी, यह भी एक समस्या ही है।
इतिहास की रचना में व्यक्तिगत एवं आन्तरिक भावनाएँ प्रधान होती हैं तो भी वस्तुनिष्ठता का प्रश्न समस्या बनकर सामने आ जाता है। औरंगजेब के विषय में यदुनाथ सरकार एवं फारुकी की रचनाएँ व्यक्तिगत भावनाओं से प्रभावित हैं इसलिए इसमें ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा की गयी है और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है। वस्तुनिष्ठता वाले इतिहास में ये नहीं आ सकतीं और इसे हम समस्या के रूप में मान सकते हैं। शिलर, हैजलिट, रांके, हेनरी पिरेन आदि भी यही मानते हैं कि साहित्यकार की भाँति इतिहासकार भी अपने व्यक्तित्व को ही अधिक निखारने में लगे होते हैं। हाल्फेन पक्षपात करता है तो बदायूँनी कटु आलोचना करता है- समस्या यह है कि किसे मान्य किया जाय और उसमें कैसे वस्तुनिष्ठता को पिरोया जाय?
जी० एम० ट्रेवेलियन ने भी द्वेष और सहानुभूति की स्वाभाविक प्रवृत्ति पर बल दिया है और ऐतिहासिक प्रस्तुति को विषयनिष्ठ कहा है साथ ही वस्तुनिष्ठता की आशा को एक भूल कहा है। वेबर ने वस्तुनिष्ठता को एक दोष कहा है। ओकशाट भी पूर्वाग्रही इतिहासकार का पुतला खड़ा करता है। इस तरह इतिहास में वस्तुनिष्ठता को इन लोगों ने भी एक समस्या बतलाया है। वाल्श ने इनसे कुछ भिन्न कहा है तो वह भी चयन को मुख्य कहता है और जहाँ चयन की पद्धति होगी वहाँ कुछ न कुछ तो छूटना ही है। तब वहाँ कैसे वस्तुनिष्ठता आयेगी? यही कारण है कि एक ही घटना को लोगों ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त किया है। किसी ने सामान्य मृत्यु कहा है तो किसी ने षड्यन्त्र के चलते कहा है। इस तरह वस्तुनिष्ठता में चयनात्मक प्रक्रिया भी एक समस्या है।
इतिहास के कुछ विषय वैज्ञानिक हो सकते हैं, जैसे—मौद्रिक अर्थशास्त्र, पुरातत्व आदि। इनमें वस्तुनिष्ठता हो सकती है। किन्तु अन्य सामान्य घटनाप्रधान अंशों में वैज्ञानिकता का अभाव होता है, अतएव उसमें वस्तुनिष्ठता को आरोपित करना एक समस्या बन जायगी।
इतिहास में जिन सामाजिक मूल्यों का वर्णन होता है वे स्थायी नहीं होते, अतएव ऐतिहासिक न्याय को मूल्यपरक कैसे बनाकर रखा जाय, यह भी एक समस्या है। सभ्य समाज में रहने वाले लोगों का सम्बन्ध विभिन्न राजनीतिक दलों से होता है और इन दलों से इतिहासकार भी प्रभावित होते हैं तो वैसा ही वे लिखते भी हैं जिससे एक समान वस्तुनिष्ठता पा सकना असम्भव होता है। इन सभी कारणों से ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता एक जटिल समस्या बनी हुई है किन्तु आधुनिक इतिहास में इतिहास को वैज्ञानिक विषय सिद्ध करने में यह आवश्यक है।
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