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अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ एवं परिभाषा | अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएँ | अभिक्रमित अनुदेशन की आवश्यकता एवं क्षेत्र | अभिक्रमित अनुदेशन के मुख्य सिद्धान्त

अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ एवं परिभाषा | अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएँ | अभिक्रमित अनुदेशन की आवश्यकता एवं क्षेत्र | अभिक्रमित अनुदेशन के मुख्य सिद्धान्त | Meaning and definitions of programmed instruction in Hindi | Features of Programmed Instruction in Hindi | Requirement and scope of programmed instruction in Hindi | Key Principles of Programmed Instruction in Hindi

अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ एवं परिभाषा –

मुख्यतः अभिक्रमित अनुदेशन वैयक्तिकता पर आधारित होता है। इसमें छात्र सचेष्ट रहकर स्वयं अपनी गति एवं सामर्थ्य के अनुसार सीखते हैं। इसमें सम्पूर्ण विषय वस्तु को छोटे-छोटे खण्डों में बाँट दिया जाता है। जिसमें परस्पर सम्बद्धता एवं क्रमबद्धता होती हैं इसके द्वारा अधिगमकर्ता अज्ञात, कठिन, जटिल तथ्यों को स्वयं अनुभव, परीक्षण एवं विश्लेषण करके अधिगम प्राप्त कर लेता है। अभिक्रमित अनुदेशन में अधिगमकर्ता अधिगम लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए शिक्षण मशीनों एवं अन्य संसाधनों एवं स्त्रोतों का सहारा भी लेता है। अभिक्रमित अनुदेशन को आत्मअनुदेशन, प्रयोजनमूलक अनुदेशन, कार्यक्रम अनुदेशन इत्यादि नामों से सम्बोधित किया जाता है। विभिन्न विद्वानों ने अभिक्रमित अनुदेशन को इस प्रकार परिभाषित किया है-

(1) डी. एल. कुक– “अभिक्रमित अनुदेशन स्व-शिक्षण विधियों के व्यापक सम्प्रत्यय को स्पष्ट करने के लिए उपयुक्त एक विचार है”।

(2) मार्कले- “अभिक्रमित अनुदेशन शिक्षण क्रियाओं के बार-बार प्रस्तुत करने से सम्बन्धित संरचना की योजना बनाने की विधि है, जिसकी मदद से प्रत्येक विद्यार्थी में एक मापन योग्य व्यवारिक परिवर्तन किया जा सके।”

(3) स्टॉफेल फ्रेड-‌ “ज्ञान की लघु भागों में तार्किक क्रम में व्यवस्थित करने को अभिक्रम तथा इसी ससस्त प्रक्रिया को अभिक्रमित अधिगम कहा जाता है”

(4) एस्पिच- “अभिक्रमिक अनुदेशन अनुभवों का यह व्यवस्थित क्रम है। जो उद्दीपन- प्रतिक्रिया सम्बन्ध के रूप में कुशलता की ओर ले जाता है।

कैम्फर- “अभिक्रमित अनुदेशन वह मुक्ति है जो विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करती है। और उसे ही उत्तर देने के लिए प्रेरित करती है। और यह बताती है कि उसका उत्तर सही है या गलत।

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर सारांश रूप में कहा जा सकता है कि अभिक्रमित अनुदेशन वह नवीन नवाचार है, जिसमें ज्ञान की सम्पूर्ण इकाई को अनेक सूक्ष्म भागों में विभक्त कर विभिन्न साधनों की मदद से छात्र स्वयं अधिगम के लिए प्रेरित होता है और अधिगम करता है।

यह एक नूतन विधि है जो अधिगम के क्षेत्र में प्रयोग की जाती है। इसके द्वारा छात्र अपनी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर सीखते या अधिगम करते हैं। अभिक्रमित अनुदेशन के ऊपर आधारित पाठ्य सामग्री को विभिन्न तत्वों में बाँटकर छोटे-छोटे पदों में के लेते हैं। इन्हीं पदों के सहारे छात्र अपनी अनुक्रियायें शुरू करते है। जिसके जाँच पड़ताल छात्र अपना स्वयं करते है। इसका परिणाम यह होता है कि इस प्रकार की क्रिया करने से छात्र बराबर क्रियाशील बना रहता हैं और अपने ज्ञान की प्राप्ति का पता चलता रहता है।

विभिन्न शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने अभिक्रमित अध्ययन को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया जाता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों की प्रमुख परिभाषा निम्न प्रकार है-

जेम्स ई. एस्पिच तथा विलियम्स ने अपनी पुस्तक ‘डेवलपिंग प्रोग्राम इन्स्ट्रक्सलन मेटीरियल’ में अभिक्रमित अध्ययन को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है-

(B) अभिक्रमित अनुदेशन “अनुभवों का वह नियोजित क्रम है जो उद्दीपक अनुक्रियता, सम्बन्ध के रूप में कुशलता की ओर ले जाता है।

एक अमेरिकी शिक्षा मनोवैज्ञानिक ने अभिक्रमित अध्ययन को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है।

“अभिक्रमित अनुदेशन शिक्षण सामग्री को छोटे-छोटे पदों में व्यवस्थित करने की एक ऐसी प्रक्रिया हैं जिनका निर्माण छात्र को स्वयं अध्ययन के माध्यम से ज्ञात से अज्ञात, नवीन एवं अधिक जटिल ज्ञान तथा “सिद्धान्तों की ओर ले जाता है।”

डॉ. सूसन एम. मार्कले के अनुसार- “अभिक्रमित अधिगम शिक्षण प्रक्रियाओं को पुनः- पुनः प्रस्तुत करने के लिए तारतम्य युक्त संरचना बनाने की एक विधि हैं, जिसकी सहायता से प्रत्येक छात्र में मानवीय व्यावहारिक परिवर्तन किया जा सके।”

कुक डी. एल. के अनुसार- “अभिक्रमित अधिगम, स्वशिक्षण विधियों के व्यापक सम्प्रत्यय को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त एक प्रत्यय है।”

स्टोफल के अनुसार- “ज्ञान के छोटे अंशों को एक तार्किक क्रम में व्यवस्थित करने को ‘अभिक्रम’ तथा इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया को, ‘अभिक्रमित अध्ययन’ कहा जाता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अभिक्रमित अध्ययन सीखने की वह अध्ययन विधि है जिससे शिक्षण सामग्री को क्रमबद्ध ढंग से छोटे-छोटे भागों में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि छात्र जब तक प्रत्येक दिये जाने वाले उत्तेजक के प्रति सही प्रतिक्रिया नहीं कर लेता, वह आगे नहीं जा सकता। इसमें शिक्षण सामग्री का नियोजन इस प्रकार किया जाता है कि छात्र छोटे-छोटे पदों द्वारा वांछित उद्देश्य पर कम से कम त्रुटियाँ करके पहुँच जाता है।

अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएँ

अभिक्रमित अनुदेशन की प्रमुख विशेषताएँ अनलिखित हैं-

  1. अभिक्रमित अनुदेशन एक नवाचार है। जो माध्यम में मदद देती है।
  2. अभिक्रमित अनुदेशन में विषयवस्तु को क्रमिक रूप से छोटे-छोटे भागों में बाँट दिया जाता है, जिसे फ्रेम के नाम से सम्बोधित किया जाता है।
  3. अभिक्रमित अनुदेशन में छात्र स्वछन्द गति से अधिगम करते हैं।
  4. अभिक्रमित अनुदेशन में छात्रों में अभ्यास एवं पुनरावृत्ति करने की आदत का विकास होता है।
  5. अभिक्रमित अनुदेशन में छात्रों को अपनी उपलब्धि का तुरन्त ज्ञान हो जाता है, जिससे उन्हें सीखने में अभिप्रेरणा मिलती है।
  6. अभिक्रमित अनुदेशन में उद्दीपक अनुक्रिया (S-R) के विशेष महत्व दिया जाता है।
  7. अभिक्रमित अनुदेशन स्वानुभाव पर आधारित होता है।
  8. अभिक्रमित अनुदेशन वैयक्तिक होता है।
  9. अभिक्रमित अनुदेशन में छात्रों को आत्म-अभिव्यक्ति एवं सम्प्रत्ययों के स्पष्टीकरण में मदद मिलती है।
  10. अभिक्रमित अनुदेशन में शिक्षक छात्रों की सामस्याओं, कठिनाइयों, रुकावटों के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं।

अभिक्रमित अनुदेशन की आवश्यकता एवं क्षेत्र

अभिक्रमित अनुदेशन द्वारा छात्रों को वैयक्तिक ढंग से अधिगम प्राप्त करने की स्वतंत्रता रहती है। इससे उनमें आत्मनिर्भरता एवं आत्म-अभिव्यक्ति की भावना का अभ्युदय होता है।

वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति कम समय में अच्छा काम एवं अच्छी उपलब्धि अर्जित करना चाहता है। शिक्षण प्राप्त करते समय भी वह यह चाहता है। कि, जो जो कुछ सीख रहा है। चाहता शिक्षण प्राप्त करते समय भी वह यह चाहता है। कि, वह जो सीख रहा है। उसमें सिद्धहस्त एवं प्रवीण हो जाए और समय भी कम लगे। इस आवश्यकता की पूर्ति में अभिक्रमित अनुदेशन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इससे छात्रों की समस्याओं का कम समय में अच्छी तरह निदान भी हो जाता है। और वे कम समय में विषय-वस्तु या गहनता से अधिगम करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं।

छात्रों में स्वाध्याय की भावना का विकास करना वर्तमान समय में आवश्यक माना जा रहा है, क्योंकि छात्रों में नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस पर अंकुश लगाने के लिए अनेक प्रयास भी किये जा रहे हैं किन्तु सफलता नहीं मिल पा रही है। इसमें भी अभिक्रमित अनुदेशन बहुत सहायक भूमिका निभाता है। इससे छात्रों में स्वाध्याय करने की आदत का विकास होता है। नकल करने की कोई गुंजाइश भी नहीं रहती, छात्र स्वयं अभिप्रेरित होकर सीखने की ओर अग्रमर होते हैं।

अस्तु अभिक्रमित अनुदेशन विविध शैक्षित समस्याओं के समाधान में बहुत ही सहायक है। कोठारी आयोग ने अपने प्रतिवेदन में अभिक्रमित अनुदेशन की महत्ता के करण अन्य विषयों में भी अभिक्रमित सामग्री तैयार करने की वकालत की है। वर्तमान समय में अभिक्रमित अनुदेशन का क्षेत्र बहुत व्यापक एवं विस्तृत होता चला जा रहा है। इसके प्रमुख क्षेत्र निम्नवत् है।

(1) व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों में।

(2) प्रतिरक्षा एवं सैन्याबलों में।

(3) अध्यापकों को शैक्षिक सिखाने में।

(4) प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा प्रदान करने में।

(5) जनसंचार माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा प्रदान करने में।

(6) औपचारिक, अनौपचारिक एवं औपचारिक शैक्षिक अभिकरणों में।

(7) प्रतिभाशाली, मंदितमना, विकलांग बालकों के अधिगम में।

(8) पत्राचार शिक्षा, खुली शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा।

अभिक्रमित अनुदेशन के मुख्य सिद्धान्त

(Fundamental Principles of Programmed Instruction)

अमिक्रमित अनुदेशन के जनक वी. एफ. स्किनर ने अपने अध्ययनों के आधार पर अग्रांकित पाँच सिद्धान्त दिये।

(A) लघु पद सिद्धान्त (Principles of small steps) – इसके अन्तर्गत पूरे विषय वस्तु का विश्लेषण कर उसे छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है। जिसे बारी-बारी से छात्रों. के सामने प्रस्तुत किया जाता है इससे छात्र आसानी से विषयस्तु को सीख लेते हैं और अभिप्रेरित भी होते हैं।

(B) पृष्ठ पोषण का सिद्धान्त (Principles of Immediate Conformation and feed back) – इसके अन्तर्गत सीखने वाले व्यक्ति को उसकी उपलब्धि का पता चलता है, जिससे इसमें परीक्षण भी होता रहता है। अधिगमकर्ता को उसकी उपलब्धि की जानकारी मिल जाने पर उसे पृष्ठभूमि की प्राप्ति होती है, जिससे वे रोचकता के साथ अधिगम करने में तलीन रहते है।

(C) सक्रिय प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Principle of Active response)- इस सिद्धान्त में इस बात को-अत्याधिक महत्व दिया जाता है कि अधिगम करते समय अधिगमकर्ता निष्क्रिय न रहे, वरन् वह सक्रिय रहकर विषवस्तु के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भी देता रहे।

(D) स्व-गति सिद्धान्त (Principle of Self-Pacing)- इस सिद्धान्त में अधिगमर्ता को स्वयं प्रयास करके अपनी गति एवं सामर्थ्य के अनुसार सीखने का पूरा अवसर प्रदान अवसर प्रदान किया जाता है। अर्थात् छात्रों की वैयक्तिक क्षमता को ध्यान में रखकर सीखने की ओर उन्मुख किया जाता है।

(E) अधिगमकर्ता परीक्षण सिद्धान्त (Principles of Learning Testing) – इस आखिरी सिद्धान्त में अधिगमकर्ता स्वयं अपने द्वारा अर्जित ज्ञान, अनुभव कौशल का मूल्यांकन करता हैं, जिससे वह स्वयं अपनी परिसीमाओं, त्रुटियों की जानकारी प्राप्त करके अपनी सीखने की परिस्थिति एंव दशा में सुधार करता है और सीखने की ओर द्रुतगति से बढ़ता रहता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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