सेवारत प्रशिक्षण की आवश्यकता | सेवारत प्रशिक्षण का महत्व
सेवारत प्रशिक्षण की आवश्यकता | सेवारत प्रशिक्षण का महत्व
सेवारत प्रशिक्षण की आवश्यकता और महत्व
(Need and Importance of In-Service Training)
सेवारत प्रशिक्षण की आवश्यकता और महत्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) प्रत्येक अध्यापक को सेवाकालीन शिक्षा की आवश्यकता होती है यदि वह अपने विषय और शिक्षा शास्त्र के सिद्धान्त और प्रयोग में हो रही प्रगति के साथ अपनी जानकारी रखना चाहता है।
(2) इससे अध्यापकों को समस्याओं के बारे में वाद-विवाद करने अवसर मिलता है।
(3) सेवा-कालीन शिक्षा अध्यापकों को शिक्षा सम्बन्धी महत्वपूर्ण विषयों पर अपने विचार प्रकट करने योग्य बनाती है।
(4) अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि की यह मांग है कि प्रत्येक अध्यापक इस व्यवसाय में रहते हुए सारा काम सीखना जारी रखे अथवा सीखता रहे। एक अध्यापक के लिए जिसे निरन्तर शिक्षा की आवश्यकता है, उसके लिए पूर्व-सेवा शिक्षा पर्याप्त नहीं।
(5) जब अध्यापक अनेक सेवा-कालीन शिक्षा कार्यक्रमों के लिए एक-दूसरे से मिलते हैं तो उनमें व्यवसाय से सम्बन्धित होने की भावना का विकास होता है।
(6) सेवाकालीन शिक्षा अध्यापकों को उनके कक्षा भवन सम्बन्धी वास्तविक अनुभवों के प्रकाश में उनके सैद्धान्तिक ज्ञान को ताजा रखने योग्य बनाती है।
(7) अध्यापक महत्वपूर्ण विषयों पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं और इससे विवादपूर्ण विषयों में स्पष्टता आती है।
सेवा-कालीन शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व को विस्तृत रूप से निम्नलिखित ढंग से प्रकट किया जा सकता है-
(1) माध्यमिक शिक्षा आयोग के विचार (Views of Secondary Education Commission)-
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी इस बात पर बल देते हुए कहा है, “अभ्यास प्रशिक्षण का कार्यक्रम कितना ही उत्कृष्ट क्यों न हो, परन्तु केवल इससे ही उत्कृष्ट अध्यापक का निर्माण नहीं हो सकता। आलोचनात्मक रूप से विश्लेषण किये गये अनुभवों तथा विकास के व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्नों द्वारा ही परिवर्द्धित कौशल की उत्पत्ति होती है।”
(2) कोठारी आयोग के अनुसार (According to Kothari Commission)-
“ज्ञान के सभी क्षेत्रों में तेजी से हो रही उन्नति तथा शिक्षण-सिद्धान्तों एवं प्रयोगों में निरन्तर हो रहे विकास के कारण शिक्षण व्यवसाय में सेवा-कालीन शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है।”
(३) निरन्तर प्रशिक्षण की आवश्यकता (Need of Continuous Training)-
अध्यापकों के निरन्तर विकास के लिए उन्हें निरन्तर प्रशिक्षण मिलता रहना चाहिए। अध्यापन कार्य आरम्भ करने से पहले जो प्रशिक्षण प्राप्त किया जाता है वह तो अध्यापन-कार्य विकास का प्रथम सोपान है। वहीं पर ही प्रशिक्षण को समाप्त कर देना अध्यापकों के दृष्टिकोण को सीमित कर देना होगा। जिस अध्यापक के ज्ञान का नवीकरण नहीं होता वह खड़े पानी के तालाब के समान होता है।
एक प्रसिद्ध अध्यापक थामस आर्नल्ड के अनुसार, “मैं इस बात को पसन्द करता हूँ कि मेरे विद्यार्थी खड़े पानी के तालाब से पानी पीने की बजाय बहती नदी से पानी पीयें।”
सेवा-कालीन प्रशिक्षण के अभाव में अध्यापकों के अन्दर कूप मंडूकता की प्रवृति उत्पन्न हो सकती है जो विकास के लिए घातक है। इस प्रवृति से बचने के लिए अध्यापकों को समय-समय पर प्रशिक्षण मिलता रहना चाहिए।
(4) शिक्षण विषयों का नवीकरण (Innovation of Teaching Subjects)-
अपने शिक्षण विषयों का नवीनतम ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी अध्यापकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण अत्यन्त आवश्यक हैं। सभी विषयों-वैज्ञानिक विषय, सामाजिक विषय, आर्थिक विषय, भाषाएं आदि में कई प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं और उन परिवर्तनों का ज्ञान प्राप्त करना एक सच्चे अध्यापक के लिए अत्यन्त आवश्यक है, जैसे—प्राइमरी स्तर पर विज्ञान की शिक्षा देने के लिए आवश्यक है कि प्राइमरी अध्यापकों के विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान का नवीकरण किया जाए। नवीन गणित (New Mathematics) को प्रचलित करने के लिए गणित के अध्यापकों को नवीन गणित के बुनियादी सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया जाये, इसी प्रकार अन्य विषयों में भी समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों का ज्ञान प्रदान करना अत्यन्त आवश्यक है।
सेमिनारों, अध्ययन कोर्सी, कार्यशालाओं आदि के आयोजन से शिक्षण विषयों का नवीनतम ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।
(5) शिक्षा एक जीवन-प्रक्रिया (Education a life long Process)-
ऐसा समझा जाता है कि अध्यापक के लिए एक बार प्रशिक्षण प्राप्त करना ही पर्याप्त है परन्तु यह धारणा गलत है क्योंकि शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है. और अध्यापक को जीवनभर यह निश्चय करके चलना चाहिए कि उसे आगे ही आगे बढ़ना है।
(6) विचार-विमर्श करना (To Exchange Views)-
सेवाकालीन शिक्षण के कार्यक्रमों में विभिन्न अध्यापकों को एक-दूसरे से मिलने का अवसर प्राप्त होता है । परस्पर विचार-विमर्श से उन्हें आपसी समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है। एक-दूसरे के अनुभवों से उनका दृष्टिकोण व्यापक बनता है और परस्पर आपसी सहयोग की भावना बढ़ती है। इसके साथ-ही-साथ शिक्षण व्यवसाय के प्रति अपनत्व की भावना का उदय होता है।
(7) शिक्षण में गतिशीलता लाने के लिए (To Bring Dynamism in Teaching)-
शिक्षा गतिशील है और अध्यापक तभी शिक्षा का अभिन्न अंग बना रह सकता है जब वह इस गतिशीलता के साथ कदम मिलाकर चले। शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं, शिक्षण साधनों आदि में निरन्तर परिवर्तन हो रहे हैं और जब तक अध्यापक को इनका समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं होता तब तक वह सफलतापूर्वक शिक्षण कार्य नहीं कर सकता। सेवा-कालीन प्रशिक्षण से उसे यह ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिलता।
(8) आलोचनात्मक चिंतन को विकसित करना (To Develop Critical Thinking)-
ससेवाकाली प्रशिक्षण से अध्यापक में आलोचनात्मक चिन्तन की प्रवृत्ति विकसित होती है और उसे आत्माभिव्यक्ति के लिए अवसर प्राप्त होता है जिसके परिणाम स्वरूप वह शिक्षा संबंधी प्रयोगों में योगदान दे सकता है। शिक्षा के उद्देश्यों में नवीन स्थितियों के अनुसार क्या परिवर्तन होने चाहिए आदि कई ऐसे प्रश्न हैं जिनमें अध्यापकों को अपने विचार प्रकट करने की सुविधा मिलनी चाहिए, क्योंकि उन्हें शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं तथा कठिनाइयों का व्यावहारिक अनुभव होता है और यह सुविधा उन्हें सेवा-कालीन शिक्षा के कार्यक्रमों द्वारा ही सम्भव है।
(9) व्यावसायिक विकास की आवश्यकता (Need of Professional Growth) –
अध्यापकों के ज्ञान-विकास के लिए ही नहीं अपितु उनकी व्यावसायिक प्रगति (Professional Growth) के लिए भी सेवा-कालीन प्रशिक्षण अत्यन्त आवश्यक है। सेवा-कालीन प्रशिक्षण द्वारा अध्यापकों को अपने व्यावहारिक अनुभवों की कसौटी पर अपने सैद्धान्तिक ज्ञान को परखने का अवसर प्राप्त होता है। उन्हें अपने व्यवसाय में हो रहे परिवर्तनों का ज्ञान होता है और उन्हें शिक्षा सम्बन्धी नवीन योजनाओं तथा कई कार्यक्रमों की जानकारी प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप उसकी व्यावसायिक कुशलता में प्रगति होती है।
(10) शिक्षा के पुनर्निर्माण के लिए (For Educational Reconstruction)–
वर्तमान परिस्थितियों में तो अध्यापकों के लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण और भी अधिक आवश्यक है। भारत में समाजवादी समाज तथा लोकतन्त्र जीवन की स्थापना के उच्च आदर्श स्थापित किये जा चुके हैं। इन आदर्शों की पूर्ति के लिए शिक्षा को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। यही कारण है शिक्षा क्षेत्र में नये प्रयोग हो रहे हैं, परन्तु इन प्रयोगों के उचित एवं उपयोगी निष्कर्ष तभी निकाल सकते हैं जब अध्यापक अपना सक्रिय योगदान प्रदान करे और सक्रिय योगदान सेवाकालीन प्रशिक्षण के बिना असम्भव है।
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