संगठनात्मक व्यवहार / Organisational Behaviour

प्रबन्धकीय भावी चुनौतियां | औद्योगिकी पर्यावरण में परिवर्तन | सामाजिक पर्यावरण में परिवर्तन

प्रबन्धकीय भावी चुनौतियां | औद्योगिकी पर्यावरण में परिवर्तन | सामाजिक पर्यावरण में परिवर्तन | Managerial Future Challenges in Hindi | Changes in industrial environment in Hindi | Change in social environment in Hindi

प्रबन्धकीय भावी चुनौतियां

आज प्रत्येक प्रबन्धक की जुबान पर एक ही बात गूंज रही है कि हमें 22वीं शताब्दी में होने वाली चुनौतियों एवं परिवर्तनों का सामना करने के लिए अभी से तैयारी करनी होगी। एक गतिशील प्रन्बधक भला कैसे और कब तक व्यवसाय के क्षेत्र में होने वाली तकनीकी, आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक परिवर्तनों के प्रति अपनी आँख बन्द करे रह सकता है? अन्ततः उसे ही भावी परिवर्तन एवं भावी चुनौतियों का सामना करना होगा किन्तु इन भावी परिवर्तनों एवं चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रबन्धकीय व्यूहरचना करने से पूर्व यह जाना आवश्यक है कि आखिर यह भावी प्रबन्धकीय चुनौतियाँ एवं परिवर्तन हैं क्या-क्या? इस सम्बन्ध में हरमन काहन ने संगठनों एवं उनके पर्यावरण में होने वाले परविर्तनों की निम्न सूची प्रस्तुत की हैं-

(1) विश्वव्यापी औद्योगीकरण एवं आधुनिकीकरण

(2) निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या जो विस्फोटक रूप धारण करती जा रही है।

(3) निरन्तर बढ़ती हुई व्यापक विनाशक क्षमता जो किसी भी क्षण बटन दबाते ही सारे विश्व को नष्ट कर सकती है।

(4) नगरीयकरण तथा उप-नगरीयकरण।

(5) बढ़ती साक्षरता एवं शिक्षा तथा बौद्धिकों की बढ़ती हुई संख्या एवं उनका योगदान |

(6) बढ़ता हुआ औद्योगीकरण एवं उस पर बल।

(7) भविष्य के लिए चिन्तन, बहस, नियोजन तथा विधियों एवं उपकरणों में सुधार।

(8) वर्तमान एवं बढ़ती हुई समष्टि परिवर्तन सम्बन्धी समस्याएँ।

(9) तकनीकी परिवर्तनों विशेषतः अनुसन्धान, विकास, नवाचार तथा विवरण का संस्थावाद।

(10) विश्व के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में तेजी से लागू होने वाला नवाचार एवं विवेक तथा उसके द्वारा विश्व के भौतिक साधनों का अपने पक्ष में शोषण करने की मनोवृत्ति।

(11) मानवीय, प्रजातान्त्रिक, पवित्र, सांस्कृतिक, फलमूलक विचारों का तेजी से होने वाला हनन।

(12) बहुआयामी प्रवृत्ति की बढ़ती हुई सर्वव्यापकता।

(13) बुर्जुआ, नौकरशाही तथा योग्यातावादी विचारधारा में उभरता हुआ मतभेद एवं इनके बीच पनपता संघर्ष।

(14) 22वीं सदी में प्रवेश की चुनौती।

कास्ट एवं रोजेन्जवेग के अनुसार, “हमारे भावी संगठनों को बड़े ही दुर्दान्त वातावरण मतें कार्य करना होगा जिसमें निरन्तर परिवर्तन एवं समायोजन की आवश्यकता पढ़ेगी। संगठनों के आकार एवं जटिलताओं में वृद्धि होगी तथा वे तकनीकी एवं सामाजिक भाविष्यवाणियों की ओर अधिक ध्यान देगें। संगठनों में वैज्ञानिकों एवं पेशेवरों की संख्या एवं उनके प्रभाव में वृद्धि होगी। ऐसे जटिल संगठनों के लक्ष्यों में वृद्धि होगी किन्तु उनमें वृद्धि करने के स्थान पर कमी करने पर बल दिया जायेगा।”

प्रमुख भावी प्रबन्धकीय चुनौतियाँ (Main Future Managerial Challenges ) – यह सम्भावना प्रकट की जा रही है कि 22वीं शताब्दी में होने वाले परिवर्तनों की गति एवं जटिलता अब तक के हुए परिवर्तनों की तुलना में अधिक तीव्र होगी। इस परिवर्तनों का सामना हमारे भावी प्रबन्धकीय संगठनों को करना होगा। किन्तु इनका सामना करने की प्रबन्धकीय रणनीति तैयार करने से पूर्व यह जाना आवश्यक है कि आखिर यह होने वाले भावी परिवर्तन एवं चुनौतियाँ कौन-कौन सी हैं? इस सम्बन्ध में हरमन काहन ने पूर्ण सूची प्रस्तुत की है जिसका उल्लेख किया जा चुका है। उनमें से होने वाले प्रमुख परिवर्तन एवं चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं जिनका सामना करने के लिए हमारे प्रबन्धकीय संगठनों को तत्पर होना पड़ेगा।

(I) औद्योगिकी पर्यावरण में परिवर्तन (Changes in Technological Environment)

आज के युग में औद्योगिकी एक प्रमुख संसाधन है जिसका उपयोग आधुनिक संगठनों द्वारा किया जाता है। औद्योगिक परिवर्तनों से आशय वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन के क्षेत्र में प्रयुक्त यन्त्रों, उपकरणों, सामग्रियों, विधियों, प्रक्रियाओं एवं कार्यविधियों से है। औद्योगिकी परिवर्तन एक स्वतन्त्र शक्ति नहीं है वरन् यह अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक घटकों से निकटतम सम्बन्धित है।

यदि औद्योगिकी स्थिर रहती है तो संगठन अपनी क्रियाओं का नियोजन अधिक निश्चितता के साथ कर सकते हैं किन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। आधुनिक विश्व में संगठन परिवर्तनशील औद्योगिक में निवास कर रहे हैं। इसे ‘गत्यात्मक औद्योगिक’ भी कहा जा सकता है। भविष्य में सभी प्रकार के संगठनों को, चाहे वे सरकारी हों अथवा निजी, व्यावसायिक हों अथवा गैर-व्यावसायिक, विश्वविद्यालयों के संगठन हो अथवा अस्पतलों के संगठन, औद्योगिकी भविष्यवाणी के साथ सक्रिय रूप में संलग्न होना पड़ेगा। उन्हें आधुनिक संचार के साधनों से सहायता प्राप्त करना होगी।

(1) स्वचालन (Automation) – एक समय था जब उत्पादन का सारा कार्य हाथों से होता था। इसके पश्चात् मशीनी युग आया किन्तु आधुनिक युग स्वचालन का युग है। पश्चिमी देशों के अधिकांश कारखानों में अधिकांश कार्य मशीनी मानव (रोबोट) द्वारा सम्पादित किये जाने लगे हैं। मानव का कार्य तो मात्र उत्पादन कार्य को कार्यक्रम के अनुरूप संचालित करना एवं मशींनी मानव (रोबोट ) को नियन्त्रित करना रह गया है। भावी संगठन उच्च किस्म की स्वचालित ‘मानव- यन्त्र-व्यवस्था’ का उपयोग करेंगे। इसका प्रभाव प्रबन्ध की प्रकृति, स्टाइल एवं व्यवहार पर निश्चयात्मक रूप में पड़ेगा।

(2) सूचना औद्योगिकी (Information Technology)- संगणक युक्त सूचना प्रणाली का प्रबन्ध पर निश्चायात्मक रूप में प्रभाव पड़ेगा। आजकल छोटे एवं बड़े सभी प्रकार के कार्यों के निष्पादन में बिजली से संचालित संगणकों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। यहाँ तक कि प्रबन्धकीय समस्याओं के समाधान के लिए भी संगणकों का उपयोग तेजी से किया जा रहा है। संगणना युक्त यह आधुनिक सूचना औद्योगिकी भावी प्रबन्ध के लिए चुनौती होगी जो प्रबन्ध की प्रकृति, विधि, व्यवहार एवं सिद्धान्त आदि को निश्चयात्मक रूप में प्रभावी ढंग से प्रभावित करेगी। इसमें सनदेह नहीं कि यह आधुनिक आद्योगिकी काफी मँहगी होगी। इसको ग्रहण करने के लिए संगठनों के आकारों में वृद्धि होगी। अथवा के विद्यमान परम्परागत रेखा एवं कर्मचारी संगठन तथा क्रियात्मक संगठन के ढाँचे धाराशायी हो जायेंगे। इनके स्थान पर संगठन के आधुनिक ढाँचे विकसित होंगे। अनुसन्धान एवं विकास की क्रियाओं पर अधिक बल दिया जायेगा।

सूचना औद्योगिक के क्षेत्र में होने वाले नवाचारों का प्रभाव कर्मचारियों के संगठनात्मक सम्बन्धों पर भी पड़ेगा। उदाहरण के लिए, स्वचालन की योजना लागू करने से कार्यरत कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी होगी। रोजगार में स्थायित्व लाने के लिए श्रमिक कार्य के घण्टों में पर्याप्त कमी किये जाने की माँग करेंगे। आने वाले प्रबन्धकों को एक ओर तो हो रहे औद्योगिक सुधार तथा दूसरी ओर, मनौवैज्ञानिक-सामाजिक व्यवस्था की माँग के मध्य समन्वय स्थापित करने की महत्वपूर्ण एवं जोखिमयुक्त चुनौती का सामना करना पड़ेगा।

यही नहीं, आधुनिक औद्योगिकी प्रबन्ध की विपणन व्यूहरचना में भी परिवर्तन करने के लिए बाध्य करेगी। बड़ी मात्रा में उत्पादित माल को बेचने के लिए नवीन बाजारों एवं ग्राहकों की तलाश करनी पड़ेगी। इसके लिए उत्पादक के आकार, उत्पादन नियोजन, किस्म में सुधार एवं नियन्त्रण, ग्राहक सन्तुष्टि ग्राहक सेवा एवं संवर्द्धन आदि क्रियाओं पर अधिक ध्यान देना होगा। व्यक्गितगत विक्रय की तुलना में बड़ी मात्रा में विक्रय पर अधीक ध्यान देना होगा। इसके लिए भावी प्रबन्धकों को दीर्घकालीन विपणन उद्देश्यों के बारे में सोचना पड़ेगा तथा इनकी प्राप्ति के लिए दीर्घकालीन विपणन संगठन की स्थापना करना पड़ेगी।

(II) सामाजिक पर्यावरण में परिवर्तन (Changes in Social Environment) –

यदि देखा जाये तो उत्पादन तथा निष्पादन की सारी प्रक्रिया औद्योगिकी तथा मानवीय संसाधनों के संयोजन पर निर्भर करती है। भविष्य में संगठन अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आधुनिक औद्योगिकी का उपयोग सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए करेंगे। सारी व्यवस्था में मानवीय भागिता से इन्कार करना सम्भव नहीं होगा। एक ऐसे संगठनात्मक मॉडल की रचना करना होगी जोकि ‘प्रजातान्त्रिक मानवीय व्यवस्था’ की आंकांक्षाओं को पूरा करने में समर्थ हो। सामाजिक शक्तियों की प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) बढ़ती हुई जनसंख्या की विस्फोटक स्थिति (Explosive position of Increasing Popoulation)- विश्व में निरन्तर तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या आगे आने वाले प्रबन्धकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। वर्तमान में भारत की जनसंख्या 100 करोड़ का आँकड़ा पार कर चुकी है। जनसंख्या में वृद्धि की समस्या मात्र आकार की समस्या नहीं है वरन् गुणात्मक भी है। इस बढ़ती हुई जनसंख्या को रोजगार प्रदान करने के लिए (i) रोजगार के साधनों में तीव्र गति से वृद्धि करनी होगी; (ii) उत्पादन तथा वितरण की नवीन विधियों की तलाश करनी होगी; (iii) जीवन-निर्वाह के नये आयामों में को खोज करनी होगी तथा (iv) उत्पादन क्षमता को बढ़ाना होगा। अन्यथा दरिद्रता का दानव प्रजातन्त्र की जड़ उखाड़ फेंकेगा। यही नहीं, जनसख्या मिश्रण में भी बदलाव आयेगा। उदाहरण के लिए, जीवन-स्तर में सुधार तथा चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार होने के कारण औसत आयु में पर्याप्त वृद्धि हुई है जिसके कारण वृद्ध लोगों के अनुपात में भी वृद्धि हुई है। धीरे-धीरे भारत में वृद्धावस्था एक गम्भीर समस्या का रूप धारण कर रही है। इसी प्रकार औद्योगिकी नवाचार का विस्तार होने से कुशल श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि होगी। सामान जनसंख्या वृद्धि की इस गम्भीर चुनौती का समाना करने के लिए हमें विवेकपूर्ण जनसंख्या नियोजन को भी अपनाना होगा अन्यथा यह समूची आर्थिक वृद्धि को निगल जायेगी।

(2) सामाजिक मूल्य (Social Values)- सामाजिक मूल्यों में भी आमूल-चूल परिवर्तन आयेगा। लोग स्वतन्त्र प्रतिस्पर्द्धा की तुलना में सरकारी नियंत्रण को अधिक पसन्द करेंगे। अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता बढ़ जायेगी, व्यवसाय में सरकारी हस्तक्षेप भी बढ़ जायेगा, उपभोगितावाद में वृद्धि होगी तथा जन-साधरण का समस्याओं के प्रति सोचने के तरीकों में बदलाव आयेगा। सामाजिक एवं मानवीय मूल्यों का ह्रास होगा। इसका प्रभाव भावी प्रबन्धकों के सोचने की प्रवृत्ति पर निश्चयात्मक रूप से पड़ेगा।

(3) शिक्षा के स्तर में वृद्धि (Increase in the Education Level)- आज लगभग सभी देशों की सरकारें साक्षरता अभियान तथा शिक्षा स्तर में सुधार पर बल दे रही हैं। निरक्षरता के उन्मूलन पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। इसका परिणाम यह होगा कि हमारा यह पढ़ा-लिखा उपभोक्ता तथा शिक्षित कर्मचारी वर्ग दोनों भावी प्रबन्धकों के लिए अनेक प्रकार की समस्याएँ खड़ी करेंगे। उनके कार्य-निष्पादन में तरह-तरह की रुकावटें खड़ी करेंगे।

(4) अधिक अवकाश (फुरसत) का समय (More Leisure Time) – उत्पादन के क्षेत्र में स्वचालन की प्रक्रिया लागू होने से लोगों के पास अधिक अवकाश (फुरसत) का समय उपलब्ध होगा। इसके विभिन्न प्रभाव पड़ेगें। कुछ लोग अवकाश के समय में अधिक धन व्यय करेंगे। इससे पर्यटन तथा मनोरंजन करने वाले उद्योगों को प्रोत्साहन मिलेगा। कुछ लोग फालतू समय में अल्पकालीन कृत्यों में लग जायेंगे। इससे अल्पकालीन कृत्यों की माँग में वृद्धि होगी। यही नहीं, बेकारों की संख्या में भी वृद्धि होगी जिसके परिमणामस्वरूप देश का नौजवान रास्ता भटक सकता है और वह चोरी, डकैती, तस्करी, शराबखोरी एवं अन्य विध्वंसक कृत्यों में संलग्न हो सकता है। औरभावी प्रबन्धकों को इन चुनौतियों का भी सामना करना पड़ेगा।

(5) बेरोजगारी की समस्या (Problem of Unemployment)- जनसंख्या में वेगपूर्ण वृद्धि, उद्योगों के स्वचालन, अवकाश के समय में वृद्धि आदि से भविष्य में बेरोजगारी की समस्या के और भी गम्भीर रूप धारण करने की सम्भावना है। इस बेरोजगारी की समस्या के विभिन्न रूप होंगे; जैसे-(i) खुली बेरोजगारी, (ii) संरचनात्मक बेरोजगारी, (iii) प्रच्छन्न बेरोजगारी, (iv) अल्प-रोजगार, (v) मौसमी बेरोजगारी तथा (vi) शिक्षित बेरोजगारी आदि। इनमें से खुली” बेरोजगारी तथा शिक्षित बेरोजगारी अपेक्षाकृत अधिक गम्भीर रूप धारण कर सकती है। भावी प्रबन्धकों को बेरोजगारी सम्बन्धी इस गम्भरी चुनौती का भी समाना करना पड़ेगा।

(III) आर्थिक पर्यावरण में परिवर्तन (Changes in Economic Environment)-

हमारे आर्थिक पर्यावरण में तेजी से परिवर्तन आयेगा। यह परिवर्तन निम्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण होगा- (i) प्रतियोगिता की स्तर केवल स्थानीय सीमाओं तक ही निहित न रहकर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय मेंरूप धारण कर लेगा। (ii) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठनों की स्थापना होगी। (iii) एक वृहत् औद्योगिक समाज की रचना होगी। (iv) उपभोक्तओं कर्मचारियों तथा जन-साधनागण के लाभ के लिए उद्योगों में सरकारी हस्तक्षेप में वृद्धि होगी। (v) व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास होगा। (vi) सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों की संख्या एवं विनियोग दोनों में वृद्धि होगी। (vii) सरकार निजी क्षेत्र की क्रियाएँ सीमित कर सकती है। (viii) सरकार तथा निजी क्षेत्र के द्वारा स्थापित संयुक्त क्षेत्र में उपक्रमों की संख्या में वृद्धि होगी। (ix) अव्यवस्थिति एवं बीमार इकाइयों पर राष्ट्रीयकरण की तलवार लटकती रहेगी। (x) जिन उपक्रमों को वित्तीय संस्थान ऋण प्रदान करेंगे, उनकी नीति निर्धारण सम्बन्ध क्रियाओं में वे सक्रिय भाग लेगें।

उपर्युक्त आर्थिक पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों के कारण भावी प्रबन्ध को निर्णयन में जटिलता का सामना करना पड़ेगा। आर्थिक क्षेत्र में उसकी जिम्मेदारियों एवं उत्तरदायित्वों में भी वृद्धि होगी।

(IV) अन्तराष्ट्रीय पर्यावरण में परिवर्तन (Changes in International Environment) –

अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण में निम्नलिखित परिवर्तन आयेंगे- (i) अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक संस्थाओं के योगदान एवं क्रियाओं में वृद्धि होगी। (ii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की मात्रा में वृद्धि होगी। (iii) संगठनों का अन्तर्राष्ट्रीयकरण बढ़ेगा। (iv) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तकनीकी ज्ञान तथा प्रबन्ध तकनीक के आदान-प्रदान में वृद्धि होगी। (v) अन्तर्राष्ट्रीय निगमों की पारस्परिक निर्भरता बढ़ेगी। (vi) बाजार का तेजी से अन्तर्राष्ट्रीयकरण होगा। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को अधिक सुलभ बनाने के लिए व्यापारिक प्रतिबन्धों में कमी आयेगी तथा बाधाएँ हटेंगी। विभिन्न राष्ट्रों के मध्य अधिक तालमेल बढ़ेगा तथा तनाव में कमी होगी। (vii) विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था विकसित होगी। (viii) व्यवसाय में उदारीकरण की नीति का अधिक विस्तार होगा। (ix) बहुराष्ट्रीय निगमों का विस्तार होगा।

उपरोक्त अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण में परिवर्तनों के फलस्वरूप अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रबन्धकीय तकनीकों का विकास होगा तथा पारस्परिक सहयोग बढ़ेगा।

(V) अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन (Changes in other Sectors)-

उपरोक्त के अतिरिक्त निम्न क्षेत्रों में भी परिवर्तन होंगे- (i) श्रम समस्याओं के समाधान के लिए आधुनिक विधियों की खोज होगी। (ii) संगठनों के आन्तरिक तथा बाहरी पक्षों के मध्य अधिक समन्वय स्थापित होगा। (iii) भविष्य के लिए अधिक संख्या में सक्षम प्रशासक एवं प्रबन्धक उपलब्ध कराने पर बल दिया जायेगा। अतः प्रबन्धकीय ज्ञान के शिक्षण पर अधिक बल दिया जायेगा। (iv) उत्पादन के सीमित साधनों का देश के हित में कुशलतम उपयोग करने पर बल दिया जायेगा। इसके लिए विदेशी औद्योगिकी के आदान-प्रदान को बल मिलेगा। (v) न्यूनतम प्रयत्नों द्वारा अधिकतम परिणामों की प्राप्ति पर अधिक ध्यान दिया जायेगा। (vi) जन-साधारण के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने पर अधिक ध्यान दिया जायेगा। (vii) प्रबन्ध की विद्यमान तकनीकें पुरानी पड़कर बेकार हो जायेंगी और उनके स्थान पर तकनीकी ज्ञान के आधार पर आधुनिक तकनीकें विकसित होंगी। इसके कारण पुराने प्रबन्धकों में निराशा बढ़ेगी। (viii) सेवा क्षेत्र का विकास होगा। (ix) प्रदूषण की समस्या और गम्भीर होगी जिसका विश्वव्यापी स्तर पर मिलकर सामना करना होगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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