वित्तीय प्रबंधन / Financial Management

वित्त कार्य का अर्थ | वित्त कार्य के विषय में प्रचलित विभिन्न अवधारणा | वित्त कार्य की परम्परागत अवधारणा | वित्त कार्य की आधुनिक अवधारणा

वित्त कार्य का अर्थ | वित्त कार्य के विषय में प्रचलित विभिन्न अवधारणा | वित्त कार्य की परम्परागत अवधारणा | वित्त कार्य की आधुनिक अवधारणा | Meaning of finance in Hindi | function Various concepts prevalent in the subject of finance work in Hindi | Traditional concept of finance function in Hindi | Modern Concept of Finance Function in Hindi

वित्त कार्य का अर्थ

(Meaning of Finance Function)

वित्त कार्य की विभिन्न अवधारणाओं के विश्लेषण की दृष्टि से, वित्त कार्य की परिभाषाओं को निम्नलिखित तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(i) प्रथम वर्ग में उन सभी के विचारों को सम्मिलित किया जाता है, जो कोषों की उपलब्धि पर बल देते हैं। इस विचारधारा के अनुसार, “व्यवसाय के लिये अनुकूल शर्तों पर आवश्यक कोषों की व्यवस्था करना ही वित्त कार्य कहलाता है।” एफ० डब्ल्यू0 पेश के शब्दों में, “आधुनिक मुद्रा प्रयोक्ता अर्थव्यवस्था में वित्त कार्य का आशय आवश्यकता के समय मुद्रा उपलब्ध कराना है।” यद्यपि यह परिभाषा वित्त के एक प्रमुख कार्य आवश्यकता कोषो की व्यवस्था करने पर प्रकाश डालती है, किन्तु वित्त कार्य के अन्य पहलू पर ध्यान नहीं देती जो कि अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

(ii) दूसरी विचारधारा के अनुसार, “वित्त कार्य रोकड़ से सम्बन्धित है।” यह इतनी व्यापक परिभाषा है कि जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता, क्योंकि लगभग सभी व्यावसायिक सौदों को मुद्रा में ही व्यक्त किया जाता है, इसलिए व्यवसाय की प्रत्येक क्रिया वित्तीय प्रबन्ध से सम्बद्ध होती है। इस परिभाषा के अनुसार व्यापार की प्रत्येक क्रिया की जानकारी वित्तीय प्रबन्धक को होना आवश्यक है; भले ही वह क्रय, उत्पादन, विपणन, सेविवर्गीय प्रशासन या अनुसंधान एवं अन्य कार्यों से सम्बन्धित ही क्यों न हो। अतः यह विचारधारा भी असन्तोषजनक है।

(iii) तीसरी विचारधारा के अनुसार, “वित्त कार्य से आशय, उपलब्धि तथा उनके विवेकपूर्ण प्रयोग करने से है।” अतः इस परिभाषा के अनुसार वित्त कार्य कोषों की उपलब्धि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कोषों का अनुकूलतम उपयोग करने के लिये वित्तीय प्रबन्धक को अनेक निर्णय लेने होते हैं, जैसे- विनियोग सम्बन्धी निर्णय, वित्तीय नियन्त्रण सम्बन्धी निर्णय, लाभांश सम्बन्धी निर्णय आदि। अतः आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्त का उच्च-स्तर पर नीति- निर्धारण को वित्त कार्य की ‘प्रबन्धकीय विचारधारा’ भी कहते हैं। यह एक सन्तुलित विचारधारा भी है, क्योंकि यह वित्त के ‘उपलब्धि एवं उपयोग’ दोनों पहलुओं को समान महत्व देती है।

(1) वित्त कार्य की परम्परागत अवधारणा

(Traditional Concept of Finance Function)

वित्त कार्य की परम्परागत अवधारणा के अन्तर्गत वित्त प्राप्ति की व्यवस्था तथा उससे सम्बद्ध समस्त कार्यों को सम्मिलित किया जाता रहा है। इस विचारधारा के अनुसार, “वित्त कार्य का क्षेत्र किसी संस्था में प्रयुक्त कोषों को एकत्रित करने और उनका प्रशासन करने तक ही सीमित है।” वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा की ध्यान देने योग्य मान्यता यह है कि संस्था के कोषों का निविधान (Allocation) करने में वित्तीय प्रबन्धक का कोई सम्बन्ध नहीं है। उसे केवल विभिन्न स्रोतों से आवश्यक कोषों को एकत्रित करना ही आवश्यक है। संक्षेप में वित्त कार्य की परम्परागत अवधारणा की आधारभूत विषय-वस्तु का सारांश निम्नलिखित है, जो कि उसकी सीमाओं या दोष से भी अवगत कराता है-

(i) परम्परागत अवधारणा में कोषों को एकत्रित करने पर अधिक बल दिया गया है। वित्त के विषय को विनियोक्ताओं के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है और वित्तीय निर्णायकों के दृष्टिकोण को कोई महत्व नहीं दिया है। अतः वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा बहुत संकीर्ण है।

(ii) वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा एकपक्षीय (Episodic) एवं अनावर्ती (Non recurring) समस्याओं; जैसे- प्रवर्तन (Incorporation), संविलयन (Consolidation), पुनर्गठन (Reorganisation), पुनर्पूजीकरण (Recapitalisation), समापन (Liquidation) आदि पर अनुचित बल देती है तथा कार्यशील संस्थाओं की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं पर बहुत ही कम ध्यान देती है।

(iii) वित्त कार्य की परम्परागत अवधारणा दीर्घकालीन वित्तीय समस्याओं पर अपेक्षाकृत अधिक बल देती है तथा कार्यशील पूंजी के महत्व पर कोई प्रकाश नही डालती, जबकि वास्तविकता यह है कि कार्यशील पूँजी के प्रबन्ध की समस्या एक अत्यधिक महत्वपूर्ण समस्या है।

(iv) परम्परागत अवधारणा का ध्यानाकर्षण केवल निगमों की वित्तीय समस्याओं पर ही केन्द्रित रहा है, जबकि असमामेलित संगठनों, जैसे- एकल व्यापार संस्थाओं (Sole Trading Concerns) एवं साझेदारी फर्मों की वित्तीय समस्याओं को पूर्णतया अदृष्टिगोचर कर दिया है।

(2) वित्त कार्य की आधुनिक अवधारणा ( Modern concept of Finance Function)

परिवर्तित व्यावसायिक परिस्थितियों में एक-पक्षीय वित्तीय व्यवस्था पर बल देने वाली तथा कमजोर सैद्धान्तिक आधार वाली परम्परागत विचारधारा का महत्व समाप्त हो गया है। एक सुदृढ़ निगम क्षेत्र (Corporate Sector) के विकास, तकनीकी सुधारों, विस्तृत विपणन, गतिविधियों तथा तीव्र एवं स्वस्थ प्रतियोगिता ने फर्म को निरन्तर जीवित रखने के लिये प्रबन्ध द्वारा उसके साधनों का अनुकूलतम उपयोग करना अनिवार्य कर दिया है परिणामस्वरूप वित्त कार्य की अवधारणा एवं क्षेत्र में परिवर्तन आया है। वित्त कार्य अब एक निरन्तर प्रशासनिक प्रक्रिया का रूप ले चुका है।

आधुनिक विद्वान वित्त कार्य को सम्पूर्ण प्रबन्ध का ही एक महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। व्यापक विचारधारा में वित्तीय नीति का मुख्य केन्द्र बिन्दु वित्त का विवेकपूर्ण उपयोग तथा कोषों का प्रभावपूर्ण निविधान (Allocation) है। यद्यपि कोषों के निविधान की समस्या नयी समस्या नहीं है, किन्तु सन1950 से पूर्व फर्म के दीर्घकालीन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये इसको अधिक महत्व नहीं दिया गया था। आधुनिक विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य केवल कोषों की व्यवस्था तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि किसी संस्था की समस्त वित्तीय क्रियाओं से सम्बद्ध है। वित्तीय प्रबन्धक उत्पादन, विपणन तथा संस्था के ऐसे सभी कार्यों से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध होता है जहाँ की सम्पत्ति का प्राप्त करने या उसके नष्ट होने के सम्बन्ध में निर्णय लिये जाते हैं। अतः आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्त कार्य के क्षेत्र में कोषों का नियोजन, कोषों की उपलब्धि, कोषों एवं आय का निविधान, कोषों का नियन्त्रण तथा उनके अनावर्ती वित्त कार्यों को सम्मिलित किया जाता है।

संक्षेप में, सरल रूप में वित्त कार्य से आशय किसी भी व्यावसायिक संस्था के लिये वित्त की व्यवस्था करने से है। लेकिन यह एक पुरानी विचारधारा थी। आजकल वित्त कार्य से आशय व्यवसाय के लिये न केवल समुचित वित्त या पूँजी की व्यवस्था करना है वरन् यह भी देखना है कि उसका उचित एवं प्रभावपूर्ण उपयोग हो रहा है अथवा नहीं। इसे वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा के नाम से जाना जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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