वणिकवाद से आशय | वणिकवाद को जन्म देने वाले कारक | वणिकवाद के पतन के कारण

वणिकवाद से आशय | वणिकवाद को जन्म देने वाले कारक | वणिकवाद के पतन के कारण

वणिकवाद से आशय

(Meaning of Mercantilism)

वणिकवाद तीन शताब्दियों की प्रचलित विचारधारा का मिश्रण है। अत: हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि वणिकवाद आर्थिक विचारों की मध्ययुगीन विचारधारा और आधुनिक विचारधारा‌ के बीच की वह विचारधारा है जो इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी में सोलहवीं, सत्रहवीं तथा अठारहवीं शताब्दियों में विद्यमान रही।

प्रो० हैने के कथनानुसार, “व्यापारवाद से आशय उस आर्थिक विचारधारा का है जो कि 16वीं शताब्दी से लेकर 18 वीं शताब्दी के मध्य तक यूरोपियन राजनीतिज्ञों के बीच प्रचलित रही।”

इस विचारधारा का प्रवर्तक कोई एक व्यक्ति न होकर देश के शासन एवं व्यावसायिक तन्त्र से सम्बन्धित अनेक लोग थे। यही कारण है कि वणिकवाद को कई नामों से जाना जाता रहा है, जैसे-फ्रांस में इसे काल्बर्टवाद (Cohertism); जर्मनी में कॅमरलिज्म (Kameralism) नाम से जाना जाता था।

साधारण रूप में वणिकवाद की धारणा का प्रयोग राष्ट्रवाद को जन्म देने एवं प्रोत्साहन देने की नीति के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। वणिकवाद का उस नीति से कोई सम्बन्ध नहीं था जो राष्ट्र अथवा देश के विरुद्ध थी। वणिकवादियों ने अधिकाधिक निर्णत तथा कम-से-कम आयात पर जोर डालने का प्रमुख कारण देश की शक्तिशाली बनाना मात्र था। एस नहीं था कि संरक्षणवाद और अनुकूल व्यापार शेष की नीति केवल वणिकवादियों तक ही सीमित रहा हो। एडम स्मिथ जो वणिकवाद के कटु आलोचक थे, ने भी इसी नीति के आधार पर स्वतन्त्र व्यापार की नीति का प्रतिपादन किया।

वणिकवाद को जन्म देने वाले कारक

(Factors that Gave Rise to Mercantilism)

वणिकवाद को भली प्रकार समझने के लिए यह आवश्यक है कि उन कारणों को समझ लिया जाये जो वणिकवादी नीतियों के उद्गम के लिए उत्तरदायी थे। प्रो० हेने ने वणिकवाद को जन्म देने वाले कारणों को दो वर्गों में विभाजित किया है।

(क) अभौतिक कारण

(1) सुधारवाद (Reformation)—पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में धार्मिक सुधारवाद का प्रारम्भ हुआ जो आगे चलकर वणिकवादी नीतियों के प्रसार में अप्रत्यक्ष रूप से सहायक हुआ। प्रोटेस्टेन्ट धर्म की स्थापना के साथ रोमन कैथोलिक चर्च का कड़ा विरोध हुआ तथा पोप की शक्ति में ह्रास हुआ। सुधारवाद के नेताओं की वाणिज्य और उद्योग में रुचि तथा सहानुभूति थी, क्योंकि वे इस राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए आवश्यक समझते थे। सुधारवादी नेताओं ने व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित करते हुए मनुष्य के लिए मुद्रा-प्राप्ति की क्रियाओं को उचित ठहराया। सुधारवादियों के विचार का लोगों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उन्होंने सोना, चाँदी, व्यापार, लाभ व ब्याज के महत्व को समझा। इस प्रकार प्रोटेस्टेन्ट सुधारवादियों ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को बढ़ावा देकर शक्तिशाली राज्य के निर्माण पर जोर दिया।

(2) पुनर्जागरण (Renaissance)-मध्ययुगीन परिस्थितियों की प्रतिक्रिया स्वरूप पुनर्जागरण तथा मानववाद आन्दोलनों का जन्म हुआ। इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप रूढ़िवादिता तथा पुरातन अन्धविश्वासों की समाप्ति हुई तथा मानव कल्याण का नवीन मार्ग प्रशस्त हुआ। इन आन्दोलनों के समर्थकों ने इस बात पर जोर दिया कि स्वर्ग और नरक यहीं है। इसलिए पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों के कल्याण पर ही अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। मनुष्य को अपना सांस्कृतिक विकास स्वयं करना चाहिए। इस आन्दोलन के प्रणेताओं का यह भी विचार था कि मानव कल्याण के लिए राष्ट्रों की प्रगति तथा शक्तिशाली राष्ट्र आवश्यक तत्व है,

मध्ययुग में यूरोप में हुए धार्मिक सुधारवादों, पुनर्जागरण और मानवतावादी आन्दोलनों के परिणामस्वरूप व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का प्रसार हुआ तथा शक्तिशाली राज्यों की स्थापना हुई। आपस में एक-दूसरे से अधिकाधिक शक्तिशाली होने की भावना से प्रतिस्पर्धा तथा वैमनस्यता ने जन्म लिया। धन एवं भौतिक सुख को अधिकाधिक महत्व दिया गया । राष्ट्रों ने शक्ति का आधार ‘धन’| को माना तथा अधिकाधिक धन प्राप्त करने के लिए वणिकवादी विचारों को आधार माना गया।

(ख) भौतिक कारण

(1) नये-नये देशों एवं मार्गों की खोज- इस काल में यूरोप के साहसी नाविकों ने नये- नये देशों एवं समुद्री मार्गों की खोज की। कोल बस ने अमेरिका तथा वास्कोडिगामा ने भारतीय उप महाद्वीप की खोज करके यूरोपीय व्यापारियों के लिए नये बाजार खोले। इन नये-नये देशों की जानकारी प्राप्त हो जाने पर व्यापार की सीमाएँ चारों ओर विस्तृत क्षेत्रों में फैल गौं तथा व्यापारियों को नवीन आर्थिक अवसर प्राप्त हुए।

(2) सामन्तवादी अर्थव्यवस्था का अन्त- पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में सामन्तवादी अर्थव्यवस्था का पराभव प्रारम्भ हो गया था। सामन्तवादी अर्थव्यवस्था में अधिकांश राज्यों का यह प्रयास रहता था कि वे आत्मनिर्भर हों। यही कारण था कि इस युग में विदेशी व्यापार अत्यधिक कम होता था। कृषि पर बड़े-बड़े भूस्वामियों का एकाधिपत्य था तथा सामान्य नागरिक दासों के रूप में जीवन व्यतीत करते थे। धार्मिक सुधारवादी आन्दोलन के साथ व्यक्तिवाद का प्रसार हुआ, लोगों में जागरूकता आयी और सामन्तवादी युग का अन्त हो गया। इस व्यवस्था के अन्त के साथ ही वणिकवादी नीतियों को प्रोत्साहन मिला और लोग व्यापारिक क्रियाओं की ओर आकर्षित हुए।

(3) जनसंख्या में वृद्धि- जनसंख्या में होती गयी लगातार वृद्धि के परिणामस्वरूप रोजगार के अवसर कम होते गये। कृषि कार्यों में सभी लोगों को रोजगार मिलना असम्भव हो गया। परिणामस्वरूप अधिकाधिक लोग वणिकवादी कार्यों की ओर आकर्षित होते गये।

(4) मौद्रिक क्रियाओं में वृद्धि- वस्तु विनिमय का स्थान वस्तु मुद्रा वस्तु विनिमय ने ले लिया। मुद्रा के रूप में बहुमूल्य धातुओं का प्रयोग किया जाने लगा। कीमत निर्धारण सुगम हो जाने के परिणामस्वरूप विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला, साथ ही लोग अधिकाधिक आय प्राप्त करने का प्रयास करने लगे, क्योंकि अब वे अतिरिक्त आय का संचय कर सकते थे।

(5) प्रतिस्पर्धा का उदय- सामन्तवादी व्यवस्था समाप्त हो जाने पर कृषि, उद्योग तथा व्यापार के क्षेत्र में अन्य ऐसे बहुत से लोगों ने पदार्पण किया जो कि इससे पूर्व सामन्तशाही व्यवस्था के अन्तर्गत शोषण का शिकार हो रहे थे। इन क्षेत्रों में अधिकाधिक लोगों के आ जाने के परिणामस्वरूप प्रतिस्पर्धा का उदय हुआ जो वणिकवादी नीतियों के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ।

(6) राजनीतिक कारण- मध्ययुग में तेजी से हुए राजनीतिक परिवर्तनों ने भी वणिकवादी नीतियों के प्रसार में योगदान दिया। वणिकवादी नीतियों का अन्तिम उद्देश्य शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करना था। इसी नीति का अनुसरण करते हुए इंग्लैण्ड में हेनरी सप्तम (1485 ई०) तथा फ्रांस में लुई ग्यारहवें ने दो शक्तिशाली राज्यों की स्थापना की। इन्हीं राज्यों का अनुसरण करते हुए पुर्तगाल, स्पेन, हालैण्ड, स्वीडन तथा रूस में शक्तिशाली राज्य स्थापित हुए। राज्यों के भौगोलिक क्षेत्रों में वृद्धि हो जाने के परिणामस्वरूप वस्तुओं की मांग में अत्यधिक वृद्धि हो गयी। प्रत्येक देश के लिए सभी वस्तुओं का आवश्यक मात्रा में उत्पादन करना असम्भव हो गया। इसी के परिणामस्वरूप विदेशी व्यापार पनपा तथा उद्योगों की स्थापना हुई। राज्यों ने एक ओर तो अपने उद्योग-धन्धों को संरक्षण प्रदान कर उन्हें विकसित होने का पूरा अवसर दिया तथा दूसरी ओर अधिकाधिक निर्यात के द्वारा विदेशों से सोना-चाँदी एकत्र किया।

इस प्रकार से वणिकवाद के लिए कोई एक कारण उत्तरदायी नहीं था, अपितु अनेक कारण उत्तरदायी थे।

वणिकवाद के पतन के कारण

(Causes Leading to Decline of Mercantilism)

वणिकवादी विचार और नीतियाँ यूरोप के विभिन्न देशों में लगभग तीन शताब्दियों तक प्रचलित रहीं। इनमें कुछ ऐसी दुर्बलतायें थीं, जिनके कारण इनकी आलोचना की गयी। आलोचनाओं का सिलसिला 17 वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में ही शुरू हो गया था। कुछ उदार वणिकवादी लेखकों ने पहले विरोध शुरू किया। इंग्लैण्ड में विलियम पैटी, लॉक, डडले नॉर्थ ऐसे लेखकों में प्रमुख थे। पैटी ने व्यापार की स्वतन्त्रता का समर्थन किया और मुद्रा और कीमत सम्बन्धी वणिकवादी दर्शन का खण्डन किया। लॉक ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन किया और वणिकवाद की बुनियादी मान्यताओं का खण्डन किया। नॉर्थ ने बताया कि केवल सोना और चाँदी धन नहीं है। उसने घरेलू व्यापार, कृषि एवं उद्योग को प्रमुख महत्व दिया। वह कुछ विशेष वर्गों को विशेषाधिकार देने का विरोधी था।

आलोचना की प्रखरता फ्रांस में अधिक थी, क्योंकि वहाँ वणिकवादी नीतियों के फलस्वरूप कृषि की दशा बिगड़ गयी थी, ऊँचे कमर तोड़ कर’ लगे हुए थे और दरबार प्रपंचों में फंस गया था। पियरे बाइसगिलीबर्ट ने आवाज उठाई कि फ्रांस का कल्याण कृषि के पुनरुत्थान में सन्निहित है।

18 वीं शताब्दी में निर्बाधावादी आलोचक हुए, जिन्होंने वणिकवाद के महल को ध्वंस करके अपना नया महल खड़ा किया और सर्वथा नये सिद्धान्त प्रस्तुत किये। आलोचनाओं की पराकाष्ठा 13 वीं शताब्दी के अन्त में हुई, जबकि एडम स्थिम की पुस्तक ‘वेल्थ आफॅ नेशन्स’ प्रकाशित हुई। वणिकवाद पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

(1) सोने व चाँदी को अन्य वस्तुओं की तुलना में अत्यधिक महत्व देना- वणिकवाद की सबसे बड़ी दुर्बलता (जिसके लिए उसकी कटु आलोचना हुई) सोने व चाँदी को अत्यधिक महत्व देना था। वणिकवादी इन्हें ‘धन’ समझते थे जबकि ‘धन’ तो वह वस्तुएँ होती हैं, जिन्हें सोने व चाँदी से खरीदा जाता है, ताकि आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। इस प्रकार वणिकवादियों की धन के विषय में गलत धारणा थी। वे ‘साध्य’ और ‘साधन’ में भेद नहीं कर सके। इस गलत धारणा के कारण ही उन्होंने स्वर्ण और चाँदी की प्राप्ति को सरकार की नीति का अन्तिम उद्देश्य मान लिया। उन्होंने बहुमूल्य धातुओं को इस प्रकार समझा जैसे कि इसमें कोई जादुई शक्ति हो, जिसके कारण वह राष्ट्रीय नीति का एकमात्र वांछनीय उद्देश्य बन जाती है।

(2) व्यापार को अत्यधिक महत्व देना एवं कृषि और मानवीय उद्योग की अन्य शाखाओं की उपेक्षा करना- वणिकवादियों ने देश के धन को बढ़ाने के लिए व्यापार को सबसे ऊँचा स्थान दिया और उद्योग व कृषि को गौण स्थान । व्यापार के महत्व का इस प्रकार का अति अनुमान अन्यायपूर्ण है, क्योंकि देश के आर्थिक जीवन में कृषि और अन्य मानवीय उद्योगों को एक निश्चित स्थान है। ये भी देश के धन में वृद्धि करते हैं। अत: इन्हें ‘अनुत्पादक’ नहीं कहा जा सकता। यथार्थ में वणिकवादियों ने धन को गलत समझा था, अत: एक गलत विचार पर आधारित व्यावसीयक वर्गीकरण भी गलत हुआ, तो क्या आश्चर्य? वणिकवादियों ने अपने वर्गीकरण में व्यापार को प्रथम और कृषि को अन्तिम स्थान दिया। उनकी अनेक गलत नीतियों के लिए कृषि की उपेक्षा ही दायी है।

(3) व्यापार सन्तुलन का भ्रामक एवं अवैज्ञानिक विचार- वणिकवादियों ने व्यापार सन्तुलन की अनुकूलता को बहुत महत्व दिया। उनकी यह धारणा अवैज्ञानिक है, क्योंकि वास्तविक महत्व भुगतान सन्तुलन की अनुकूलता का होना है। व्यापार सन्तुलन तो भुगतान सन्तुलन का एक अंग मात्र है। वणिकवादियों को भुगतान सन्तुलन का ज्ञान नहीं था। इसके अतिरिक्त, उनकी व्यापार सन्तुलन सम्बन्धी धारणा भ्रामक भी है, क्योंकि जब सभी देश व्यापार सन्तुलन की अनुकूलता पर जोर देंगे और इसकी प्राप्ति के लिए आयात पर प्रतिबन्ध लगायेंगे तो फिर निर्यात कौन लेगा?

(4) अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप की नीति– वणिकवादियों ने आर्थिक जीवन में सरकार के बहुत अधिक हस्तक्षेप का समर्थन किया। घरेलू बाजार के संरक्षण, निर्यात प्रोत्साहन और उद्योगों के विस्तार में वह सरकार का हस्तक्षेप पसन्द करते थे। स्पष्टतः ऐसे हस्तक्षेप के फलस्वरूप दैनिक जीवन में लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत सीमित हो जायेगी और हुई भी। पुनः सरकार का स्वभाव आर्थिक क्रियाओं के संचालन के उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि नौकरशाही धीरे-धीरे कार्य करती है और सरकार में आर्थिक क्रियाओं को संभालने के लिए योग्य व्यक्तियों का भी अभाव होता है।

(5) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के स्वभाव से अनभिज्ञता- वणिकवादी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के स्वभाव को सही रूप से नहीं समझते थे। इसी कारण उनका यह विचार बना कि निर्यातकर्ता देश को विदेशी व्यापार से लाभ पहुंचता है। वास्तविकता यह है कि विदेशी व्यापार से निर्यातक और आयातक दोनों ही देश लाभ उठाते हैं और यह आवश्यक नहीं है कि इस प्रकार के व्यापार से एक देश दूसरे देश को हानि पहुँचा कर ही लाभान्वित हो। जो देश वस्तु का निर्यात करता है उनके लिए वस्तु को उपयोगिता कम होती है और सोने-चाँदी की उपयोगिता अधिक। दूसरी ओर, आयात करने वाले देश के लिए वस्तु की उपयोगिता अधिक और सोना-चाँदी की उपयोगिता कम होती है। इस प्रकार निर्यातकर्ता और आयातकर्ता दोनों ही देश उपयोगिता का लाभ उठाते हैं।

(6) मूल्य एवं उपयोगिता सम्बन्धी विचार अस्पष्ट एवं त्रुटिपूर्ण- मूल्य को वणिकवादियों ने दो भागों में बाँटा किन्तु उनका अन्तर स्पष्ट नहीं कर सके । इस सम्बन्ध में हैने (Haney) ने लिखा है-“परिणामस्वरूप वे मूल्य और उपयोगिता में अन्तर नहीं कर सके और उसके अभाव में प्रगति रुक गयी। अधिकांश प्रमुख लेखकों ने मूल्य के लागत सिद्धान्त का, जिसमें श्रम तत्व की प्रधानता है, समर्थन किया।”

(7) पूँजी एवं ब्याज सम्बन्धी अपूर्ण विचार- वणिकवादियों ने उत्पत्ति के दो साधनों को मान्यता दी-भूमि एवं श्रम। पूँजी की गणना नहीं की गयी, जबकि आज हम जानते हैं कि यह उत्पत्ति का एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण साधन है। ब्याज के सम्बन्ध में विभिन्न वणिकवादियों के विचार विभिन्न हैं। अधिकांश लेखकों ने पूँजी की उत्पादकता और ब्याज में भेद नहीं किया था।

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