‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण | पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण | लहनासिंह का चरित्र-चित्रण
‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण | पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण | लहनासिंह का चरित्र-चित्रण
‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा था’ पवित्र, वासना रहित, निर्मल और सच्चे प्रेम पर आधारित है। गुलेरी जी ने इस कहानी में जिस प्रेम को प्रस्तुत किया है, वह आदर्श प्रेम है। इस आदर्श प्रेम को प्रस्तुत करने वाला और इसका निर्वाह करने वाला इसका प्रमुख पात्र लहनासिंह है। लहनासिंह के चरित्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) साहसी-
लहना सिंह बचपन से ही साहसी है। जब वह बारह वर्ष का था और अपने मामा के यहाँ अमृतसर के गुरु बाजार में रहता था, तब दूसरे-तीसरे दिन उसे एक लड़की मिल जाती थी जो मामा के यहाँ आयी थी। उसके मामा अतरसिंह की बैठक में रहते थे। लड़की को बालक लहनासिंह तेरी कुदमाई अर्थात् मंगनी हो गई, कहकर छेड़ा करता था। लड़की धत् कहकर भाग जाती थी। एक दिन ताँगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिदक गया था। लहना स्वयं घोड़े की लातों में चला गया था और लड़की को उठाकर तख्ते पर खड़ा कर दिया था।
लहनासिंह जब फौज में जमादार बनकर प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन सेना के विरूद्ध लड़ रहा था तो एक जर्मन गुप्तचर ने लहना के सूबेदार और समर्थकों को धोखा करके खाई के बाहर भेज दिया। लहना सिंह समेत आठ जवान खाई में रह गये। तभी सत्तर जर्मन सैनिकों ने खाई पर धावा बोल दिया। लहनासिंह की जांघ में घाव था। उसके साथी लेटकर लड़ रहे थे, पर लहनासिंह खड़ा था और ताक ताक कर जर्मन सैनिकों को मार रहा था।
(2) कष्ट सहने की क्षमता-
लहनासिंह में कष्ट सहने की विशेष क्षमता है। लड़की को घोड़े की टापों से बचाने के लिए वह घोड़े के पैरों में चला जाता है और लड़की को उठाकर तख्ते पर खड़ा कर देता है। उस समय लहनासिंह बारह वर्ष का था। लहना जब सिख राइफल्स में जमादार हो गया तो जर्मन गुप्तचर ने अपने पिस्तौल से उसकी जांघ में गोली मार दी। लहनासिंह ने जर्मन गुप्तचर को मार दिया और घाव पर कस कर पट्टी बाँध ली। इसके बाद वह जर्मन सैनिकों से लड़ता रहा। उसकी पसली में गोली लगी, जिसे उसने खाई की गीली मिट्टी से भर लिया। वह शरीर पर दो घाव खाकर भी खड़ा रहा और अपने सूबेदार से बात करता रहा।
(3) प्रत्युत्पन्न मति-
कब क्या करना चाहिए, इसे समझने में लहना बहुत चतुर है। वह अपने. कर्तव्य का तुरन्त निश्चय कर लेता है। जर्मन जासूस लहनासिंह की रेजीमेण्ट का लेफ्टिनेन्ट अर्थात् लपटन बनकर आया और सूबेदार को आज्ञा देकर अधिकांश सैनिकों सहित खाई से बाहर भेज दिया। लहनासिंह सिगड़ी के सहारे ठंड दूर कर रहा था और खाई के सिरे पर तैनात था। जर्मन गुप्तचर ने लहना की ओर से मुंह फेरकर उसे पीने को सिगरेट दी और कहा- ‘लो तुम भी पियो।’ लहनासिंह समझ गया कि यह हमारे लपटन साहब नहीं जर्मन गुप्तचर हैं। लहना का लपटन जानता था कि सिख सिगरेट नहीं पीते। सिगड़ी के उजाले में लहना ने देख लिया कि साहब के सिर पर बाल नहीं हैं। उसके लपटन साहब तो बड़े-बड़े बाल रखते थे। लहनासिंह ने सोचा हि हो सकता है कि लपटन साहब को बाल कटाने का अवसर मिल गया हो। शराब के नशे में वे भूल गये हैं कि सिख सिगरेट नहीं पीते। लहनासिंह ने लपटन साहब की वास्तविकता जाँचने का उपाय तुरन्त सोच लिया।
अपने मुंह का भाव छिपाकर लहना ने लपटन साहब से कहा-
“क्यों साहब ! हम लोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?”
“लड़ाई खत्म होने पर । क्यों क्या यह देश पसन्द नहीं?”
“नहीं साहब! शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई की पीछे हम- आप जगाधरी जिले में शिकार खेलने गये थे।” “हाँ-हाँ-“
“वही जब आप खोते पर सवार थे और आपका सानसामा भन्दुल्ला रास्ते में एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था।”
“बेशक, पाजी कहीं का”
“सामने से वह नीलगाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी और आपकी एक गोली उसके कंधे में लगी और पुढे से निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा आता है। क्यों साहब! शिमले से तैयार होकर नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि उस रेजिमेण्ट की मेस में लगायेंगे।”
“हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया।”
“ऐसे बड़े-बड़े सींग। दो दो फुट के तो होंगे?”
“हाँ, लहनासिंह! दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया।”
“पीता हूँ साहब दियासलाई ले आता हूँ।”
लहनासिंह ने जो भी बातें कहीं थीं, वे सभी असत्य थीं। लहनासिंह ने ये बातें निश्चय करने के लिए कही थीं कि यह आदमी उनका लेफ्टिनेण्ट है या जर्मन गुप्तचर। साहब की वास्तविकता जानकर और उनके सिर पर अपनी राइफल के कुन्दे से वार करके उन्हें बेहोश करके लहना ने अपने साहस का परिचय दिया। जब साहब की मूर्छा जागी तो उसने उन्हें चिढ़ाने के लिए अपनी बातों का आशय स्पष्ट किया-
“क्यों साहब! मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं- यह सीखा कि सिक्ख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगाय होती है और उसके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये। हमारे लपटन साहब तो बिना ‘डैम’ के पाँच मिनट भी नहीं बोल सकते थे।”
(4) कर्त्तव्य निश्चय करने में बिलम्ब नहीं-
यह जानने के बाद कि यह आदमी उनका लेफ्टिनेण्ट नहीं, जर्मन गुप्तचर है, लहनासिंह को अपना कर्तव्य निश्चित करते देर नहीं लगी। उसने समझ लिया कि सूबेदार साहब पर खुले में आक्रमण होगा और हम सब यहाँ मारे जायेंगे। वह दियासलाई लेने के बहाने खाई के भीतर गया। उसने वजीरा सिंह से कहा- “लपटन साहब या तो मारे गये या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहनकर कोई जर्मन आया है। सूबेदार इसका मुँह नहीं दिखा। मैंने देखा और बातें की हैं। सोहरा साफ उर्दू बोलता है पर किताबी उर्दू और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।
वजीरासिंह ने कहा “तो अब ?”
लहनासिंह ने उत्तर दिया- “अब मारे गये। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहना कि एक दम लौट आवें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ। खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।”
(5) अपना महत्व समझने वाला –
लहनासिंह अपना महत्व समझता है। उसने जब वजीरा सिंह को खन्दक से निकल जाने को कहा तो सैनिक होने के नाते आज्ञा पालन का संकेत करते हुए वजीरासिंह ने शंका की- “हुकुम तो यह है कि कहीं ………”
लहनासिंह ने क्रोध भरकर कहा- “ऐसी-तैसी हुकुम की। मेरा हुकुम जमादार लहनासिंह, जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है-उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूं।”
वजीरा सिंह का समाधान अभी नहीं हुआ था। वह शंका करने लगा “पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।”
लहनासिंह अपने सिख सिपाही होने का भाव प्रदर्शित करते हुए कहा-“आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिक्ख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।”
(6) सच्चा प्रेम-
लहना सिंह के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसका सच्चा प्रेम है। अमृतसर में जब सूबेदारनी से लहनासिंह की भेंट हुई, तब उसकी अवस्था बारह वर्ष की रही होगी। लहना भी इतने ही वर्ष का था। इतने छोटे बच्चे वासना से अपरिचित होते हैं। यदि परिचित होते, तब भी उन्हें शारीरिक सम्पर्क का अवसर कहाँ था। दोनों बाजार में मिलते थे, और सौदा लेकर कुछ दूर साथ-साथ चलते थे। लड़की लहना को अच्छी लगती थी। वह हंसी में लड़की को चिढ़ाने के लिए पूछता था- “तेरी कुड़माई हो गई ? लड़की ‘धत्’ कहकर भाग जाती थी।
एक दिन लहना की आशा के विपरीत उसने कहा – “हाँ, हो गई।”
लहना ने पूछा – “कब?”
लड़की ने उत्तर दिया – “कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।’
लहना या तो लड़की से प्रेम करता था या उसे लड़की अच्छी लगती थी। उसके मन में एक क्षीण आशा थी कि यह मेरी हो सकती है। जब उसे पता चला कि लड़की की कुड़माई हो गयी अर्थात् शादी पक्की हो गयी तो वह आशा टूट गयी, सम्भावना समाप्त हो गयी। इसके बाद लहना ने जो गतिविधि की, वह इस बात का प्रमाण है कि लहना को लड़की की सगाई होना बुरी लगी। उसकी गतिविधि इस प्रकार हुई।
“रास्ते में एक लड़के को मोरी में धकेल दिया। एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई। एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने से नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुंचा।”
लहनासिंह सूबेदारनी के बीमार पुत्र बोधा सिंह के बदले पहरा देता रहा। अपना कम्बल उसे उढ़ा दिया और अपने ऊनी कपड़े उसे देकर स्वयं सिगड़ी के सहारे ठंड से लड़ता रहा। बुरी तरह घायल होकर हनासिंह अपने सूबेदार से बातें करता रहा। उन्हें अपनी कसम देकर बोधा के साथ गाड़ी पर चढ़ाया, पर स्वयं वहीं रह गया। उसने सूबेदार पर कोई अहसान प्रदर्शित न करके केवल इतना कहा कि सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिख देना और जाओ तो कह देना कि उसने जो कहा था वह मैंने कर दिया।
इस प्रकार लहनासिंह के चरित्र में अनेक दुर्लभ गुण हैं।
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