प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प | प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प की परिभाषायें | प्रयोगात्मक अभिकल्प के लक्षण | प्रयोगात्मक शोध के प्रकार | प्रयोगात्मक शोध की सीमाएं
प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प | प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प की परिभाषायें | प्रयोगात्मक अभिकल्प के लक्षण | प्रयोगात्मक शोध के प्रकार | प्रयोगात्मक शोध की सीमाएं | Experimental Research Design in Hindi | Definitions of Experimental Research Design in Hindi | Characteristics of Experimental Design in Hindi| Types of Experimental Research in Hindi | Limitations of Experimental Research in Hindi
प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प (Experimental Research Design)
प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प को परीक्षात्मक अनुसन्धान अभिकल्प भी कहा जाता है। प्रायोगिक शोध अभिकल्प प्रयोगशाला में प्रयोग की भाँति दो चरों (Variables) के परस्पर सम्बन्ध का अध्ययन करने के लिये निर्मित किया जाता है। इससे एक अनियन्त्रित समूह बनाया जाता है तथा दूसरा प्रायोगिक समूह। नियन्त्रित समूह को अप्रमाणित और अपरिवर्तित रखकर प्रायोगिक समूह में जिस कारक का प्रभाव देखना है उसका प्रकाशीकरण (Exposure) समूह में किया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति के सभी चरणों को अपनाया जाता है।
प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प की परिभाषायें
- ग्रीनवुढ़ (Green wood) के अनुसार, “प्रयोग कार्य-कारण सम्बन्ध को व्यक्त करने वाली उपकल्पना के परीक्षण की विधि है जिसमें नियन्त्रित परिस्थितियों के कार्य-कारण सम्बन्धों का मूल्यांकन करते हैं।’
- जहोदा (Jahoda)- “व्यापक अर्थों में एक प्रयोग को प्रमाण के संकलन को व्यवस्थित करने की प्रणाली माना जा सकता है जिसमें किसी कल्पना की सार्थकता के विषय में निष्कर्ष निकाला जा सके।”
- चेपिन (Chapin) के अनुसार, “समाजशास्त्रीय शोध में प्रयोगात्मक अभिकल्पना की धारणा नियन्त्रण की दशाओं में अवलोकन के द्वारा मानव सम्बन्धों के व्यवस्थित अध्ययन की ओर संकेत करती है।”
प्रयोगात्मक शोध मूल रूप में जे.एस. मिल द्वारा प्रतिपादित एक चर के नियम की निम्नलिखित अवधारणा पर आधारित है -“यदि दो परिस्थितियाँ सभी दृष्टि से समान हैं और उनमें से किसी एक परिस्थिति में कोई तत्व जोड़ा अथवा घटाया जाता है, दूसरी में नहीं, तो दोनों परिस्थितियों में आने वाला अन्तर उसी विशेष तत्व के जोड़ने अथवा घटाने के कारण होगा।”
इसी धारणा पर आधारित होने के कारण प्रयोगों में प्रभाव डालने वाली सभी परिस्थितियों पर नियन्त्रण कर स्वतन्त्र चर (Independent Variable) के परिवर्तन का प्रभाव परतन्त्र चर (Dependent Variable) पर देखते हैं। समाज-विज्ञानों में सामाजिक घटना की जटिलता के कारण इस प्रकार के पूर्ण नियन्त्रण सम्बन्धी प्रयोग कठिन है।
प्रयोगात्मक अभिकल्प के लक्षण (Features of Experimental Design)
- प्रयोगात्मक अभिकल्प एक चर की धारणा पर आधारित है। चर (Variable) किसी घटना, क्रिया या प्रक्रिया का वह पक्ष या स्वरूप है जो अपनी उपस्थिति से किसी दूसरी घटना या प्रक्रिया को जिसका अध्ययन किया जा रहा है, प्रभावित करे।
- जहाँ भी चरों पर नियन्त्रण सम्भव है, इस अभिकल्प को सफलतापूर्वक प्रयोग में ला सकते हैं। यह पद्धति सभी विज्ञानों में प्रयुक्त की जाती है।
- मानव-परिस्थितियों में सभी सम्बन्धित चरों (Variables) पर नियनत्रण नहीं कर सकते। इस कारण सभी समस्याओं का प्रयोगात्मक अध्ययन भी नहीं किया जा सकता।
- प्रयोगात्मक विधि आणविक (Molecular) है क्योंकि व्यवहार के आणविक तत्वों का अध्ययन इसमें होता है।
प्रयोगात्मक शोध के प्रकार एवं सीमाएं
प्रयोगात्मक शोध के प्रकार (Types of Experimental Research)
- पश्चात् परीक्षण (The After Only Experiment)- इस प्रकार के प्रयोग अथवा परीक्षण में समान विशेषताओं और प्रकृति वाले दो समूह चुने जाते हैं। इनमें एक समूह नियन्त्रित समूह तथा दूसरा समूह प्रयोगात्मक समूह कहलाता है नियन्त्रित समूह अपरिवर्तित रहता है। प्रयोगात्मक समूह में कारक द्वारा परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है। दोनों समूह एक-दूसरे से भिन्न होने पर कारक को परिवर्तन के कारण माना जायेगा। तथापि सामाजिक अनुसन्धानों में समान समूहों का मिलना दुष्कर है। अतः परीक्षण के पश्चात् भी यह निर्णय करना कठिन है कि प्रयोगात्मक समूह में परिवर्तन प्रयोग के कारण हुआ है अथवा अन्य तत्वों या शक्तियों का प्रभाव पड़ा है।
- पूर्व पश्चात् परीक्षण (Before-after Experiment)- इस परीक्षण के अनुसार एक ही समूह का पहले अध्ययन किया जाता है और फिर परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के पश्चात् फिर अध्ययन किया जाता है तथा जो अन्तर पूर्व तथा पश्चात् के अध्ययन के आधार पर स्पष्ट होता है, वही परीक्षण सम्वन्धी दशाओं का परिणाम होता है।
- कार्यान्तर तथ्य परीक्षण (Ex-Post Fact’s Experiment) – किसी ऐतिहासिक घटना का अध्ययन करने के लिए इस प्रकार का परीक्षण किया जाता है। ऐतिहासिक घटना को दुहराना अनुसन्धानकर्ता के वश में नहीं होता है। अतः वह दो समूहों का चुनाव करता है, जिनमें से एक में वह घटना हुई होती है और दूसरे में नहीं। इन दोनों समूहों की विगत परिस्थितियों का तुलनात्मक खोज की जाती है और फिर उस घटना के कारकों का अनुमान लगाया जाता है। दूसरे शब्दों में, समूहों की वर्तमान अवस्थाओं में जो अन्तर पाया जाता है। वह भूतकालीन परिवर्तनों अथवा अन्तरों के कारण हुआ समझा जाता है।
सैल्टिज, जहोदा तथा अन्य विद्वानों के अनुसार प्रायोगिक अनुसन्धान में नियन्त्रित (Controlled) तथा प्रयोग समूह का चयन दैव व निर्देशन (Random Sampling) अथवा समानीकरण (Matching) के आधार पर करना चाहिए।
प्रयोगात्मक अध्ययन की सीमायें
(Limitations of Experimental Studies)
- प्रयोगात्मक प्रणाली में निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि केवल स्वतन्त्र चर ही क्रियाशील हॉ तथा अन्य कारकों पर नियन्त्रण (Control) हो जिससे सही एवं उचित निष्कर्ष प्राप्त हो सकें, परन्तु वास्तव में सामाजिक घटनाओं से सम्बन्धित चरों का नियन्त्रण बड़ा कठिन कार्य है।
- इसमें अध्ययन के दो समूहों का चुनाव करना पड़ता है जिनका प्रत्येक दृष्टि से समान होना आवश्यक है, परन्तु समूहों का प्रत्येक दृष्टि से समान होना कठिन है।
- नियन्त्रण परिस्थिति की स्वाभाविकता में परिवर्तन कर देते हैं और अस्वाभाविक वातावरण में स्वाभाविक प्रतिक्रिया नहीं हो सकती। प्रयोगशाला में तो प्रयोज्य (Object) एक अन्य विशेष वातावरण का अनुभव करने लगता है जिससे व्यवहार की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है।
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