शैक्षिक तकनीकी / Educational Technology

अभिक्रमित अनुदेशन | अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार | रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन का एक उदाहरण

अभिक्रमित अनुदेशन | अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार | रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन का एक उदाहरण | Programmed Instruction in Hindi | Types of Programmed Instruction in Hindi | An Example of Linear Programmed Instruction in Hindi

अभिक्रमित अनुदेशन

अभिक्रमित अनुदेशन अपनी विशिष्टता के कारण शैक्षिण तकनीकी में अत्यन्त ख्याति प्राप्त करता जा रहा है आनुधिक तकनीकी में बी. एफ. स्किनर के मनौवैज्ञानिक सिद्धान्ता पर आधारित अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction) अपनी उपादेयता के कारण शिक्षण- अधिगम प्रक्रिया में व्यावहारिक रूप धारण करता चला रहा है। विविध विषयों एवं प्रकरणों पर अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री का विकास करना एक चलन बनता जा रहा है। प्रायः अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री का निर्माण एवं विकास हेतु कुछ निश्चित प्रक्रिया एवं सोपनों को ध्यान में रखा जाता है। किन्तु अभिक्रमि अनुदेशन सम्प्रत्याग में 1960-1970 के बीच बहुत तेजी से बदलाव हुआ जिसके कारण इसके सोपानों भी परिवर्तन आता गया। इस परिवर्तन को निम्नलिखित तालिका द्वारा समझा जा सकता है-

वर्ष

अभिक्रमित अनुदेशन के प्रमुख सोपान/पक्ष

1960

छोटे-छोटे पद, बाहा बनुक्रिया, तत्काल पृष्ठ पोषण, स्व-गति तथा मूल्यांकन

1963

कार्य-विश्लेषण, व्यवाहारिक रूप से उद्देश्यों को लिखना, छोटे-छोटे पद् तार्किक क्रम, तत्पर अनुक्रिया तत्काल पृष्ठ-पोषण स्व-गति तथा मूल्यांकन

1966

कार्य विश्लेषण, व्यवहारिक रूप से उदेयों को लिखना, विषय-वस्तु विश्लेषण, प्रवाह-चित्र छोटे-छोटे पद् तत्काल अनुक्रिया, तत्काल पुनार्बलन, सम्प्रेषण निवारण हेतु प्रस्तुतीकरण तथा मूल्यांकन

1970

कार्य-विशलेषण प्रणाली-विश्लेषण विषय-वस्तु विश्लेषण, प्रवाह, चित्र उद्देश्यों को व्यवहारिक रूप में लिखना, पुनर्बलन द्वारा अनुक्रिया नियंत्रण, व्यूह व युक्तियों का चयन निर्देशन तथा मूल्यांकन

अभिक्रमित अनुदेशन के बदलाने स्वरूप के कारण इसके निर्माण हेतु सोपानों के निर्धारण  हेतु ग्लेसर, जान पी. डिसिको, पीटर आदि विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण प्रदान किये है। किन्तु सामान्य तौर पर अभिक्रमित अनुदेशन का विकास-आठ सोपानों पर किया जाता है।

(1) प्रकरण या शीर्षक का चयन करना।

(2) पूर्व ज्ञान, अनुभव को व्यवहारिक रूप में लिखा।

(3) उद्देश्यों को व्यवहारिक रूप में लिखनए।

(4) विषय-वस्तु की रूपेखा का विकास करना।

(5) मानदण्ड परीक्षा का निर्माण करना।

(6) अभिक्रम की रचना करना ।

(7) परीक्षण करना।

(8) मूल्यांकन तथा वैधता।

  1. प्रकरण या शीर्षक का चयन करना- अभिक्रमित कार्यक्रम को बनाने के लिए सर्वप्रथम प्रकरण या शीर्षक का चयन किया जाता है। इसके लिए अभिक्रम बनाने वाले को अपनी रूचि, विषय पर स्वमत्व की व्यवस्था का पूरा ध्यान रखाना चाहिए। प्रकरण वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होना चाहिए। प्रकरण चाहिए। तार्किक रूप में भिाजित होने वाला होना चाहिए।
  2. पूर्व ज्ञान, अनुभव को व्यवहारक रूपमें लिखना- जो कार्यक्रम बनाया जा रहा हैं वह किस आयु वर्ग के छात्रों के लिए हैं? उनका सामाजिक शैक्षिक-आर्थिक-मानसिक स्तर कैसा है, उनकी रूचि, योग्यता, पूर्व-अनुभव के सम्बन्ध में पूरी तरह सूचनाएँ उपलब्ध होना चाहिए। आवश्यकता अनुरूप उन्हें लिख लेना चाहिए।
  3. उद्देश्यों को व्यवहारिक रूप से लिखना- कार्यक्रम के उद्देश्यों का निर्धारण करके उनको ज्ञानात्मक, भवात्तक, रूप से व्यहारिक रूप में लिखना चाहिए। इसके लिए आवश्यक हो तो ब्लूम, क्रथवाल तथा सिम्पसन द्वारा वर्गीकृत उद्देश्य-निर्धारण टेक्सॉनामी (Taxonomy) का भी आश्रय लेना चाहिए। इसमें कार्य-वर्णन (Task Description) तथा कार्य-विश्लेषण (Task Analysis) दोनों को शामिल किया जाता है। कार्य वर्णन में उन अन्तिम उद्देश्यों को स्पष्ट किया जाता है। जिसे कार्यक्रम द्वारा करने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि कार्य-विश्लेषण में पूर्व व्यवहार से अन्तिम व्यवहार तक पहुँचने के लिए क्या-क्या प्रश्नों के माध्यम से किया जाना हैं इकस विश्लेषण किया जाते है। ऐसा करने में वस्तुनिष्ठ मानण्दण्ड परीक्षाओं का निर्माय करना आसान है।
  4. विषय-वस्तु की रूपेखा का विकास करना- इसके अन्तर्गत पाठ्यवस्तु का विश्लेषण छात्रों की पूर्व-अनुभव, पूर्व-ज्ञान एवं उद्देश्यों के अनुरूप करके एक रूपरेखा बनायी जाती है। इसमें यह ध्यान रखा जाता है कि विषय-वस्तु में सभी रूपेरखा में सभी बातों समाहित हो जिसे कार्यक्रम में रखना है। इसके लिए मनोवैज्ञानिक आधार एवं तार्किकता का आश्रय लेना चाहिए। आवश्यक हो तो विषय-विशेषज्ञों का भी सहायोग प्राप्त किया जा सकता है।
  5. मानदण्ड परीक्षा का निर्माण करना- उद्देश्यों में वर्णित कार्य वर्णन कार्य के आधार पर छात्रों के अन्तिम व्यवहार को जाँचने के लिए मानदण्ड परीक्षण का निर्माण किया जाता है। प्रायः कार्यक्रम द्वारा जिन व्यवहार परिवर्तन के लिए पदों एवं प्रश्नों का निर्माण किया जाता है। वे सभी व्यवहार अन्तिम व्यवहार कहे जाते हैं। मानदण्ड परीक्षण में प्रायः वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को रखा जाता हैं इस परीक्षा द्वारा यह पता चलता है कि छात्रा अधिगम उद्देश्यों या मानदण्ड की प्राप्ति कर पाये कि नहीं मानदण्ड परीक्षा का निर्माण करते समय निर्देशों को स्पष्ट एवं सरल रूप से उल्लेखित करना चाहिए। आवश्यतानुसार पद-विश्लेषण काठिन्य स्तर निर्धारण तथा विश्वसनीयता एवं वैधता का निर्धारण भी किया जा सकता है।
  6. अभिक्रम की रचना करना- इस सोपान के अन्तर्गत मूल कार्यक्रम या अभिक्रम को लिखा जाता है। इसमें अभिक्रम के स्वरूप-रेखीय, शाखीय, अवरोही इत्यादि को ध्यान में रखा जाता है। प्रायः रेखीय अभिक्रम की अपेक्षा शाखीय अभिक्रम का पद बड़ा रखा जाता है।

पद का स्वरूप सरल एवं व्यवहारिक शब्दावली में होता है। उनको कथन के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं वे क्रमशः अनुक्रिया (S-R) के रूप में होते हैं। इकाई या फ्रेमों को प्रश्नों य पदों के निर्माण के बाद उचित क्रम में व्यवस्थित किया जाता है। इसके लिए पदों की कठिनाई स्तर को दृष्टिगत रखकर पहले सलर फिर कठिन पदों या प्रश्नों को रखा जाता है इसमें मनोवैज्ञानिक पहलुओं का भी आश्रय लिया जाता है।

प्रायः पद-क्रम का निर्धारण हेतु हो विधियाँ अपनायी जाती हैं। प्रथमतः नियम उदाहरण विधि या उपगम (Rule Method or Approach) और द्वितीयतः और द्वितीतः उदाहरण सहित विधि या उपागम (Egrula Method Approach) इन दो विधियों का इस्तमेमाल करके अभिक्रम की रचना पूरी कर ली जाती हैं बाद में विशेषज्ञों को मदद से तकनीकी त्रुटि भाषा अशुद्धिया को दूर भी किया जाता है।

  1. परीक्षण करना या ट्राइ-आउट (Try-out)- अभिक्रम में पदों की रचना एवं इकाइयों को व्यवस्थित रूप देने के बाद उनके परीक्षण (Try-out) की पृष्ठभूमि बनाया जाता है। इसमें प्रायः तीन प्रकार का परीक्षण किया जाता है।

(i) वैयक्तिक परीक्षण (Individual Try-out)

(ii) अल्प समूह परीक्षण (Short-group Try-ousts)

(iii) क्षेत्र परीक्षण (Field Try out)

वैयक्तिक परीक्षण में तैयार अभिक्रम को दो या तीन छात्रों पर लागू किया जाता है। इससे उनकी व्यक्तिगत कमी, भाषा सम्बन्धी कठिनाई परीक्षण की लम्बाई आदि की परिसीमाओं की जानकारी होती है। और आवश्यकतानुसार संशोधन किया जाता है।

अल्प समूह परीक्षण में प्रायः पन्द्रह-बीस छात्रों के अभिक्रम को लागू किय जाता है। इसके द्वारा समूह में छात्रों की परेशानियों कठिनाइयों के साथ-साथ परीक्षण पर उनकी प्रतिक्रियाओं एवं सुझावों को लिपिबद्ध करके अभिक्रम में आवश्यक सुधार किया जाता है।

क्षेत्र परीक्षण के अन्तर्गत तैयार अभिक्रम को एक प्रतिदर्श (Sample) पर लागू किया जाता है। व्यापक पैमाने पर छात्रों की अनुक्रियाओं एवं अनुसंशाओं के आधार पर पर अभिक्रम में अपेक्षित संशोधन करके उसे यथार्थ मान लिया गया है।

  1. मूल्यांकन निर्धाण (वैलिडशन) (Validation)- अभिक्रम के परीक्षण (Try-out) के बाद अभिक्रम या कार्यक्रम से प्राप्त विविध एकत्रित समाको (आँकड़) के आधार पर सका मूल्यांकन वैधता-निर्धारण, त्रुटिदर निर्धारिण, सतत्-प्रवाह निर्धारण किया जाता है।

(i) वैधता निर्धारण (Validation)- अभिक्रम के वैधता निर्धारण से यह स्पष्ट होता है कि अभिक्रम जिस गुण या गुण या उद्देश्य या विषय-वस्तु का मापन करने के लिए बनाया गया है। उसका मापन कर रहा है अथवा नहीं। परीक्षण मापन के योग्य वांछनीय व्यहारों का मापन डीक ढंग से कर रहा है तो उस अभिक्रम को वैध माना जास्त है तथा उसके इस गुण को वैधता कहा जाता है। प्रायः वैधता निर्धारण के लिए दो विधियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं-

(i) तार्किक विधियाँ या आन्तरिक कसौटी पर आधारित विधियाँ।

(ii) सांख्यिकीय विधियाँ या वाहा कसौटी पर आधारित विधियाँ

तार्किक विधियाँ प्रायः परीक्षण के आन्तरिक कसौटी के आधार पर अभिक्रमण की वैधता को प्रकट करती है। इसमें अभिक्रम के निर्माण, प्रयोग तथा रूप के आधार पर व्याख्या करके वैधता के सन्दर्भ में निर्णय लिया जाता है। तार्किक विधि से वैधता का निर्धारण करना एक कठिन एवं जटिल कार्य है।

सांख्यिकीय विधियों से अभिक्रम की वैधता के निर्धारण के लिए सह-सम्बन्ध, गुणांक टी- परीक्षण, कारक-विश्लेषण आदि का प्रयोग किया जाता है।

वैधता कई प्रकार का होता है—(i) रूप वैधता, (ii) विषयगत वैधता, (iii) समवत वैधता, (iv) अवयव वैधता, (v) अनुभव वैधता, (vi) तर्कसंगत वैधता, (vii) अन्वय वैधता, (viii) भाविष्यगत वैधता।

इसमें अवयव वैधता, अनुभव वैधता, भविष्यगत वैधता ती समवर्ती याहा कसौटी पर आधारित होता हहै। जबकि रूप वैधता, विषयगत वैधता, तर्कसंगत वैधता तथा अन्वय वैधता आन्तरिक कसौटी कसौटी पर आधारित होता है।

(ii) त्रुटिदर निर्धारण (Error Rate)- किसी अभिक्रम को त्रुटिदर का निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का आश्रय लिया जाता है।

त्रुटि दर (E.R.) = (त्रुटियों का कुल योग / पदों की संख्या छात्र संख्या) X 100

प्रायः त्रुटि दर 5 से 15 प्रतिशत के बीच ही रहना चाहिए। स्किनर ने रेखीय अनुशासन की त्रुटि 5 से 10% तथा क्राउडर ने शाखीय अनुदेशन की त्रुटिदर 20% से ज्यादा होने का सुझाव दिया है।

(iii) घनत्व निर्धारण (Density Rate)- किसी अभिक्रम में प्रयुक्त पदों की कठिनाई स्तर या घनत्व का निर्धारण की निम्नलिखित निम्नलिखित सूत्र द्वारा जाता है।

घनत्व निर्धारण विविध अनुक्रियाओं की संख्या/कुल अनुक्रियाओं की संख्या

(iv) सतत् प्रवाह निर्धारण (Sequence Progression) – मूल्यांकन के इस चरण में परीक्षण प्राप्त समंकों के आधार पर एक स्केलोग्राम आरेख तालिका बनाया जाता है। इसके आधार पर अभिक्रम की निरन्तरता या सतत् प्रवाह या तारतम्य प्रवाह का निर्धारण किया जाता है। यदि अभिक्रम की क्रमिक रूपरेखा ठीक नहीं होता है। तो अभिक्रम में सुधार किया जाता है।

(v) अन्तिम निर्देशिका की तैयारी- मूल्यांकन के उपरान्त अन्तिम रूप से अभिक्रम पुस्तिका या निर्देशिका का प्रकाशन किया जाता है। इसमें प्रायः ऐतििासिक परिदृश्य विशिष्ट उद्देश्यों का विशिष्टिीकरण, मानदण्ड परीक्षण में पदों की संख्या पदों के प्रकार, वैधता, त्रुटिदर इत्यादि वर्णित होता है। इसके अतिरिक्त अभिक्रमित अनुदेशन के पदों का विवरण मूल्यांकन का विवरण, प्रशासन सम्वन्धी निर्देश आदि का क्रमिक व्यवस्था में वर्णान निहित होता है।

रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन का एक उदाहरण

(An Example of Linear Programmed Instruction)

प्रथम इकाई- अभिभावक शिक्षा का सम्प्रत्तय (सतत् आन्तरिक मूल्यांकन करना)

प्रस्तुत अभिक्रमित अनुदेशन निर्देशिका की प्रथम इकाई के विधिवत अध्ययन से आप अभिभावक शिक्षा’ से सम्बन्धित कुछ प्रमुख सम्प्रत्ययों को समझ सकेंगे एवं उनके बीच ‘विभेद’ को समझ सकेंगे। इससे सतत आन्तरिक मूल्यांकन का गुण भी विकसित होगा।

पद 1. अभिभावक शिक्षा का उद्देश्य अभिभावकों द्वारा अपने पाल्यों को व्यक्तित्व विकास हेतु उचित निर्देशन प्रदान करना हैं प्रायः विद्यार्थी विद्यालय में कुछ घंटों तक रहकर विषय-सम्बन्धी सिद्धान्तों का ही ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं। व्यवहारिक रूप में उनमें मूल्यों संस्कारों नैतिक कार्य- व्यवहार, सद्चारित्रता का विकास नहीं हो पता है। विद्यालयी कार्य-कलापों से बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास करना तथा मूल्यों, संस्कारों का विकास करना…….……….(समभव / असम्भव) है। सही उत्तर-असम्भव ।

पद 2- अभिभावक शिक्षा में बालकों व्यक्तित्व विकास, विकास के कई पक्ष निहित होते हैं।

जैसे—(i) संस्करों का विकास (ii)………. (iii)……… (iv)………. (v)…..……

सही उत्तर-मूल्यों का विकास, नैतिकता का विकास, सचारित्रता का विकास, उचित कार्य व्यवहार की शैली (किसी भी क्रम में )।

पद 3- अभिभावक शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व विकास के जो पक्ष उपेक्षित रह जाते हैं उनका विकास विद्यालय की कक्षागत शिक्षण के माध्यम से कुछ न कुछ न कुछ विकास अवश्य किया जा सकता हैं। इसलिए कक्षागत के साथ-साथ अन्य अपाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाना विशेष रूप से है।

सही उत्तर- आपेक्षित / महत्वपूर्ण/आवश्यकता/समीचीन (कोई एक या समतुल्य)

पद 4- वर्तमान समय में अनेकों परिवार विविध संकटों में गुजर रहे हैं। जिससे नवयुवकों में एकता सहयोग, मैत्री भावना, सह-अस्तित्व की भावना का विकास नहीं हो पा रहा हैं अतएव इन परिस्थितियों में पारिवारिक एवं सामाजिक विकास के लिए अभिभावकों के सहयोग की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इससे लोकतांत्रिक आदर्शों एवं मूल्यों के विकास की पृष्ठभूमि बनेगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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