शैक्षिक तकनीकी / Educational Technology

शिक्षण क्या है? | अच्छे शिक्षण अधिगम की विशेषताएँ | शिक्षण सिद्धान्त | शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता | शिक्षण-सिद्धान्त के प्रकार

शिक्षण क्या है? | अच्छे शिक्षण अधिगम की विशेषताएँ | शिक्षण सिद्धान्त | शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता | शिक्षण-सिद्धान्त के प्रकार | What is teaching in Hindi | Characteristics of good teaching-learning in Hindi | Teaching Principles in Hindi | Need for teaching theory types of teaching theory in Hindi

शिक्षण क्या है?

(What is Teaching)

अधिकांश व्यक्तियों की शिक्षण के विषय में भ्रमपूर्ण धारणा है। उनका मानना है कि शिक्षण का आशय रहने या ज्ञान को मस्तिष्क में दूसने से है परन्तु वास्तव में यह गलत है। शिक्षण एक सामाजिक घटना (Phenomena) है। इसका अर्थ स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित परिभाषाओं को देखा जा सकता है।

डॉ. माथुर- वर्तमान समय में शिक्षण से यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि बालक के मस्तिष्क को थोथे, अव्यावहारिक ज्ञान से भर दिया जाए……. अब तो शिक्षण का अर्थ है कि बालक को ऐसे अवसर प्रदान किये जायें जिससे बालक अपनी अवस्था एवं प्रकृति के अनुरूप समस्याओं को हल करने की क्षमता प्राप्त कर लें। वह अपने आप योजना बना सके, प्रदत्त सामग्री एकत्र कर सके, उसे सुसंगठित कर सके और फल को प्राप्त कर सके जिसे वह फिर प्रयोग में ला सके।”

थामस ई. क्लेटन (Thomes E.Clayton)- शिक्षण वह कौशल है जो छात्रों में रुचि तथा धारणा को उद्दीप्त करने एवं ज्ञान वर्धन करने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। वह दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य सम्प्रेषण है। इसमें एक व्यक्ति दूसरे से सीखने में संलग्न रहता है। यह विद्यालय में किया जाने वाला अभ्यास है जिससे पहले से शिक्षित व्यक्ति बच्चों को शिक्षा देता है।

बी.एफ. स्किनर- शिक्षण उन आवश्यक परिस्थितियों की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत छात्र सीखते हैं, वे स्वाभाविक वातावरण में शिक्षण के बिना ही सीखते हैं। शिक्षक उन विशेष परिस्थितियों की व्यवस्था करते हैं जो सीखने के कार्य को तेज करते हैं। ये व्यवहार की अभिव्यक्ति में तेजी लाती है, उसे निश्चित करती है।

क्लार्क (Clarke)- छात्र के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए दी जाने वाली क्रिया शिक्षण है।(Teaching activities are performed to produce change in students behaviour)

बी.ओ. स्मिथ- अधिगम को अभिप्रेरित करने वाली क्रिया शिक्षण है।

गेट्स- प्रशिक्षण एवं अनुभव द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों को अधिगम कहते है।

बर्टन- शिक्षण, अधिगम हेतु प्रेरणा पथ प्रदर्शन, पथ निर्देशन और प्रोत्साहन है।

उपरोक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं-

  1. शिक्षण एक सामान्य विचार की व्याख्या करता है।
  2. यह एक सामाजिक प्रक्रिया है।
  3. यह मानव प्रकृति पर आधारित है।
  4. यह उद्देश्यपूर्ण और वर्णनात्मक क्रिया है।
  5. यह औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही है।
  6. इसके तीन पक्ष होते हैं- शिक्षक, शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम
  7. इसकी अपनी निजी शिक्षण शैली होती है और ये अनेक विधियों, प्राविधियों द्वारा संचालित होता है।
  8. इसमें मार्गदर्शन तथा निर्देश दोनों ही शामिल रहते हैं।

अच्छे शिक्षण अधिगम की विशेषताएँ

(Characteristics of Good Teaching)

अच्छे शिक्षण की निम्न विशेषताएँ होती हैं-

  1. अच्छा शिक्षण निर्देशात्मक (Suggestive) होता है।
  2. अच्छा शिक्षण प्रेरणादायक (Stimulating) होता है।
  3. अच्छा शिक्षण सुव्यवस्थित और सुनियोजित होता है।
  4. अच्छा शिक्षण प्रगति पर आधारित होता है।
  5. अच्छा शिक्षण सहानुभूतिपूर्ण होता है।
  6. अच्छा शिक्षण सहयोग पर आधारित होता है।
  7. अच्छा शिक्षण बाल केन्द्रित एवं मनोवैज्ञानिक होता है।
  8. अच्छा शिक्षण बालक में आत्मविश्वास उत्पन्न करता है।
  9. अच्छा शिक्षण निदानात्मक और उपचारात्मक होता है।
  10. अच्छा शिक्षण बालक के पूर्व ज्ञान को ध्यान में रखकर दिया जाता है।

शिक्षण सिद्धान्त

(Theory of Teaching)

शिक्षण उतना ही प्राचीन है जितनी मानव जाति। फिर भी आज कोई भी साधारण रूप से स्वीकृत शिक्षण विधि नहीं है। न ही हम और बहुत प्रगति कर पाये हैं कि शिक्षा की प्रक्रिया को व्यवस्थित कर दें। एक कारण जो शिक्षण के सिद्धान्त को विकसित करने में व्यवधान का है वह यह कि हमने अब तक सीखने और उसके सिद्धान्तों पर ही शिक्षण का आधार खोजने में बल दिया है किन्तु सीखना क्या है, यह कैसे होता है, यह कितने प्रकार का है? इस पर कोई भी एक मत नहीं है।

इसी का परिणाम है कि एक सीखने का सिद्धान्त न होकर अनेक सीखने के सिद्धान्त हैं और इस कारण ही हमारे सामने कोई निश्चित शिक्षण सिद्धान्त नहीं आता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिक्षण का केन्द्र बिन्दु सीखने में सुविधा लाना है।

सन् 1963 में जेम्स ब्रूनर ने शायद पहली बार शिक्षण-सिद्धान्त शब्दों का प्रयोग उन अर्थों में किया था जिनमें वह आज प्रयोग हो रहा है। पेटरसन के अनुसार सन् 1965 में यह शब्द नवें करीक्यूलम रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ द एसोसियेशन सुपरविजन एण्ड करीक्यूलम डेवलपमेंट (Ninth Curriculum Research Institute of the Association for Supervision and Curriculum Development) के शीर्षक में प्रयोग हुआ। इस वर्ष इस एसोसियेशन ने एक कमीशन शिक्षण-सिद्धान्त के लिए नियुक्त की। इस आयोग ने एक रिपोर्ट सन् 1968 में शिक्षण सिद्धान्त के लिए कसौटी क्या हो, इस पर प्रकाशित की।

12 वर्षों के समय में संसार में शिक्षण सिद्धान्त पर बहुत विचार किया गया। इस ओर महत्वपूर्ण विकास इंग्लैण्ड और अमेरिका में किया गया। भारत में भी उन व्यक्तियों द्वारा जो इन देशों से प्रशिक्षित होकर आये थे, ध्यान दिया गया। किन्तु बहुत कुछ इस ओर विकास शिक्षण तकनीक पर बल देने के कारण हुआ। शिक्षण में तकनीकी के प्रयोग के लिए एक सैद्धान्तिक रूपरेखा की आवश्यकता थी। इस प्रकार की रूपरेखा बनाने के लिए ध्यान शिक्षण के सिद्धान्तों पर केन्द्रित किया गया।

प्रत्येक शिक्षण का कोई न कोई सिद्धान्त अवश्य होता है और उसी सिद्धान्त से उसकी शिक्षण प्रक्रिया सम्पादित होती है। सिद्धान्त न केवल एक मत, एक सौदा, एक दृष्टिकोण है वरन् इससे अधिक है। यह कुछ नियमों या तकनीकियों को एकत्र करने से भी अधिक है। यह ज्ञान को संगठित एवं समन्वित करने का एक प्रयास है ताकि प्रश्न ‘क्यों’ का उत्तर प्रदान किया जा सके। एक सिद्धान्त तथ्यों को संगठित करता है, अर्थ प्रदान करता है और नियमों व विधियों के रूप में तथ्यों एवं ज्ञान को, जो एक क्षेत्र में होते है, उनको कथित करता है।

परिभाषायें- (Definitions)

  1. ट्रेवर्स (Travers) – शिक्षण-सिद्धान्तों में बहुत से तर्क वाक्यों का एक समूह होता है, जिसमें एक ओर शिक्षा के परिणामों तथा दूसरी ओर छात्र की विशेषताओं के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट किया जाता है।
  2. करलिंगर (Kerlinger) – एक शिक्षण सिद्धान्त परस्पर सम्बन्धित रचनाओं, परिभाषाओं, उपसंज्ञाओं की श्रृंखला है, जो शिक्षक के सम्बन्ध में, चल-राशियों के बीच में सम्बन्धों को इस उद्देश्य से व्यक्त करके कि शिक्षण व्याख्या हो जाय और इसका पूर्वानुमान हो जाय एक व्यवस्थिति दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
  3. ब्रूनर (Bruner)- शिक्षण-सिद्धान्त उपचारात्मक होता है। यह ज्ञान या कौशल प्राप्ति की अधिकतम प्रभावशाली विधियों से सम्बन्धित नियमों को निर्धारित करता है। यह एक ऐसा मानदण्ड प्रदान करता है जिसकी सहायता से शिक्षण या अधिगम का मूल्यांकन किया जा सके। इसीलिए शिक्षण का सिद्धान्त आदर्शमूलक सिद्धान्त भी होता है।

गेज (N. I.Gage) का मानना है कि शिक्षण सिद्धान्त तीन तरह से उत्तर चाहता है-

  1. शिक्षक कैसे व्यवहार करता है?
  2. वह वांछित व्यवहार क्यों करता है?
  3. उसका क्या प्रभाव होता है?

शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता

(Need of Theory of Teaching)

शिक्षण अधिगम की सिद्धान्त से सरल रूप से सम्बन्धित नहीं है न ही शिक्षण अधिक के सिद्धान्त का मात्र एक प्रयोग है। यद्यपि शिक्षण के लिए सीखने के सिद्धान्त की आवश्यकता प्रतीत होती है फिर भी यह  पर्याप्त नहीं हैं। जैम्स ब्रूनर (James Bruner) के अनुसार अधिगम के सिद्धान्तों को शिक्षण के लिए पथ-प्रदर्शक मानना त्रुटिपूर्ण होगा। उनका मानना है कि शिक्षण अभ्यास प्रत्यक्ष रूप से अधिगम के सिद्धान्तों से नहीं निकाला जा सकता है। इसे तो शिक्षण सिद्धान्त से प्राप्त करना चाहिए। इस दृष्टि से शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता को निम्नलिखित तथ्यों से जा सकता है।

  1. शिक्षण-सिद्धान्त अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए एक संगठन प्रदान करता है और प्रशिक्षण में सुविधा लाता है।
  2. शिक्षण-सिद्धान्त के द्वारा शिक्षण परिस्थितियों को सरल एवं स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है।
  3. जो तथ्य प्राप्त नहीं है उन्हें उनके द्वारा प्राप्त करने में अनुसन्धानकर्ता को यह दिशा प्रदान करता है।
  4. इनके माध्यम से पुराने अनुसन्धान कार्यों को नवीन अनुसंधानों से अनुपोषण और आगामी अनुसंधानों के लिए नवीन राह मिलती है।
  5. इनके द्वारा हमारी शिक्षण सम्बन्धी समझ, पूर्वानुमान एवं नियंत्रण को बढ़ाने के लिए‌ उपयोग किये जा सकते हैं।
  6. यह सीखने के सम्बन्ध की व्याख्या करता है और उनमें समान खण्डों की पहचान करता है।
  7. यह नवीन विधियों, अभ्यासों के मूल्यांकन और उनके चुनाव का आधार प्रदान करते हैं। ये शिक्षण योजना का निर्माण करने, संगठित करने तथा उनका मूल्यांकन करने के लिए एक वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हैं।
  8. शिक्षक का कार्य छात्र के व्यवहार में अपेक्षित करना है। अतः शिक्षक को शिक्षण प्रक्रिया का अर्थ, स्वरूप और उसके विभिन्न चरों व उनके पारस्परिक सम्बन्ध तथा मान्यताओं के बारे में पूर्ण ज्ञान शिक्षण सिद्धान्तों द्वारा सरलता से प्राप्त हो जाता है।

शिक्षण-सिद्धान्त के प्रकार

(Types of Teaching Theories)

शिक्षण-सिद्धान्त के सम्बन्ध में अभी तक कोई निश्चित सिद्धान्त का निर्धारण नहीं हो पाया है। इस कारण इसके किसी एक सिद्धान्त का वर्णन नहीं किया जा सकता है। शिक्षण-सिद्धान्त के कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. औपचारिक शिक्षण-सिद्धान्त (Formal theory of teaching)
  2. वर्णनात्मक शिक्षण-सिद्धान्त (Descriptive theory of teaching)
  3. प्रामाणिक शिक्षण सिद्धान्त (Normative theory of teaching)

1. औपचारिक शिक्षण सिद्धान्त ( Formal theory of teaching) शिक्षण का यह सिद्धान्त तत्व विज्ञान (Metaphysics) एवं ज्ञानवाद (Epistemology) की उपसंज्ञाओं पर आधारित है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह शिक्षण प्रदान करने के सम्बन्ध में सर्वप्रथम प्रतिपादित किया किया गया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सिद्धान्तों को रखा गया है।

(क)विचारोत्पादक सीखने का सिद्धान्त (Maieutic theory of teaching)- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक सुकरात हैं। इस सिद्धान्त द्वारा इस बात पर बल दिया जाता है कि सब ज्ञान बालक के अन्दर है और शिक्षक का कार्य केवल इसको ऊपर लाना है। इसके लिए शिक्षक को प्रश्न पूछने की विधि अपनानी चाहिए। प्रश्नों द्वारा छात्रों की अन्तर्निहित शक्तियों को बाहर लाने का प्रयास किया जाता है।

(ख) सम्प्रेषण सीखने का सिद्धान्त (Communication theory of teaching)- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक हरबार्ट (Herbart) महोदय हैं। ये बालक के मस्तिष्क को कोरी पटिया (Slate) मानते हैं। जिस पर शिक्षक अपने सम्प्रेषण द्वारा जो चाहे वह अंकित कर सकता है। शिक्षक छात्रों के समक्ष इसको सम्प्रेषण के माध्यम से ही प्रस्तुत करते हैं। इसे ही शिक्षक का सम्प्रेषण श्रीसिद्धान्त कहते हैं। इसके अभाव में शिक्षण सम्भव नहीं है।

शिक्षक के पास अधिक ज्ञान व सूचनाएँ होती हैं। वह ही अपने ज्ञान और सूचनाओं को छात्रों से सिखाता है। इसके लिए वह व्याख्या, प्रदर्शन तथा कक्षा में अनेक क्रियाओं का सहारा लेता है। हरबार्ट के इस सिद्धान्त में पाँच सोपान का प्रयोग किया जाता है-प्रस्तावना, प्रस्तुतीकरण, तुलना व सम्बन्ध सामान्यीकरण तथा प्रयोग

(ग) संचककरण या परिवर्तन सीखने का सिद्धान्त (The Moulding theory of teaching)- यह सिद्धान्त जॉन डीवी (John Dewey) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धान्त में इस बात पर जोर दिया जाता है कि छात्रों को शिक्षण द्वारा एक वांछित आकृति या ढाँचे क्षणमें ढाला जा सके। इनका मानना है कि व्यक्ति अपने वातावरण और व्यक्तित्व के आधार पर ही सफल होता है। अतः बालक की शिक्षा में उत्तम वातावरण को प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए।

(घ) परस्पर खोजबीन का सिद्धान्त (Mutual Inquiry Theory) – यह सिद्धान्त छात्र और शिक्षक के परस्पर खोजबीन पर आधारित है। साथ ही यह समस्या समाधान प्रणाली को महत्व देता है। इस सिद्धान्त में दोनों ही सक्रिय रहते हैं यह सिद्धान्त इस बात पर भी बल देता है कि व्यक्ति में खोजबीन करके नवीन ज्ञान को प्राप्त करने की क्षमता होती है।

2. वर्णनात्मक शिक्षण सिद्धान्त (Descriptive theory of teaching) वर्णनात्मक शिक्षण परीक्षणों से प्राप्त परिणामों और निरीक्षणों द्वारा प्राप्त तत्वों पर आधारित है। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य शिक्षण सम्बन्धी चल राशियों और निरीक्षणों द्वारा प्राप्त तत्वों पर आधारित है। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य शिक्षण सम्बन्धी चल राशियों के सम्बन्ध एवं प्रभावशीलता का पूर्वानुमान करना है। गार्डन एवं ब्रूनर ने इस प्रकार के सिद्धान्त पर विशेष बल दिया। ब्रूनर का मानना है कि शिक्षण सिद्धान्त निर्देशात्मक (Prescriptive) होता है। इसमें चार विशेषतायें पायी जाती हैं- सीखने की उन्मुक्ता (Predisposition to learn), ज्ञान की संरचना (Structure of knowledge), क्रमशीलता (Sequence) और पुष्टिकरण (Reinforcement)

3. प्रमाणिक शिक्षण सिद्धान्त (Descriptive theory of teaching) मानव एक बौद्धिक प्राणी है। उस का प्रयोगात्मक स्थिति में नियंत्रण रखना कठिन है। अतः इस दृष्टि से प्रामाणिक शिक्षण सिद्धान्त को महत्त्व दिया गया। इस सिद्धान्त को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

(क) ज्ञानात्मक शिक्षण- सिद्धान्त (Cognitive theory of teaching)- इस शिक्षण- सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक एन.एल. गेज माने जाते हैं उनका मानना है कि एक शिक्षण सिद्धान्त का उद्देश्य प्राप्त करने में पर्याप्त नहीं हो सकता है। शिक्षण के कई सिद्धान्त होने चाहिए क्योंकि शिक्षण का विश्लेषण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

(अ) शिक्षण क्रिया के प्रकार

(ब) शिक्षण उद्देश्यों के प्रकार

(स) सीखने के सिद्धान्तों के प्रकार

(द) सीखने के अवयवों के प्रकार

उनका यह भी मानना है कि तर्कशास्त्र के नियम, ज्ञानसम्बन्धी तथा प्रत्यक्षीकरण के नियम ही शैक्षिक प्रक्रिया को एक सुविधाजनक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।

(ख) शिक्षक-व्यवहार सिद्धान्त (Theory of trenchers behaviour)- इस सम्बन्ध में म्यूक्स तथा स्मिथ ने कहा है कि “शिक्षक व्यवहार उन सब कार्यों को सम्मिलित करता है जो शिक्षक विशिष्ट ढंग से कक्षा के कमरे में करता है ताकि सीखना प्रवृत्त किया जा सके। रायन महोदय शिक्षक व्यवहार को सामाजिक और आपेक्षिक धारणा (Relative) मानते हैं।

(ग) मनोवैज्ञानिक शिक्षक सिद्धान्त (Psychological teaching theory)- यह सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक पक्ष पर बल देता है। यह सिद्धान्त शिक्षक की क्रियाओं यथा- शिक्षण कार्य का विश्लेषण, अधिगम-उद्देश्यों के निर्धारण, शिक्षण-विधियों के चयन आदि पर केन्द्रित होता है।

(घ) सामान्य शिक्षण-सिद्धान्त (General theory of teaching)- इस सिद्धान्त के प्रतिपादक एस.सी.टी. क्लार्क (S.C.T. Clarke) हैं। उनका मानना है कि शिक्षण एक प्रक्रिया है जो कि छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए रूपांकित की जाती है। ये क्रियाएँ विभिन्न स्तरों पर विभिन्न तरह की हो सकती है।

अधिगम-सिद्धान्त (Theory of learning)- अधिगम जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षण प्रक्रिया में सीखने के सिद्धान्तों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सीखने का सिद्धान्त (Theory of learning) शिक्षण के सिद्धान्त (Theory) से अधिक विस्तृत एवं आधारभूत है। यूँ तो सिद्धान्त स्वयं में एक जटिल प्रश्न है। इनकी व्याख्या नहीं की जा सकती परन्तु फिर भी अनेक मनोवैज्ञानिकों ने इसकी व्याख्या की है। बिन फ्रेड हिल ने ज्ञान के क्षेत्र की क्रमबद्ध व्याख्या को सिद्धान्त माना है। उनके अनुसार सिद्धान्त के तीन कार्य हैं-

  1. ज्ञान तक पहुँचने का अभिगमन
  2. ज्ञान के अपार भण्डार को सार रूप में व्यक्त करना
  3. अधिगम की क्रिया क्यों, कैसे सम्पन्न होती है। इसकी व्याख्या करना।

अधिगम के सिद्धान्त व्यक्ति को सीखने की सरल विधि तथा उपायों की ओर ले जाते हैं। इनका विस्तृत वर्णन आगे अध्याय में प्रस्तुत किया जाएगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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