नवप्रवर्तन की अवस्थायें

नवप्रवर्तन की अवस्थायें | नवप्रवर्तन की विभिन्न अवस्थायें | Stages of Innovation in Hindi | Different stages of innovation in Hindi

नवप्रवर्तन की अवस्थायें | नवप्रवर्तन की विभिन्न अवस्थायें | Stages of Innovation in Hindi | Different stages of innovation in Hindi

नवप्रवर्तन की अवस्थायें

(Stages of Innovation)

जेम्स आर० एडम्स के अनुसार, “व्यवसाय पृथ्वी पर सबसे महत्वपूर्ण क्रिया है। यह वह आधारशिला है जिस पर संस्कृति का निर्माण होता है। वास्तव में धर्म, समाज, शिक्षा सबका मूल आधार व्यवसाय ही है।”

किसी भी व्यवसाय की स्थापना तथा प्रारम्भ के लिये व्यावसायिक अवसरों की खोज से लेकर, उत्पादन शुरू होने तक अनेक कार्यवाहियाँ करनी होती हैं तथा भिन्न-भिन्न निर्णय लेने होते हैं। व्यवसाय प्रवर्तन में की जाने वाली प्रारम्भिक क्रियाओं को अध्ययन की सुविधानुसार निम्नलिखित छः प्रमुख अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है-

(I) व्यावसायिक, विचार की पहचान (Identification of Business Idea) –

मैकनॉटन के अनुसार, “प्रत्येक व्यावसायिक उद्यम का उड़ान-बिन्दु (take-off Point) एक विचार होता है। विचार वह शक्ति है जो प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को अपने प्रेक्षपथ पर कायम रखती है। वे उद्यम जिनके पास मौलिक एवं व्यावहारिक विचारों का शक्ति स्रोत नहीं होता, मलिन हो जाते हैं तथा अन्ततः लुप्त हो जाते हैं।”

प्रवर्तन तथा नवप्रवर्तन की प्रारम्भिक अवस्था व्यावसायिक अवसरों की पहचान करना होता है। अवसर की पहचान उसकी व्यावहारिकता तथा लाभदायकता का परीक्षण करने के पश्चात् ही उपक्रम की स्थापना का निर्णय होता है। इस अवस्था में निम्नलिखित बातें सम्मिलित होती हैं-

(1) व्यवसाय के प्रेरक,

(2) व्यावसायिक विचार,

(3) विचार की व्यावहारिकता तथा लाभदायकता की जाँच।

(1) व्यवसाय के प्रेरक (Motives of Business)- समाज में उद्यमिता व्यवसाय के प्रसार एवं विकास में प्रेरणा सामान्यता एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं तथापि प्रेरणा के वृहत दायरे में कुछ सामाजिक अभिप्रायों को उद्यमिता स्वभाव महत्वपूर्ण ढंग से सम्बद्ध पाया गया है; जैसे- प्रभाव, सामाजिक उपलब्धि, व्यक्तिगत उपलब्धि, प्रसार, शक्ति, संयोजन, उपलब्धि की आवश्यकता इत्यादि। व्यवसाय के मुख्य प्रेरक निम्न हैं-

(i) उद्यमीय प्रवृत्ति।

(ii) व्यावसायिक मान्यता तथा ख्याति प्राप्त करने की इच्छा

(iii) अधिक से अधिक धन अर्जित करने की आकांक्षा।

(iv) आत्म सन्तुष्टि, आत्मविकास।

(v) समाज की प्रौद्योगिक प्राप्ति या लक्ष्य, नवप्रवर्तन की इच्छा।

(vi) राष्ट्रीय निष्ठा, समाज के प्रति सेवा का भाव तथा मानव सेवा की आकांक्षा।

(vii) किसी पेशे की लीक से बाहर निकलना।

(viii) स्वतन्त्रता, आत्मनिर्भरता तथा स्व नियन्त्रण की स्थिति में जीना।

(ix) सृजन व निर्माण का सुख।

(x) उच्च उपलब्धियों तथा ऊंचाइयों को प्राप्त करने तथा सामाजिक सम्मान पाने की इच्छा।

(2) व्यावसायिक विचार (Business Ideas)- किसी भी प्रवर्तन अथवा नवप्रवर्तन सम्बन्धी विचार के लिये रचनात्मक तथा ठोस कार्य योजना होना आवश्यक है। व्यावसायिक विचार अनेक विकल्पों के मध्य चयनित किया जाता है; जैसे-निर्माणी इकाई स्थापित की जाये अथवा सेवा उद्यम स्थापित किया जाये या खाद्य तथा कृषि उद्योग स्थापित किया जाये। प्रवर्तन/नवप्रवर्तन सम्बन्धी विचार निम्न प्रकार के हो सकते हैं-

(i) निर्यात संवधर्न के लिये नवीन उत्पाद अथवा सेवा का प्रवर्तन करना।

(ii) कृषि तथा खाद्य वस्तुओं में प्रसंस्करण के द्वारा उनको अधिक अवधि तक संरक्षित करना।

(iii) नवीन सेवा उद्योग का प्रारम्भ।

(iv) न्यून प्रतिस्पर्द्धा का उचित अवसर खोजना।

(v) किसी अप्रयुक्त भौतिक पदार्थ का नया उपयोग खोजना।

(vi) प्राकृतिक संसाधनों के वैकल्पिक व्यावसायिक उपयोग।

(vii) वैज्ञानिक खोज के व्यापारिक उपयोग

(viii) नवीन इलेक्ट्रॉनिक खोजों के आधार पर नवीन उत्पाद अथवा सेवा प्रारम्भ करना।

(ix) अनुपयोगी पदार्थों को उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित करना।

(x) उत्पाद की गुणवत्ता, डिजाइन, प्रयोग में सुधार।

(xi) पूरक वस्तुओं तथा उत्पादों का निर्माण।

(xii) उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार कर अधिक उपयोगी बनाना।

(3) विचार की व्यावहारिकता एवं लाभदायकता की जाँच (Evaluating the Feasibility and Profitability of Ideas)- किसी भी प्रवर्तन अथवा नवप्रर्तन की दशा में जो व्यावसायिक विचार चयनित किया गया है, उसमें इस बात की जाँच करनी होती है कि उत्पाद या सेवा का वास्तविक रूप क्या है? उनकी क्या उपयोगितायें है? उत्पादन एवं क्रियान्वयन की सम्भावित क्षमता क्या है? उक्त क्षमता हेतु निवेश की सीमा क्या है? बाजार सम्भावनायें क्या हैं? तकनीकी जटिलता/व्यवस्था क्या है? सम्भावित वार्षिक विक्रय क्या है? तथा सफलता के निर्धारक तत्व क्या हैं?

उक्त प्रश्नों का उत्तर ज्ञात करना आवश्यक होता है, क्योंकि इससे व्यावसायिक विचार की उपादेयता, व्यावहारिकता एवं लाभदायकता के सम्बन्ध में निर्णय लिया जा सकता है। उक्त परीक्षण में प्रमुख मापदण्ड (Standards) निम्नलिखित हैं-

(a) विचार का स्वामित्व योग्य होना (Idea must be Proprietary) – सर्वप्रथम उद्यमी को इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि क्या उसका व्यावसायिक विचार अथवा प्रस्ताव स्वामित्व योग्य है ? अर्थात् क्या वह इस पर अधिकार प्राप्त कर सकता है ताकि प्रतिद्वन्द्वियों को उसकी नकल करने से रोक सके।

(b) प्रारम्भिक लागत (Initial Cost) – उद्यमी को अपने प्रस्ताव को क्रियान्वित करने में आने वाली प्रारम्भिक लागतों-कच्चे माल, मशीनों, कर्मचारी, तकनीक आदि पर भी विचार करना चाहिये। इनका वास्तविक होना आवश्यक है।

(c) संचरनात्मक उपलब्धता (Infrastructure Facilities)- प्रवर्तन विचार में संरचनात्मक उपलब्धता का अपना एक विशेष महत्व होता है, क्योंकि भूमि, बिजली, पानी, सड़क, बैंक व अन्य मूलभूत सुविधायें इकाई स्थापना स्थल पर मौजूद नहीं है तो इकाई को भविष्य में किसी भी प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही साथ इन सभी मूलभूत आवश्यकताओं के उपलब्ध होने पर अनावश्यक भागदौड़ से भी उद्यमी बच सकता है। स्थान का चुनाव करते समय उद्यमी को निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये-

(i) कच्चे माल की निकट उपलब्धता,

(ii) वर्तमान/भावी बाजार की दूरी,

(iii) न्यूनतम मजदूरी पर कुशल एवं अकुशल श्रमिकों की उपलब्धता,

(iv) औद्योगिक क्षेत्र में शेड या औद्योगिक रूप से विकसित क्षेत्र में भूमि की उपलब्धता,

(v) पानी और बिजली की उपलब्धता,

(vi) डाक, तार और यातायात की सुगम और रियायती दर पर सुविधायें; जैसे- सड़क रेल आदि।

(d) विकास लागत (Development Cost)- नये व्यावसायिक विचार की लाभदायकता को इसी विकास लागत के आधार परखा जाना चाहिये। उत्पादन समय एवं विकास लागत के न्यूनतम होने पर व्यावसायिक विचार को क्रियान्वित करने की योजना बनाई जा सकती है।

(e) संगठन (Organisation)- उद्यम की द्वारा एक उपक्रम को एक संस्था का रूप देने के लिये कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने पड़ते हैं, जिनमें मुख्य रूप से निम्न घटकों को सम्मिलित किया जा सकता है-

(i) संस्था का स्वरूप (Form of Organisation)

(ii) संस्था का आकार (Size of the Unit)

(iii) संस्था की प्रकृति (Nature of the Unit)

(iv) उद्देश्य (Objectives)

(v) व्यावसायिक सहयोग (Business Collaboration)

(f) बाजार सर्वेक्षण (Market Survey)- चयनित विचार के अनुसार उद्यम की स्थापना एवं उत्पाद के चयन में बाजार एक महत्वपूर्ण घटक है। उत्पाद के विपणन की बाजार सम्भावना उसकी अन्तनिर्हित माँग तथा प्रत्यक्ष माँग का पूर्ण सर्वेक्षण और सम्भावनाओं का पता लगाना आवश्यक होता है।

(g) विपणन लागत एवं माध्यम (Marketing Cost & Channels)- सेवा अथवा उत्पादक के विपणन की लागत का निर्धारण भी आवश्यक होता है। आधुनिक प्रतिस्पर्धी बाजारों में विपणन के माध्यमों के उचित चयन द्वारा ही विपणन लागतों में कमी लाई जा सकती है। उत्पाद की व्यावहारिकता एवं लाभदायिकता विपणन माध्यमों पर भी निर्भर करती है।

(h) मानव शक्ति की उपलब्धता (Availability of Human Power)- उत्पाद/उद्यम चयन प्रक्रिया के उपयुक्त मानव शक्ति (कुशल) चयन भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि यदि आप चयन करते हैं चीनी मिट्टी के बर्तन, पीतल, निकिल अथवा शीशा उत्पाद का, तो निश्चय ही आपको कुशल कारीगरों का चयन करना पड़ेगा। कुशल कारीगर उन्हीं क्षेत्रों में उपलब्ध होंगे, जहाँ निर्माण / उत्पाद प्रचुर मात्रा में होते हैं। अतएव मानव शक्ति का चयन, उत्पाद चयन प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

(i) वित्तीय संरचना एवं पूँजी लागत (Financial Structure and Cost of Capital)- प्रवर्तन अथवा नवप्रवर्तन विचार के क्रियान्वयन में वित्तीय संसाधनों को किन स्रोतों से जुटाया जायेगा, स्थायी कार्यशील पूँजी की कितनी आवश्यकता होगी और उनकी प्राप्ति का स्रोत क्या हो, स्वामित्व कोष एवं ऋण पूँजी का अनुपात और लागत क्या होंगी, इन सब बातों का भी परीक्षण करना अनिवार्य है।

(j) सरकारी नीतियाँ (Government Policies)- सरकार व्यवसाय के विकास एवं नियमन हेतु विभिन्न नीतियाँ पारित करती हैं। उद्यमी को इनके सन्दर्भ में यह देखा चाहिये कि क्या वह प्रस्तावित विचार को क्रियान्वित कर सकता है? सरकारी नीति के बारे में उद्यमी को एक दीर्घकालीन दृष्टिकोण सामने रखना चाहिये।

(II) व्यवसाय नियोजन (Business Planning)-

व्यवसाय का प्रवर्तन करने से पूर्व व्यवसाय के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नियोजन करना पड़ता है। व्यवसाय के लक्ष्यों की पूर्ति न्यूनतम साधनों के द्वारा अधिकतम कुशलता से करने के लिये व्यवसाय की समग्र योजना एवं नियोजन करना अपरिहार्य है। नियोजन से महत्वपूर्ण घटक निम्नलिखित हैं-

(1) उत्पाद नियोजन (Product Planning),

(2) संयन्त्र एवं उत्पाद नियोजन (Plant & Production Planning),

(3) लागत नियोजन (Cost Planning),

(4) वित्तीय नियोजन (Financial Planning),

(5) संगठनात्मक नियोजन (Organisation Planning),

(6) विपणन नियोजन (Marketing Planning)

(III) परियोजना प्रतिवेदन का निर्माण (Formation of Project Report)-

प्रवर्तन की प्रारम्भिक अवस्था में व्यवसाय के महत्वपूर्ण पहलुओं की समग्र योजना बनाने के पश्चात् प्राथमिक परियोजना प्रतिवेदन की रचना की जाती है। प्राथमिक परियोजना प्रतिवेदन में उद्यम की संक्षिप्त एवं महत्वपूर्ण जानकारी की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की जाती है।

(IV) संगठन संरचना का निर्माण (Formation of the Organisation) –

उपक्रम को वैधानिक रूप से संगठित करने तथा एक कार्यशील ढाँचा तैयार करने की कार्यवाही करते समय निम्न बातों पर ध्यान दिया जाता है-

(1) साझेदारी संगठन की स्थापना हेतु साझेदारों में एक साझेदारी समझौता होता है, जिसमें साझेदारों के अधिकारों व दायित्वों, पूँजी की राशि, लाभ-हानि, विभाजन का अनुपात, वेतन, ब्याज आदि शर्तों का उल्लेख होता है। इन बातों का निर्णय साझेदारी अधिनियम के अनुसार किया जाता है।

(2) संयुक्त पूंजी कम्पनी के रूप में संगठन की स्थापना करने के लिये सीमानियम व अन्तर्नियम तैयार किये जाते हैं, प्रारम्भिक संचालकों व सदस्यों को तय किया जाता है। सचिव व कानूनी सलाहकार की नियुक्ति की जाती है। तत्पश्चात समामेलन की कार्यवाही के बाद रजिस्ट्रार से व्यवसाय प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त किया जाता है।

(3) सहकारी संगठन के रूप में व्यवसाय को स्थापित करने के लिये कम से कम दस सदस्यों को मिलकर सहनकारी समिति के रजिस्ट्रार के पास आवेदन-पत्र देना होता है। रजिस्ट्रार के पास अपने उपनियमों की एक प्रति जमा करानी होती है। सदस्यों से प्राप्त अंशदान को सहकारी बैंक में जमा करवाना होता है। इसके बाद ही रजिस्ट्रार द्वारा समिति का पंजीयन होता है।

(4) मध्यम तथा बड़े आकार के औद्योगिक संगठनों की स्थापना में प्रायः निम्न औपचारिकतायें भी पूरी करनी होती हैं-

(i) यदि उद्योग की स्थापना हो तो उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत लाइसेन्स प्राप्त करना पड़ता है।

(ii) जब अंश जनता को जारी किये जाते हैं, तो प्रविवरण निर्गमित करना पड़ता है।

(iii) उद्योग को जिस क्षेत्र में स्थापित करना है वहाँ की नगरपालिका से अनुमति प्राप्त करनी होती है।

(iv) विदेशी सहयोग के समझौते के लिये वित्त मंत्रालय की स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती है।

(v) कारखाना अधिनियम के अन्तर्गत पंजीयन करवाना पड़ता है।

(5) उपरोक्त प्रकार के उपक्रम की स्थापना के पश्चात् योजना के क्रियान्वयन के लिये आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था करनी होती है। इसके अन्तर्गत उद्यमी को निम्न कार्य करने पड़ते हैं-

(i) यन्त्र एवं मशीनें प्राप्त करना एवं उनको स्थापित करना,

(ii) कच्चे माल की व्यवस्था करना,

(iii) औद्योगिक बस्ती में भूमि व भवन प्राप्त करना,

(iv) कर्मचारियों व श्रमिकों को प्राप्त कर एवं उन्हें प्रशिक्षण देना,

(v) भवन निर्माण की दशा में नगरपालिकान्यास अथवा स्थानीय पंचायत से अनुज्ञापन पत्र प्राप्त करना,

(vi) लघु उद्योग सेवा संस्थान से लोहा, इस्पात, सीमेन्ट, रियायती दरों पर प्राप्त करना,

(vii) तकनीकी विशेषज्ञों की सेवायें प्राप्त करना,

(viii) आवश्यक सुविधायें जैसे- जल विद्युत, संचार, आदि प्राप्त करना,

(ix) उच्च पदाधिकारियों-सचिव, कानूनी सलाहकारों, तकनीकी विशेषज्ञों आदि की नियुक्ति करना,

(x) निर्यात हेतु आवश्यक प्रबन्ध करना।

(V) वित्त के साधन (Source of Finance) –

उपक्रम की वैधानिक स्थापना हो जाने एवं संसाधनों के एकत्रीकरण हो जाने बाद उपक्रम हेतु वित्त की व्यवस्था करनी होती है। यह वित्त दो प्रकार के स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है-

(1) स्वामित्व पूँजी- एकल स्वामित्व की दशा में उद्यमी का निजी विनियोग व पूँजी, साझेदारी फर्म की दशा में साझेदारों द्वारा लगाई गयी पूँजी, कम्पनी तथा सहकारी संस्था की दशा में अंशधारियों द्वारा लगाई गयी पूँजी ही स्वामित्व होती है।

(2) ऋण पूँजी- पूँजी की पूर्ण पर्याप्तता के अभाव में एक उपक्रम को ऋण पूँजी की भी आवश्यकता होती है। ऋण पूँजी प्राप्त करने के विभिन्न स्रोत निम्नलिखित हैं-

  • औद्योगिक वित्त निगम (IFC)
  • व्यापारिक बैंक द्वारा ऋण (Commercial Banks Loan)
  • राज्य वित्त निगम (SFCs)
  • राज्य सरकारी द्वारा ऋण (State Govt. Loan)
  • मित्र व सहयोगी से ऋण,
  • सार्वजनिक जमा धन को स्वीकारना,
  • ऋण-पत्र जारी करना।

(VI) व्यावसाय का प्रारम्भ (Commencement of Business) –

उपक्रम की स्थापना की समस्त कार्यवाही पूर्ण हो जाने के पश्चात् उद्यमी व्यवसाय प्रारम्भ करते हैं। सबसे पहले संस्था अपना उत्पादन कार्यक्रम तैयार करके उसके अनुरूप ही उत्पादन की गतिविधियों को मूर्तरूप देती है। संस्था में पत्र व्यवहार एजेन्टों, पूर्तिकर्ताओं तथा अन्य व्यक्तियों आदि से कार्यालय द्वारा किया जाता है। संस्था सूचनायें प्राप्त करती है तथा उनके अभिलेख रखती हैं। एक संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी की दशा में, व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिये इसका सचिवालय विभिन्न वैधानिक पुस्तकों को तैयार करता है। सदस्यों के रजिस्टर तैयार किये जाते हैं। एक उद्यमी अपने उद्योग के संचालन के लिये विभिन्न विभागों व एजेन्सियों से सम्पर्क करता है। विभिन्न आवश्यकताओं हेतु उससे सम्बन्धित विभिन्न  एजेन्सियों से सहायता प्राप्त करता है।

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