शिक्षाशास्त्र / Education

प्रत्यय का अर्थ एवं परिभाषा | प्रत्यय की विशेषताएँ | प्रत्यय निर्माण की अवस्थायें | प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक | प्रत्यय विकास के विभिन्न स्तर | प्रत्यय निर्माण में निहित मानसिक प्रक्रियाएँ | प्रत्यय का शैक्षिक महत्व | प्रत्यय निर्माण में शिक्षक का योगदान

प्रत्यय का अर्थ एवं परिभाषा | प्रत्यय की विशेषताएँ | प्रत्यय निर्माण की अवस्थायें | प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक | प्रत्यय विकास के विभिन्न स्तर | प्रत्यय निर्माण में निहित मानसिक प्रक्रियाएँ | प्रत्यय का शैक्षिक महत्व | प्रत्यय निर्माण में शिक्षक का योगदान

प्रत्यय का अर्थ एवं परिभाषा

कतिपय मनोवैज्ञानिकों का मत है कि प्रत्यय मनुष्य के पूर्व अनुभवों का घनीभूत रूप होता है। मनुष्य किसी वस्तु या व्यक्ति या घटना का अनुभव प्रति क्षण करता है। इनको वह सामान्य रूप प्रदान करता है और हरेक को दूसरे से अलग करता है। उदाहरण के लिए मनुष्य, घोड़ा, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, लड़ाई-झगड़ा, सुन्दर स्थान आदि-आदि का प्रत्यय व्यक्ति बनाता है। मनुष्य एक जीव है जो घोड़ा-हाथी से भिन्न होता है। उसका एक सामान्य चित्र होता है जिसमें सिर, हाथ, धड़, पैर होते हैं और ऐसी रचना दूसरे में नहीं होती है। इसलिए मनुष्य का प्रत्यय उसके गुणों, आकार आदि पर एक सामान्य चित्र होता है।

मनोविज्ञानियों ने प्रत्यय की निम्न परिभाषाएँ दी हैं-

(1) प्रो० मॉर्गन- “एक प्रत्यय वस्तुओं या घटनाओं के सामान्य गुण को प्रकट करने वाला क्रम है।”

(2) प्रो० मन के अनुसार- “प्रत्यय अतीत अनुभव के घनीभूत रूप हैं ।”

(3) हैमस्टन के अनुसार- “प्रत्यय घटनाओं, वस्तुओं एवं व्यक्तियों के जगत में सामान्य विशेषताओं और सम्बन्धों के विभिन्नीकरण की प्रक्रिया है।”

(4) प्रो० क्रिस्को और क्रैफोर्ड के अनुसार- “समान विशेषता वाले उद्दीपकों का वर्ग प्रत्यय कहलाता है।”

(5) प्रो० बोरिंग, लैंग्फेल्ड व वेल्ड के अनुसार- “प्रत्यय किसी देखी हुई वस्तु की मस्तिष्क में प्रतिमा है।

प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया- प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया जटिल कही जाती है जिसमें कई मानसिक प्रक्रियाएँ जुड़ी होती हैं। प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया निम्न हैं-घटना-वस्तु- व्यक्ति–संवेदन-प्रत्यक्षीकरण-प्रतिमा निर्माण सामान्यीकरण प्रत्यय। इससे स्पष्ट है कि घटना-वस्तु-व्यक्ति के द्वारा उत्तेजना पाने पर मस्तिष्क संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, प्रतिमा निर्माण में लगता है। ज्यो ही प्रतिमा निर्माण की प्रक्रिया पूरी हुई प्राणी (मानव) अपने ज्ञानात्मक अनुभव को स्थायी रूप से धारण करता है और इसके लिए उसके मस्तिष्क में सामान्यीकरण (Generalication) की प्रक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप प्रत्यय प्राप्त होते हैं। अब देखिए कि प्रत्यय की प्रक्रिया कितनी कठिन होती है।

प्रत्यय की विशेषताएँ-

उपर्युक्त सभी विचारों एवं कथनों की सहायता से हम प्रत्यय की कुछ वेशेषताआ को समझने का प्रयास करेंगे। विशेषताएँ निम्नलिखित कही जा सकती हैं-

(1) प्रत्यय उद्दीपक के किसी वर्ग से सम्बन्धित होता है, न किसी एक उद्दीपक से।

(2) वर्ग के प्रत्येक सदस्य में पाये जाने वाले गुण प्रत्यय के गुण होते हैं।

(3) प्रत्यय अनुभवों के प्रत्यक्षीकरण, प्रतिमाकरण और सामान्यीकरण की संश्लिष्ट प्रक्रिया होती है।

(4) प्रत्यय का आधार संवेदन और प्रत्यक्षीकरण होता है।

(5) प्रत्यय मस्तिष्क में बनाई गई प्रतिमाओं का सामान्य स्वरूप है।

(6) प्रत्यय निर्माण की क्षमता प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग पाई जाती है।

(7) प्रत्यय का निर्माण शैशवावस्था से वृद्धावस्था तक होता रहता है।

(8) प्रत्यय अर्थपूर्ण संकेत (Symbols) होते हैं जिनकी सहायता से चिन्तन होते हैं।

(9) प्रत्यय समस्त बौद्धिक कार्यों के लिए आवश्यक साधन होते हैं।

(10) प्रत्यय का निर्माण आयु और परिपक्वता पर निर्भर करता है।

प्रत्यय निर्माण की अवस्थायें-

प्रत्यय निर्माण व्यक्ति के विकास के साथ-साथ है। आयु के बढ़ने पर प्रत्यय निर्माण अधिक सरलता से होता है क्योंकि मस्तिष्क की परिपक्वता बढ़ जाती है। प्रो० पिआजे ने ज्ञानात्मक विकास का दीर्घकालीन अध्ययन किया। इनके अनुसार हम निम्नलिखित कालों में प्रत्यय को निम्नांकित कर सकते हैं।

(1) संवेदनात्मक-गामक काल- व्यक्ति के ज्ञानात्मक विकास का यह काल जन्म से दो वर्ष तक रहता है। इसमें शिशु शारीरिक इच्छाओं की सन्तुष्टि चाहता है और उसे इन्द्रिय ज्ञान होता है। इस काल में जो अनुभव होते हैं वे संवेदन और गति से जुड़े होते हैं। दो वर्ष का शिशु उठने-बैठने, चलने-फिरने, गरम-ठंडा, डाँटने आदि का प्रत्यय बना लेता है।

(2) पूर्व संक्रियात्मक काल- इस काल का आरम्भ 2 वर्ष से होता है और यह काल 7 वर्ष तक चलता है। यह विकास का जटिल स्तर है क्योंकि आयु के बढ़ने से, पर्यावरण के साथ सम्पर्क के बढ़ने से अधिकाधिक प्रत्यय निर्माण होता है। नर्सरी शिक्षा का यह काल है। इसे मूर्त संक्रिया काल की तैयारी का काल कहते हैं। इस काल में मानसिक क्रियाएँ अधिक होती है, प्रत्यक्षकरण, स्मृति, कल्पना, चिन्तन आदि का विकास होता है। अतएव प्रत्यय निर्माण में तीव्रता भी आती है।

(3) मूर्त्त संक्रियात्मक काल- प्रो० पिआज के अनुसार 7 से 11 वर्ष तक यह काल होता है। इस काल में बालक चिन्तन-तर्क करने में समर्थ होता है जिसमें प्रत्ययों का प्रयोग होता है। गणित की समस्याओं का हल और संस्थाओं में अन्तर-सम्बन्धों को समझता है केवल प्रत्ययों के आधार पर ही । कहानी व कविता में संकेतों को शीघ्र समझ जाता है।

(4) औपचारिक संक्रियात्मक काल- यह काल 11 से 15 वर्ष तक रहता है। इस काल में बालक का मस्तिष्क अधिक परिपक्व हो जाता है और यह संज्ञात्मक विचार (Cognitive thought) में समर्थ होता है। इस काल में चिन्तन, तर्क, समस्या समाधान की योग्यता व्यक्ति में आ जाती है। विभिन्न दूरस्थ वस्तुओं के बारे में चिन्तन करने के योग्य बालक हो जाता है। इसमें जटिल मानसिक संगठन भी होने लगता है। अतएव इस काल में प्रत्यय निर्माण अच्छी तरह होता है।

प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक-

प्रत्यय निर्माण के संवेदन, गामक और संक्रियात्मक प्रक्रिया है। इस पर सभी कारकों का प्रभाव पड़ता है। ये कारक नीचे दिए जा रहे हैं-

(1) मानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- चूँकि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संवेदना का प्रत्यक्षीकरण होता है, अतएव इनको दोषों से मुक्त रखना चाहिए और इनका प्रशिक्षण भी हो ताकि प्रत्यय निर्माण अच्छी तरह हो।

(2) अनुभव के अवसर-सीखने/अनुभव करने के अधिकाधिक अवसर देने से प्रत्यय निर्माण अच्छी तरह होता है।

(3) पर्यावरण- परिवार, विद्यालय, समाज के पर्यावरण यदि अच्छे और विकासपूर्ण होंगे तो प्रत्यय निर्माण का विकास अच्छी तरह होगा। उदाहरण के लिए टी० वी०, रेडियो, संगणक, फ्रिज, हवाई जहाज, टेलीफोन आदि के प्रत्यय पर्यावरण के प्रभाव से ही बनते हैं।

(4) बुद्धि- अधिक बुद्धि या तीव्र बुद्धि वालों में प्रत्ययों का निर्माण सामान्य बुद्धि वालों की अपेक्षा अधिक होता है।

(5) आयु- आयु के बढ़ने पर प्रत्यय का निर्माण अधिक होता है, क्योंकि मानसिक परिपक्वता बढ़ती है।

(6) शिक्षा के साधन- शिक्षा के साधन प्रत्यक्षीकरण का अवसर देते हैं और उसका प्रभाव प्रत्यय निर्माण पर पड़ता है। प्रो० वोरम और लिवसन के द्वारा किण्डर गार्टन विद्यालय पढ़ने वाले और इस विद्यालय में न पढ़ने वाले छात्रों का अध्ययन किया गया जिसमें यह निष्कर्ष निकला कि पहले समूह वाले प्रत्यय निर्माण में दूसरे समूह वालों से आगे निकले।

प्रत्यय विकास के विभिन्न स्तर-

मनोविज्ञानियों द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर प्रत्यय विकास के नीचे लिखे स्तर होते हैं-

(1) स्थूल स्तर- मूर्त या स्थूल वस्तुओं का निरीक्षण करके ही व्यक्ति जहाँ प्रत्यक्षीकरण और प्रत्यय प्राप्त करता है वहाँ यह स्तर होता है। जैसे खिलौनों को देखकर बालक उसका प्रत्यय बनाता है।

(2) परिचय का स्तर- पहले मूर्त्त स्तर का यह विकसित रूप है। इस स्तर पर देखी हुई वस्तु की तादात्मकता या पहिचान अन्य वस्तु के बीच होने पर सामान्यीकरण होता है और प्रत्यय बनता है।

(3) वर्गीकरण का स्तर- इस स्तर पर प्रत्ययों से जुड़ी वस्तुओं का वर्गीकरण हो जाता है, जैसे साइकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल में। इनमें वस्तुतः क्या विशेष अन्तर है बालक नहीं समझ पाता है। सामान्य शब्दों में क्या विभेद है यह बालक नहीं जान पाता है।

(4) औपचारिक स्तर- इस स्तर पर व्यक्ति वस्तु या घटना या प्राणी को नाम दे लेता है-कुत्ता, बिल्ली, गाय, घो। यही वास्तविक स्तर होता है जिसमें सामान्यीकरण की संकेत द्वारा पहचान की जाती है।

प्रत्यय निर्माण में निहित मानसिक प्रक्रियाएँ-

नीचे कुछ मानसिक प्रक्रियाओं को बताया जाता है जो प्रत्यय निर्माण में क्रियाशील पाई जाती है और आन्तरिक रूप से उसके अंग भी हैं।

(1) निरीक्षण- वस्तुओं का निरीक्षण करने पर बालक को उनका प्रत्यय बनाना सरल होता है।

(2) प्रत्यक्षीकरण- निरीक्षण करने पर बालक के मन में वस्तु की प्रतिमा बनती है। यह प्रत्यक्षीकरण है। प्रत्यय बनने के पहले इसका होना जरूरी है।

(3) विश्लेषण- जिन-जिन वस्तुओं, प्राणियों का प्रत्यक्षीकरण होता है और प्रतिमा बनती है उनको अलग-अलग करना जरूरी होता है, तभी स्पष्ट प्रत्यय बनते हैं। यही विश्लेषण प्रक्रिया है।

(4) तुलना- विश्लेषण के साथ-साथ तुलना भी होती है तभी एक वस्तु या व्यक्ति को एक-दूसरे से अलग पहचाना जाता है जैसे गाय और घोड़ा तुलना करने पर भिन्न मालूम होता है।

(5) अमूर्तीकरण- इसमें बालक के गुणों को पहचानता है जैसे गाय व घोड़ा अलग कैसे हैं। पुनः इसका सूक्ष्म स्वरूप मस्तिष्क में धारण करता है। यही अमूर्तीकरण है।

(6) सामान्यीकरण- सामान्यीकरण की प्रक्रिया उपर्युक्त सभी प्रक्रियाओं के मेल से अन्त में प्रकट होती है। इसमें बालक एक प्रकार की वस्तु या प्राणी की “अनेक विभिन्नताओं में भी एकरूपता” निकाल लेता है या सामान्यीकृत कर लेता है। इसी के साथ वह नामकरण भी करता है। जैसे ‘गाय’ और ‘घोड़ा’ की विशेषताएँ अलग-अलग होती हैं परन्तु सभी गायों या घोड़ों में वें सामान्य रूप से मिलेंगी। इससे स्पष्ट पहचान होती है।

प्रत्यय का शैक्षिक महत्व-

प्रत्यय ज्ञान और अनुभव के सूक्ष्म-सामान्य रूप हैं और इनका निर्माण धीरे-धीरे आयु के बढ़ने एवं मस्तिष्क के परिपक्व होने पर होता है। अतएव प्रत्यय और शिक्षा में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। प्रत्यय के सहारे शिक्षण करना सरल होता है।

प्रत्यय-निर्माण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। परन्तु प्रत्यय-निर्माण के लिए प्रशिक्षण देने से यह जटिल प्रक्रिया सरल होती है। भाष गणित, इतिहास, भूगोल आदि विषयों की  शिक्षा प्रत्ययों के प्रयोग पर निर्भर करती है और इन विषयों का पठन-पाठन बालक को कल्पना, चिन्तन तथा तर्क के सहारे प्रत्यय-निर्माण में सहायता देता है। यही एक प्रकार का प्रत्यय-निर्माण के लिए प्रशिक्षण होता है।

प्रत्यय-निर्माण शिक्षा के स्यूल एवं सूक्ष्म साधनों से होता है। किन्डर गार्टन, मॉण्टेसरी विद्यालयों में शिक्षा के यंत्रों का प्रयोग इसका एक उदाहरण है। डीवी के द्वारा प्रचलित योजना पद्धति में चिन्तन, योजना निर्माण आदि पर विचार करने में प्रत्यय का निर्माण एवं प्रयोग होता है। कक्षा में अध्यापक मूर्तियों, चित्रों, वस्तुओं एवं क्रियाओं का प्रयोग इसीलिए करता है कि बालक अपनी निरीक्षण, प्रत्यक्षीकरण, प्रतिमा निर्माण आसानी से कर सकें तथा प्रत्यय का निर्माण स्पष्ट रूप से हो सके।

डॉ० एस० पी० गुप्ता और अन्य ने लिखा है कि “प्रत्ययों की रचना का ज्ञान सीखने को सरल बनाता है ।”””शिक्षा का विकास प्रत्ययों पर आधारित होता है। कक्षा-शिक्षण तभी सरल हो सकता है जब बालकों में प्रत्यय- निर्माण हो।” डॉ० गुप्ता के ये शब्द प्रत्यय का शैक्षिक महत्व बताते हैं।

प्रत्यय निर्माण में शिक्षक का योगदान

(1) वह वस्तुओं, घटनाओं, व्यक्तियों की समानताओं और भिन्नताओं की ओर बालकों को ध्यान दिलावें तथा इनसे परिचित करावें।

(2) इनकी विशेषताओं के नाम का ज्ञान अवश्य करावें जिसे बालक आसानी से समझ जावें।

(3) प्रत्ययों की आकृति का वर्णन जरूर करें। स्पष्ट प्रत्यय प्रस्तुत करें।

(4) प्रत्चयों के धनात्मक और ऋणात्मक दोनों रूप बताया जाय । इससे तुलनात्मक ज्ञान होता है।

(5) आगमन विधि तथा निगमन विधि दोनों का प्रयोग किया जाय।

(6) प्रत्ययों में परस्पर तुलना का अवसर छात्रों को दिया जाय।

(7) सीखे हुए प्रत्ययों का मूल्यांकन करने के लिए स्वतंत्र अध्यापक बालकों को दें. जैसे शब्द खेल, अन्त्याक्षरी कविता पाठ है।

(8) शिक्षक स्वयं प्रत्यय-निर्माण नियमों के सिद्धान्तों, प्रविधियों आदि को अच्छी तरह जानता रहे और प्रयोग करता रहे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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