पारस्परिक मांग का सिद्धान्त | मिल के पारस्परिक मांग का सिद्धान्त की मान्यताएं | मिल का पारस्परिक मांग सिद्धान्त की आलोचनाएं

पारस्परिक मांग का सिद्धान्त | पारस्परिक माँग क्या है? | मिल के पारस्परिक मांग का सिद्धान्त | मिल के पारस्परिक मांग का सिद्धान्त की मान्यताएं | मिल का पारस्परिक मांग सिद्धान्त की आलोचनाएं

पारस्परिक मांग का सिद्धान्त

रिकार्डो ने तुलनात्मक लाभ का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था, परन्तु उसने यह स्पष्ट नहीं किया कि वस्तुओं का परस्पर विनिमय किन अनुपातों में होगा। इस समस्या पर जे०एस० मिल (J.S. Mill) ने अपने पारस्परिक मांग के सिद्धान्त में विस्तारपूर्वक चर्चा की है। मिल ने व्यापार की संतुलन शर्तों के निर्धारण की व्याख्या करने के लिए ‘पारस्परिक मांग’ शब्द चलाया था। यह शब्द किसी देश की एक वस्तु की मांग को अन्य वस्तु को उन मात्राओं के रूप में निर्दिष्ट करने के लिए प्रयोग किया जाता है जो वह बदले में छोड़ने को तैयार है। पारस्परिक मांग ही व्यापार की शर्तों को निर्धारित करती है और व्यापार की शर्ते, आगे, प्रत्येक देश के सापेक्ष भाग को निर्धारित करती है। दो वस्तुओं के बीच संतुलन उस विनिमय के अनुपात पर निर्धारित होगा जिस पर प्रत्येक देश द्वारा दूसरे देश से आयात की जाने वाली वस्तु की मांग ठीक उतनी होगी जो एक-दूसरे के लिए भुगतान करने को पर्याप्त हो।

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अपने पारस्परिक मांग के सिद्धान्त की व्याख्या करने के लिए मिल ने पहले रिकार्डों के तुलनात्मक लागतों के सिद्धान्त को पुनः प्रस्तुत किया। “उसने यह मानने की बजाय कि दो देशों में प्रत्येक वस्तु के उत्पादन की मात्रा दी हुई है जिनकी श्रम लागतें भिन्न हैं, यह मान्यता रखी कि प्रत्येक देश में श्रम की मात्रा दी हुई है परन्तु उसके उत्पादन की मात्राएँ अलग-अलग हैं। इस प्रकार रिकार्डो की तुलनात्मक श्रम लागत की मान्यता के मुकाबले मिल ने तुलनात्मक लाभ के रूप में अपने सिद्धान्त की स्थापना की।”

मान्यताएं (Assumptions)

मिल का पारस्परिक मांग का सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:

(1) दो देश हैं, मान लीजिए, इंग्लैंड और जर्मनी। (2) दो वस्तुएं हैं, मान लीजिए, लिनन (linen) और कपड़ा। (3) दोनों ही वस्तुओं का उत्पादन स्थिर प्रतिफलों के नियम के अन्तर्गत. होता है। (4) परिवहन लागतें बिलकुल नहीं हैं। (5) दोनों देशों की जरूरतें एक जैसी हैं। (6) पूर्ण प्रतियोगिता है। (7) पूर्ण रोजगार है। (8) दोनों देशों के बीच स्वतन्त्र व्यापार है। (9) दोनों देशों के बीच व्यापार सम्बन्धों में तुलनात्मक लागतों का नियम लागू होता है।

इस मान्यताओं के दिए हुए होने पर मिल के पारस्परिक मांग के सिद्धान्त की व्याख्या सारणी I की सहायता से की जा सकती है।

सारणी I: उत्पादित वस्तुओं की मात्राएं

उत्पादन (इकाइयों में)
देश लिनन कपड़ा घरेलू विनिमय अनुपात
जर्मनी 10 10 1:1
इंग्लैंड 6 8 1:1.33

मान लीजिए कि जर्मनी एक मानव-वर्ष (man-year) के भीतर लिनन की 10 इकाइयों अथवाक की 10 इकाइयों का उत्पादन करता है और इंग्लैंड उतना ही श्रम-समय लगाने से लिनन की 6 इकाइयों अथवा कपड़े की 8 इकाइयों का उत्पादन कर सकता है। मिल के मतानुसार, “इकाइयों के उत्पादन से सम्बन्धित कल्पना कर लिए जाने पर इंग्लैंड के हित में यह होगा कि वह जर्मनी से लिनन का आयात करे और जर्मनी के हित में होगा कि वह इंग्लैंड से कपड़े का आयात करे।” इसका कारण यह है कि जर्मनी को लिनन तथा कपड़े, दोनों, के उत्पादन में निरपेक्ष (absolute) लाभ है जबकि इंग्लैंड को कपड़े के उत्पादन में न्यूनतम तुलनात्मक हानि है। इसे उनके घरेलू विनिमय अनुपातों और अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय अनुपातों से समझा जा सकता है।

व्यापार से पहले, लिनन तथा कपड़े का घरेलू लागत अनुपात जर्मनी में 1:1 है और इंग्लैंड में 3:4 है। यदि वे परस्पर व्यापार करने लगे, तो इंग्लैंड की तुलना में जर्मनी को लिनन के उत्पादन में 5:3 (अथवा 10:6) लाभ होगा और कपड़े के उत्पादन में 5:4 (अथवा 10:8) लाभ होगा। क्योंकि 5/4 से 5/3 अधिक है, इसलिए जर्मनी को लिनन के उत्पादन में तुलनात्मक लाभ अधिक होता है। इस प्रकार जर्मनी के हित में यह होगा कि यह इंग्लैंड को कपड़े के बदले लिनन का निर्यात करे। इसी प्रकार इंग्लैंड की स्थिति लिनन के उत्पादन में 3/5 (अथवा 6/10) और कपड़े के उत्पादन में 4/5 (अथवा 8/10) है। क्योंकि 3/5 से 4/5 अधिक है, इसलिए इंग्लैंड के हित में होगा कि वह जर्मनी को लिनन के बदले कपड़े का निर्यात करे।

मिल का पारस्परिक मांग का सिद्धान्त उन सम्भव शर्तों से सम्बन्ध रखता है जिन पर दो देशों के बीच दो वस्तुओं का परस्पर विनिमय होगा। व्यापार की शर्तों का मतलब है-दो देशों के बीच “व्यापार की वस्तु-विनिमय शर्ते” अर्थात् एक देश के आयातों की मात्रा का निर्यातों की दी हुई मात्रा का अनुपात। और प्रत्येक देश में श्रम की सापेक्ष कुशलता द्वारा स्थापित घरेलू विनिमय अनुपात व्यापार की सम्भव वस्तु-विनिमय दरों की अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय अनुपात की सीमाओं को निर्धारित करते हैं।”

एक उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि दो श्रम-समय लगाने से जर्मनी में लिनन की 10 इकाइयों का तथा कपड़े की 10 इकाइयों का उत्पादन होता है जबकि इंग्लैंड में श्रम की वही मात्रा लिनन की 6 इकाइयों तथा कपड़े की 8 इकाइयों का उत्पादन करती है। लिनन तथा कपड़े के बीच घरेलू विनिमय अनुपात जर्मनी में 1:1 और इंग्लैंड में 1:1.33 है। इस प्रकार व्यापार की सम्भव शर्तों की सीमाएं जर्मनी में 1 लिनन: 1 कपड़ा और इंग्लैंड में 1 लिनन:1:33 कपड़ा है। इस प्रकार दोनों देशों के बीच व्यापार की शर्ते 1 लिनन या 1 कपड़ा अथवा 1.33 कपड़ा होगी।

परन्तु वास्तविक अनुपात पारस्परिक मांग पर निर्भर करेगा अर्थात् “दूसरे देश की वस्तु के लिए प्रत्येक देश की मांग की शक्ति तथा लोच पर” निर्भर करेगा। यदि इंग्लैंड के कपड़े के लिए जर्मनी की मांग अधिक तीव्र (बेलोच) होगी, तो व्यापार की शर्ते 1:1 के अधिक निकट होंगी। इंग्लैंड के कपड़े की एक इकाई के बदले जर्मनी लिनन की एक इकाई का विनिमय करने को तैयार होगा। व्यापार की शर्ते जर्मनी के प्रतिकूल और इंग्लैंड के पक्ष में जाएंगी। परिणाम यह होगा कि व्यापार से इंग्लैंड की अपेक्षा जर्मनी को कम लाभ होगा। दूसरी ओर यदि इंग्लैंड के कपड़े के लिए जर्मनी की मांग कम तीव्र (अधिक लोचदार) है, तो व्यापार की शर्ते 1:1.33 के अधिक निकट होंगी। व्यापार की शर्ते जर्मनी के पक्ष में और इंग्लैंड के प्रतिकूल होंगी, क्योंकि जर्मनी 1 लिनन के बदले इंग्लैंड से 1.33 कपड़ा विनिमय कर सकेगा। परिणाम यह होगा कि व्यापार से इंग्लैंड की अपेक्षा जर्मनी को अधिक लाभ होगा।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि “(1) वस्तु-विनिमय शर्तों का सम्भव सीमा-क्षेत्र व्यापार की उन सम्बद्ध घरेलू शतों से प्राप्त होता है जिन्हें प्रत्येक देश में तुलनात्मक कुशलता निर्धारित करती है, (2) इस सीमा-क्षेत्र के भीतर व्यापार की वास्तविक शर्ते प्रत्येक देश की वस्तु के लिए दूसरे देश की मांग पर निर्भर करती हैं, और (3) अन्तिम व्यापार की केवल वही वस्तु-विनिमय शर्ते स्थिर रहेंगी जिन पर प्रत्येक देश द्वारा प्रस्तुत निर्यात उस देश द्वारा इच्छित आयातों का भुगतान करने के लिए ठीक पर्याप्त होंगे।”

मिल के पारस्परिक मांग के सिद्धान्त की आरेखीय व्याख्या मार्शल के प्रस्ताव वक्रों के रूप में की जा सकती है। चित्र में इंग्लैंड केवल कपड़े का उत्पादन करता है जिसे क्षैतिज अक्ष पर लिया गया है और जर्मनी केवल लिनन का उत्पादन करता है जिसे अनुलम्ब अक्ष पर लिया गया है। OE वक्र इंग्लैंड का प्रस्ताव वक्र है। यह बताता है कि लिनन की दी हुई मात्रा के बदले इंग्लैंड कपड़े की कितनी इकाइयां छोड़ने को तैयार है। इसी प्रकार OG वक्र जर्मनी का प्रस्ताव वक्र है जो बताता है कि कपड़े की दी हुई मात्रा के बदले, जर्मनी लिनन की कितनी इकाइयां छोड़ने को तैयार हैं। बिन्दु T जहां दोनों प्रस्ताव वक्र OE तथा 0G एक-दूसरे को काटते हैं, संतुलन बिन्दु है जिस पर इंग्लैंड कपड़े की OC मात्रा के बदले जर्मनी के लिनन की OL मात्रा से व्यापार करता है। जिस दर पर लिनन के बदले कपड़े का विनिमय होता है वह रेखा OT के ढलान के बराबर है।

जब एक देश की ओर से दूसरे देश की वस्तु के लिए मांग में परिवर्तन होता है, तो इससे उस देश के प्रस्ताव वक्र का रूप बदल जाता है। मान लीजिए कि जर्मनी की लिनन के लिए इंग्लैंड की मांग बढ़ जाती है। हो सकता है कि अब इंग्लैंड जर्मनी की लिनन के बदले अधिक कपड़ा विनिमय करने को तैयार हो। इसके परिणामस्वरूप इंग्लैंड का प्रस्ताव वक्र दाएं को सरक कर OE1 पर चला जाता है जो जर्मनी के प्रस्ताव वक्र 0G को T1 पर काटता है। अब इंग्लैंड लिनन की OL1 इकाइयों के बदले कपड़े की OC1 इकाइयों का व्यापार करता है। बिन्दुकित रेखा OT1  के ढलान द्वारा व्यक्त व्यापार-शर्ते बताती हैं कि वे इंग्लैण्ड के लिए खराब हो गयी हैं तथा जर्मनी के लिए बेहतर हो गयी हैं। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट है कि इंग्लैंड लिनन की LL1  इकाइयों के बदले कपड़े की CC1  इकाइयां जर्मनी को देता है। LL1  से CC1  भाग अधिक बड़ा है।

इसी प्रकार यदि इंग्लैंड के कपड़े के लिए जर्मनी की मांग बढ़ जाती है, तो जर्मनी का प्रस्ताव वक्र बाएं की ओर सरक कर 0G1 पर चला जाता है, जो इंग्लैंड के प्रस्ताव वक्र OE को T2 पर काटता है। अब जर्मनी कपड़े की 0G2 इकाइयों के बदले इंग्लैंड को लिनन की OL2 इकाइयों का विनिमय करता है। बिन्दुकित रेखा OT2 के ढलान द्वारा व्यक्त व्यापार शर्ते बताती हैं कि वे जर्मनी के लिए खराब और इंग्लैंड के लिए बेहतर हो गयी हैं। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट है कि जर्मनी कपड़े की कम मात्रा CC2 के बदले लिनन की अधिक मात्रा LL2  इंग्लैंड को देता है अर्थात् LL2, >CC2। चाहे जो स्थिति हो, पर यह निश्चित है कि दोनों देशों के बीच व्यापार की शर्ते घरेलू स्थिर लागत अनुपातों के बीच में रहेंगी जिन्हें Og तथा Oe रेखाएं व्यक्त करती हैं जैसा कि चित्र 5.2 में दिखाया गया है।

परन्तु व्यापार की वास्तविक शर्ते प्रत्येक देश के प्रस्ताव वक्र की मांग की लोच पर निर्भर करेंगी। किसी देश का प्रस्ताव वक्र जितना अधिक लोचदार होगा, दूसरे देश की तुलना में व्यापार की शर्ते उसके उतना ही अधिक प्रतिकूल होंगी। इसके विपरीत, उसका प्रस्ताव वक्र जितना अधिक बेलोच होगा दूसरे देश की अपेक्षा व्यापार की शर्ते उसके उतना ही अधिक अनुकूल होंगी।

व्यापार से लाभों का वितरण चित्र में स्पष्ट किया गया है। इस चित्र में OE तथा OG क्रमश: इंग्लैंड तथा जर्मनी के प्रस्ताव वक्र हैं।Oe तथा 0g क्रमश: दोनों देशों में लिनन तथा कपड़ा, दोनों के उत्पादन के स्थिर घरेलू लागत अनुपात हैं। व्यापार की वास्तविक शर्ते बिन्दु P पर तय होती हैं जो कि ऐसा बिन्दु है जिस पर OE तथा OG एक-दूसरे को काटते हैं। OT रेखा व्यापार की संतुलित शर्तों को व्यक्त करती है।

इंग्लैंड के भीतर लागत अनुपात है-लिनन की KS इकाइयां: कपड़े की OK इकाइयां। परन्तु इसे व्यापरर के माध्यम से लिनन की KP इकाइयां प्राप्त होती हैं। इसलिए लिनन की SP इकाइयां इसका लाभ हैं। जर्मनी में घरेलू लागत अनुपात है-लिनन की K इकाइयांः कपड़े की OK इकाइयां। परन्तु वह लिनन की केवल KP इकाइयों के बदले इंग्लैंड से कपड़े की OK इकाइयों का आयात करता है। इस प्रकार इसे लिनन की PR इकाइयों का लाभ होता है। किसी देश का लाभ जितना ही अधिक होगा, उतनी ही अधिक उस देश की व्यापार की शर्ते दूसरे देश की घरेलू शर्तों के निकट होंगी।

मिल का पारस्परिक मांग सिद्धान्त की आलोचनाएं (Its Criticisms)

मिल का पारस्परिक मांग सिद्धान्त लगभग उन्हीं अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है जो रिकार्डो ने अपने तुलनात्मक लाभ के सिद्धान्त में अपनाई थीं। इसलिए इस सिद्धान्त में भी उससे मिलती-जुलती कमियां हैं। इसके अतिरिक्त वाइनर गैहम (Graham) तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने कुछ और आलोचनाएं भी की हैं।

  1. मिल का पारस्परिक मांग का सिद्धान्त वस्तु की घरेलू मांग पर ध्यान नहीं देता (Does not pay attention to Domestic Demand)- जैसा कि वाइनर ने लक्ष्य किया है, प्रत्येक देश अपनी घरेलू मांग को पूरा करने के बाद अपने उत्पादन को निर्यात करेगा। इसलिए जब तक घरेलू मांग पूरी नहीं होगी तब तक जर्मनी का मांग वक्र 0g रेखा से नीचे नहीं होगा, और यही बात इंग्लैंड पर भी लागू होती है।
  2. दोनों देश समान आकार के नहीं हो सकते (Both countries can not be of Equal Size)- ग्रैहम के मतानुसार मिल का विश्लेषण तभी सही ठहरता है जब दोनों देशों का आकार समान हो और दोनों वस्तुओं का उपभोग मूल्य भी समान हो। इन दो मान्यताओं के अभाव में यदि एक देश छोटा है और दूसरा देश बड़ा है, तो दोनों ही स्थितियों में छोटे देश को अधिकतम लाभ होता है। प्रथम, यदि वह उच्च-मूल्य वस्तु का उत्पादन करेगा, तो वह अपने बड़े भागीदार के लागत अनुपात अपनाएगा; और दूसरे, क्योंकि दोनों देशों का आकार बराबर नहीं है, इसलिए व्यापार की शर्ते बड़े देश की तुलनात्मक लागतों पर अथवा उनके निकट तय होंगी। इसलिए ग्रैहम ने क्रमश: दो वस्तुओं और तीन चार देशों के बारे में, दो देशों और तीन या चार वस्तुओं के बारे में अनेक देशों और अनेक वस्तुओं जटिल व्यापार के बारे में विचार किया है।
  3. पूर्ति पक्ष की अवहेलना (Neglect of Supply Sids)- ग्रैहम ने आगे इस बात के लिए भी मिल की आलोचना की है कि उसने अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों के निर्धारण में मांग पर बल दिया है और पूर्ति की उपेक्षा की है। उसका कहना है कि पारस्परिक मांग लागू करने से ऐसा प्रतीत होता है कि केवल मांग ही रुचि का विषय है। उसका दृढ़ मत है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उत्पादन लागतें (पूर्ति) भी बहुत अधिक महत्व रखती हैं। इस प्रकार उसने पारस्परिक मांग के नियम को केवल प्राचीन काल के अवशेषों तथा पुरातन चित्रों में व्यापार के लिए ही उपयुक्त बताकर प्रहार किया है।
  4. दो देशों में आय के उतार-चढ़ावों पर ध्यान नहीं देता (Does not pay attention to fluctuations in Income in two Countries)- मिल के पारस्परिक मांग के विश्लेषण की एक और दुर्बलता यह है कि वह दो व्यापाररत देशों में आय में उतार-चढाव पर कोई ध्यान नहीं देता जबकि यह अनिवार्य है कि उतार-चढ़ाव निश्चय से उन दोनों देशों के बीच व्यापार की शर्तों को प्रभावित करेंगे।
  5. वास्तविक तथा काल्पनिक (Unrealistic and Arbitrary)— पारस्परिक मांग का सिद्धान्त व्यापार की वस्तु विनिमय शर्तों और सापेक्ष कीमत अनुपातों पर आधारित है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ” कीमतों और मजदूरियों की समस्त दृढ़ता, समस्त संक्रमणात्मक स्फीतिकारी तथा अतिमूल्यन अन्तरों और सभी भुगतान-शेष सम्बन्धी समस्याओं की उपेक्षा करता है।” इसलिए, यदि इस सिद्धान्त को काल्पनिक और अयाथार्थिक कहा जाए तो आश्चर्य नहीं। इसलिए, ग्रैहम इस सिद्धान्त को सारतः भ्रममूलक मानता है और इसे रद्द करने की बात कहता है।
  6. अवास्तविक मान्यताएं (Unrealistic Assumptions)- मिल का सिद्धान्त ऐसी मान्यताओं पर आधारित है जो अवास्तविक हैं; जैसे दो देश, दो वस्तुएं, स्थिर प्रतिफल का नियम, परिवहन लागतों का अभाव, समान आवश्यकताएं पूर्ण रोजगार तथा पूर्ण प्रतियोगिता का पाया जाना। ये सिद्धान्त को अयथार्थिक बना देता है।
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