सांगठनिक परिवर्तन का आशय | सांगठनिक परविर्तन के कारण | परिवर्तनों का प्रबन्ध कैसे किया जाना चाहिए | परिवर्तन को प्रबन्ध कैसे किया जाये?
सांगठनिक परिवर्तन का आशय | सांगठनिक परविर्तन के कारण | परिवर्तनों का प्रबन्ध कैसे किया जाना चाहिए | परिवर्तन को प्रबन्ध कैसे किया जाये? | Meaning of Organizational Change in Hindi | Reasons for organizational change in Hindi | How should changes be managed in Hindi | How to manage change in Hindi
सांगठनिक परिवर्तन का आशय
(Meaning of Organisational Change)
संगठन एक प्रक्रिया है जिसमें हमेशा परिवर्तन होते रहते हैं। दूसरे शब्दों में संगठन कभी भी स्थायित्व की स्थिति में नहीं रहता है। समय एवं परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ संगठन में परिवर्तन करना भी आवश्यक हो जाता है, भले ही प्रबन्धक वर्ग उससे सहमत हो अथवा नहीं। कोई भी संगठन अल्पकाल में स्थिर हो सकता है, किन्तु दीर्घकाल में उसमें किसी न किसी रूप में परिवर्तन अवश्य करना होता है। वास्तव में यह धारणा गलत है कि यदि किसी संस्था में एक बार कार्यों का विभाजन करके विभिन्न पदों पर विभिन्न व्यक्तियों की नियुक्ति कर दी गयी हो तथा स्पष्ट संगठन संरचना का निर्माण कर दिया गया हो, तो संगठन का कार्य पूर्ण हो जाता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि प्रत्येक प्रबन्धक अपने संगठन में परिवर्तन की आशा करता है।
सांगठनिक परिवर्तन का तात्पर्य व्यावसायिक संगठन की नीतियों, क्रियाओं तथा संरचना में होने वाले परिवर्तनों से है। दूसरे शब्दों में, सांगठनिक परिवर्तन से आशय वर्तमान ढाँचे में असन्तुलन उत्पन्न होने से है। जब एक औद्योगिक अथवा व्यावसायिक संगठन काफी लम्बे समय तक कार्यशील रहता है तो उसके यान्त्रिक, मानवीय तथा संरचनात्मक पहलू में एक प्रकार का सन्तुलन स्थापित हो जाता है और संगठन में कार्यरत व्यक्ति उस विशेष प्रकार के वातावरण के साथ अपने आपको समायोजित कर लेते हैं। किन्तु कर्मचारियों के विकास, प्रशिक्षण, पदोन्नतियों, नवीन उत्पादन विधियों, विकास तथा अन्य आर्थिक एवं अनार्थिक घटकों के प्रभाव स्वरूप संगठन संरचना प्रविधियों एवं नीतियों में परिवर्तन आते ही रहते हैं और ऐसे परिवर्तनों को ही हम सांगठनिक परिवर्तनों की संज्ञा दे सकते हैं।
संक्षेप में, सांगठनिक परिवर्तनों से आशय संगठन एवं व्यवस्था में समय-समय पर होने वाले विभिन्न परिवर्तन संगठन के लक्ष्यों, संरचनाओं, कार्य प्रणालियों, व्यक्तियों, उपकरणों, उत्पादों, औद्योगिकी आदि कई क्षेत्रों में आते रहते हैं, जिनमें सम्पूर्ण संगठन प्रभावित होता है तथा परिवर्तन के दौर से गुजरता है।
सांगठनिक परविर्तन के कारण
(Reasons for Oraganisational Changes)
सांगठनिक परिवर्तनों का कोई स्पष्ट आरम्भ या अन्त नहीं होता, अपितु यह तो एक शाश्वत प्रक्रिया है। कुछ परिवर्तन स्पष्ट रूप से अनुभव किये जा सकते हैं तो कुछ परिवर्तन दीर्घकालीन प्रभाव डालते हैं। व्यावसायिक संगठनों में परिवर्तनों के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –
(1) व्यावसायिक परिस्थितियों में परिवर्तन (Change in Business Conditions) – समय के साथ-साथ विभिन्न व्यावसायिक परिस्थितियों, जैसे- उत्पादन विधियों, उत्पादित वस्तुओं विपणन विधियों, कर नीतियों, औद्योगिक एवं वाणिज्यिक नीतियों, मौद्रिक नीतियों आदि में परिवर्तन होता रहता है। इन व्यावसायिक परिस्थितियों में परिवर्तन होने पर संस्था के उद्देश्यों को प्रभावी तरीके से प्राप्त करने की दृष्टि से संगठन संरचना में भी वांछित परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है।
(2) प्रबन्धकों में परिवर्तन (Changes in Material Personnel)- प्रत्येक संस्था में समय के साथ-साथ प्रबन्धक वर्ग में भी परिवर्तन होता है। व्यावसायिक परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण भी कई बार वैयक्तिक परिवर्तन करने आवश्यक होते हैं। इसके अतिरिक्त प्रबन्धकर्ता व्यक्तियों की आयु, मनोवृति, कार्यक्षमता आदि में भी परिवर्तन होते रहते हैं, कभी-कभी पुराने प्रबन्धकों के सेवानिवृत्ति होने से भी नये प्रबन्धकों की नियुक्ति आवश्यक होती है, जो अपने साथ नयी आशायें, आकांक्षायें तथा मनोवृत्तियाँ लाते हैं जिसके परिणामस्वरूप भी संस्था की वर्तमान संगठन व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन होना स्वाभाविक है।
(3) विद्यमान संगठन की’ दुर्बलतायें (Deficiencies of Existing Organisations) – कोई भी संगठन व्यवस्था सभी समयों पर समान रूप से श्रेष्ठ साबित नहीं हो सकती, क्योंकि समय एवं परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ उसमें अनेक प्रकार के दोष एवं दुर्बलतायें उत्पन्न हो जाती हैं, जिनको दूर करने की दृष्टि से भी संगठन में वांछित परिवर्तन करने आवश्यक हो जाते हैं। ये सांगठनिक दुर्बलतायें मुख्य रूप से प्रबन्धकों के कार्य विस्तार, संगठन सम्बन्धों की जटिलता, अन्तर्विभागीय सम्बन्धों में कठिनाई, निर्णय प्रक्रिया में विलम्ब, सन्देशवाहन में देरी आदि से सम्बन्धित होती है।
(4) संगठन जड़ता से रक्षा (To Keep the Organisation from Developing Inertia) – संगठन में जड़ता या लोचहीनता की सम्भावनाओं से बचने के लिये भी संगठन व्यवस्था में परिवर्तन करते रहना आवश्यक होता है। वास्तव में यह सही है कि यदि संगठन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन नहीं किये जाते हैं तो उसमें एक प्रकार की जड़ता या लोचहीनता आ जाती है जो किसी भी क्षेत्र में प्रगति के लिये बाधक बन सकती है। संगठन एक प्राणवान व्यवस्था है जिसमें परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई संगठन जो वर्तमान में श्रेष्ठ कहा जा सकता है, प्रत्येक काल में श्रेष्ठ नहीं रह सकता। अतः संगठन में पर्यावरण के अनुरूप आवश्यक समायोजन एवं परिवर्तन करते रहने चाहिये।
(5) मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Reasons) – कभी-कभी मनोवैज्ञानिक कारणों से भी संगठन में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। कर्मचारी वर्ग किसी संगठन विशेष के प्रति निष्ठावान नहीं बन जायें, इसके लिये भी परिवर्तन करते रहना जरूरी होता है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि कर्मचारियों में परिवर्तन सहने एवं परिवर्तनों को अपनाने की आदत बनाये रखने के लिये भी परिवर्तन करना जरूरी है।
(6) संगठन को विकासशील बनाना (To Develop Organisation) – संगठन का निरन्तर विकास मार्ग की ओर अग्रसर होना भी आवश्यक है। सांगठनिक विकास की दृष्टि से समय-समय पर संगठन की आवश्यकतायें भी बढ़ जाती हैं। अतएव इन बढ़ती हुयी आवश्यकताओं को पूरा करने की दृष्टि से भी संगठन में परिवर्तन किये जाते हैं, ताकि संगठन विकास के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके।
परिवर्तन को प्रबन्ध कैसे किया जाये?
(How Changes should be Manged?)
संगठन एक निरन्तर प्रक्रिया है जिसमें सदैव परिवर्तन होते रहते हैं, अतः सांगठनिक परविर्तनों के नियोजन, निर्देशन एवं नियन्त्रण की विधियों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। परिवर्तनों का प्रबन्ध संगठन संरचनाओं को गतिशील बनाकर पूर्व निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति में सहयोग करता है। इसके अतिरिक्त परिवर्तनों के प्रबन्ध के अभाव में परिवर्तनों के प्रति उत्पन्न होने वाले प्रतिरोधों को न्यूनतम करके उन्हें परिवर्तन शक्ति में बदलना भी मुश्किल होता है अतः प्रबन्धक वर्ग को परिवर्तन के प्रबन्ध की समुचित प्रक्रिया का ज्ञान होना आवश्यक है। ग्रेइनर एवं बारन्स (Greiner and Barnes) ने परिवर्तनों को लागू करने हेतु निम्नलिखित प्रक्रिया को अपनाने का सुझाव दिया है-
(1) सांगठनिक समस्याओं का विश्लेषण करना (Analysing Organisational Problems) – सांगठनिक परिवर्तनों का प्रबन्ध करने की दृष्टि से सर्वप्रथम संगठन की स्थिति एवं समस्याओं का व्यापक विश्लेषण करना आवश्यक है। परिवर्तनों को लागू करने के इस चरण में यह मालूम किया जाता है कि वे कौन-सी विशिष्ट समस्यायें हैं, जिन्हें दूर करना है, उन समस्याओं के निर्धारक तत्व कौन से हैं तथा वे कौन-सी शक्तियाँ है जो परिवर्तनों को प्रोत्साहित करेगी तथा उनका प्रतिरोध करेंगी।
सांगठनिक परिवर्तनों को लागू करने की दृष्टि से समस्या विश्लेषण एक कठिन कार्य है। इस कार्य को सरल बनाने हेतु प्रबन्धकों को सभाओं, औपचारिक वार्ताओं, गोष्ठियों, सर्वेक्षणों, प्रश्नवलियों तथा व्यक्तिगत साक्षात्कारों के माध्यम से सूचनायें प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये, क्योंकि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त की जाने वाली सूचनाओं की पर्याप्तता एवं सत्यता पर ही परिवर्तनों का प्रभावी तरीके से लागू किया जाना निर्भर करता है। यदि आवश्यकता हो तो समस्या विश्लेषण हेतु विशेषज्ञों एवं परामर्शदताओं का उपयोग भी किया जा सकता है।
(2) परिवर्तन हेतु नियोजन करना (Planning for Change)- सांगठनिक समस्याओं का व्यापक विश्लेषण करने के पश्चात् विचारणीय विश्लेषण को कार्य रूप देने हेतु योजना में बदला जाता है। इस दृष्टि से परिवर्तन हेतु सर्वांगीण उद्देश्यों को निश्चित करके इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आधारभूत दृष्टिकोण का चयन किया जाता है और तत्पश्चात् उस आधारभूत दृष्टिकोण को कार्यरूप देने के उद्देश्य से उठाये जाने वाले कदमों का क्रम निश्चित किया जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि परिवर्तन हेतु तैयार की जाने वाली समग्र योजना समस्या विश्लेषण के निष्कर्षों के अनुरूप होनी चाहिये जिससे कि नकारात्मक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त की जा सके।
(3) परिवर्तन प्रारम्भ करना (Launching Change)- समस्या विश्लेषण एवं नियोजन के पश्चात् तैयार की गयी उस योजना को कार्यरूप देने का प्रयास किया जाता है। परिवर्तन योजना को लागू करते समय प्रबन्धकों को दूरदर्शिता एवं सहभागिता के आधार बनाकर संगठन की समस्त उपप्रणालियों के परिवर्तन को लागू करने की दिशा में सहयोग देने हेतु प्रेरित करना चाहिये इस दृष्टि से सभी व्यक्तियों एवं कर्मचारियों को परिवर्तनों की आवश्यकता तथा उसेसे प्राप्त होने वाले लाभों के सम्बन्ध में विस्तार से बताया जाना चाहिये। कर्मचारियों के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली शंकाओं एवं समस्याओं का भी विवेक सम्मत तरीके से समाधान किया जाना आवश्यक है। परिवर्तनों का कार्यरूप देने का यह चरण प्रबन्धकों की योग्यता एवं कुशलता के परीक्षण की अवस्था होती हैं, क्योंकि उनकी तनिक सी असावधानी अधीनस्थों को परिवर्तनों के प्रतिरोध हेतु प्रोत्साहित कर सकती हैं।
(4) परिवर्तनों का अनुसरण करना (Following up of Change)- परिवर्तनों को लागू करने के साथ-साथ उन पर समुचित नजर भी रखी जानी चाहिये जिससे यह मालूम हो सके कि वास्तव में समूचा संगठन परिवर्तनों को आत्मसात करने हेतु किस प्रकार प्रयास करता है, क्योंकि परिवर्तन को लागू करने के आदेशों का प्रसारण ही उनके क्रियान्वयन हेतु पर्याप्त नहीं है। प्रबन्धकों को इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि परिवर्तनों का क्रियान्वयन कहीं ऊपरी तौर पर ही तो नहीं हो रहा हैं। वास्तव में परिवर्तनों का अनुसरण इस बात पर बल देता है कि संगठन में कार्यरत कर्मचारी वर्ग परिवर्तनों के प्रति कैसी प्रतिक्रियायें रखता एवं प्रकट करता है। अनुसरण में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि यदि कर्मचारी परिवर्तन के प्रति विपरीत प्रतिक्रियायें व्यक्त करते हैं, तो उन्हें किस प्रकार अनुकूल बनाया जा सकता है। इस प्रकार परिवर्तनों को लागू करने का यह चरण परिवर्तनों को सांगठनिक व्यवहार से एकीकृत कर स्थायी बनाये रखने से सम्बन्ध रखता है। इस चरण पर प्रबन्धक वर्ग को उन अतिरिक्त परिवर्तनों का ज्ञान भी होता है जिन्हें लागू किये बिना मूलभूत परिवर्तन लागू नहीं किये जा सकते हैं।
ग्रेइनर एवं बारन्स (Greiner and Barnes) द्वारा बतलाये गये उपर्युक्त चार बातों के अतिरिक्त परिवर्तनों को लागू करते समय निम्नलिखित बातों को भी ध्यान में रखना चाहिये-
(5) कर्मचारियों को सहभागी बनाना (Participation of Employees)- परिवर्तनों को लागू करते समय यथासम्भव अधिकाधिक कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिये। परिवर्तनों की योजना में भागीदार होने से कर्मचारियों में भ्रान्तियाँ नहीं होती है तथा वे परिवर्तनों का विरोध भी नहीं करते हैं।
(6) प्रभावित वर्गों को सूचना (Information to Affected Groups) – परिवर्तनों को लागू करते समय परिवर्तन द्वारा प्रभावित होने वाले व्यक्तिों एवं वर्गों को यथासम्भव सूचना भी दी जानी चाहिये ताकि वे उन परिवर्तनों के अनुरूप अपना समायोजन कर सकें।
(7) प्रशिक्षण (Training)- परिवर्तन व्यवस्था को प्रभावी बनाने की दृष्टि से सभी सम्बन्धित व्यक्तियों को उचित प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिये।
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